क्या ढह पाएगा क्षत्रियों का मजबूत गढ़

क्षत्रियों का मजबूत गढ़
  • 25 साल से एक ही जाति का दबदबा …

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से कई सीटें ऐसी हैं ,जिन पर जातिगत फैक्टर हावी रहता है। खासकर ग्वालियर-चंबल अंचल की अधिकांश सीटों पर पार्टियां जाति के आधार पर चुनाव लड़ती हैं। इन्हीं में से एक है ग्वालियर विधानसभा सीट। ग्वालियर विधानसभा सीट प्रदेश की हाई प्रोफाइल सीटों में से एक रही है। इस विधानसभा क्षेत्र में 1998 से क्षत्रिय समाज के प्रत्याशी ही लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं।
केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर इसी विधानसभा से 1993 में अपना पहला चुनाव लड़े थे, लेकिन तब हार गए थे। उसके बाद वे इसी सीट से लगातार दो बार विधायक चुने गए। जयभान सिंह पवैया भी इसी सीट से विधानसभा पहुंच कर प्रदेश सरकार में मंत्री बने थे। वर्तमान विधायक प्रद्युम्न सिंह तोमर यहां से तीन बार जीत चुके हैं। इस बार उन्हें कांग्रेस के ब्राह्मण प्रत्याशी सुनील शर्मा से कड़ी चुनौती मिल रही है, जिससे माना जा रहा है कि इस बार क्षत्रियों का यह मजबूत गढ़ ढह सकता है। ग्वालियर विधानसभा सीट पर पिछले 25 साल से एक ही जाति का दबदबा है। वहीं दिलचस्प बात यह है कि इस सीट से चुनाव जीतकर नरेंद्र सिंह तोमर, जयभान सिंह पवैया के अलावा प्रद्युम्न सिंह तोमर प्रदेश सरकार में मंत्री बने थे। ग्वालियर विधानसभा क्षेत्र में जातिगत फैक्टर सबसे प्रभावी रहता है।
इस सीट पर सबसे अहम मुद्दा मजदूरों का रहता है। इस सीट पर जब भी चुनाव होते हैं, तब श्रमिकों का का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जाता है। उन्हें सब्जबाग दिखाकर जनप्रतिनिधि तो चुन लिए जाते रहे हैं, लेकिन 30 साल बाद भी श्रमिकों को उनका हक दिलाने में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। लिहाजा इस चुनाव में भी श्रमिकों का मुद्दा फिर जोर-शोर से उठ रहा है। इस बार के चुनाव में भाजपा ने प्रदेश सरकार के मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर को टिकट दिया है, जबकि कांग्रेस ने सुनील शर्मा को मैदान में उतारा है।
समस्याओं का समाधान नहीं
विधानसभा क्षेत्र में समस्याओं की भरमार है। आलम यह है कि समस्याओं के बावजूद इस सीट पर जातिगत फैक्टर सबसे बड़ा होता है। इस कारण समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है। ग्वालियर विधानसभा स्थित जीवाजीराव कॉटन मिल्स (जेसी मिल) की ख्याति कपड़ा उत्पादन के लिए न सिर्फ देश में बल्कि दुनियाभर में थी। यह मिल 1992 में जब बंद हुई, तो करीब साढ़े आठ हजार मजदूर बेरोजगार हो गए। अपनी लेनदारियों की आस में अब तक एक हजार से अधिक मजदूरों की मौत हो चुकी है। जो बचे हैं, वे आश्वासन के सहारे बोट दे रहे हैं। जेसी मिल के श्रमिकों को आज तक उनकी देनदारियों का भुगतान नहीं किया जा सका है। वे जिन आवासों में रह रहे हैं, उन्हें उसके पट्टे देने के वादे किए गए थे, जो पूरा नहीं हुआ है। पिछले विधानसभा चुनाव में जब घर-घर पट्टे दिए जाने के पर्चे बंटवाए गए, तो श्रमिकों के निराशा से भरे चेहरे पर आशा की किरण दिखी थी, लेकिन अब तक पट्टे देने की सिर्फ रस्म अदायगी हुई। श्रमिक आवासों में निवासरत अधिकांश मजूदरों के परिवार आज भी पट्टे का इंतजार कर रहे हैं। जेसी मिल के करीब 2 हजार श्रमिक परिवार इन आवासों में निवासरत है, जिसमें से सिर्फ 700 के करीब श्रमिकों को पट्टे देने के लिए चिन्हित किया गया। अब तक सिर्फ दो सौ श्रमिकों को ही पट्टा मिल पाया है।
न डॉक्टर, न सुविधाएं
अंचल की सबसे बड़े उद्योगों में से एक जेसी मिल जब यहां संचालित थी, तो लोको स्थित राज्य कर्मचारी बीमा अस्पताल शहर के सबसे अच्छे अस्पतालों में शुमार था। श्रमिकों के इलाज के लिए बनाया गया यह अस्पताल अब बदहाल स्थिति में पहुंच गया है। यहां ना तो विशेषज्ञ डॉक्टर्स मौजूद हैं और ना सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहां इलाज कराने के लिए मजदूर को इतने चक्कर लगवाए जाते हैं कि वे , अब अस्पताल में जाना मुनासिब ही नहीं समझते हैं।

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