कुपोषण से किसका पोषण…?

कुपोषण

हर साल हजारों करोड़ स्वाहा, फिर भी बच्चे कुपोषित

मप्र में कुपोषण सरकार के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया है। कुपोषण को खत्म करने के लिए सरकार हर साल हजारों करोड़ रुपए खर्च करती है, लेकिन उसके बावजूद बच्चे कुपोषित हो रहे हैं। सरकारी तंत्र की मानें तो कुपोषण के फंड से बच्चों का नहीं, बल्कि अफसरों का पोषण हो रहा है।

विनोद कुमार उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)।
सरकार की तमाम योजनाओं और दावों के बावजूद भी मप्र कुपोषण का दंश झेलने को मजबूर है। कुपोषण को रोकने के लिए मप्र में जितनी योजनाएं चलाई जा रही हैं, शायद ही किसी और प्रदेश में चलती है। कुपोषित बच्चों को पोषण आहार, इलाज और अन्य सुविधाओं के लिए सरकार हर साल तकरीबन डेढ़ हजार करोड़ रूपए खर्च कर रही है। उसके बावजुद राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक मप्र में 19 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषित (मध्यम कुपोषित) और 6.5 प्रतिशत बच्चे अति गंभीर (तीव्र) कुपोषित हैं। कुल मिलाकर मप्र में 1.36 लाख से अधिक बच्चे कुपोषण से जूझ रहे हैं। कुपोषित श्रेणी के सबसे अधिक बच्चे जनजातीय बाहुल्य जिलों में हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है की कुपोषण की राशि से किसका पोषण हो रहा है। जानकारों का कहना है कि बच्चों में कुपोषण होने के दो कारण हो सकते हैं – पहला तो यह कि देश-समाज में गंभीर खाद्य असुरक्षा की स्थिति हो, उत्पादन न हो रहा हो और प्राकृतिक संसाधनों की कमी हो। दूसरा कारण यह हो सकता है कि शासन व्यवस्था नीति, नैतिकता और नियत के मानकों पर कमजोर हो। मप्र में निश्चित रूप से भोजन-पोषण के उत्पादन और उपलब्धता में कमी नहीं है। इस वक्त मप्र समग्रता में देश के सबसे ज्यादा भोजन उत्पादन करने वाले तीन राज्यों में शुमार होता है। ऐसे में 35.7 प्रतिशत बच्चों का ठिगनापन से और 19 प्रतिशत बच्चों का अल्प पोषण से ग्रसित होना यही दर्शाता है कि शासन व्यवस्था ने आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक विकास के मानकों में बच्चों के कुपोषण को कोई खास महत्व नहीं दिया है।
मप्र में 6 माह से 3 वर्ष तक के बच्चों और गर्भवती-धात्री महिलाओं को राज्य सरकार द्वारा स्थापित 7 पोषण आहार उत्पादन प्लांटों से हर हफ्ते पोषण आहार के पैकेट उपलब्ध करवाए जाते हैं। इसे टेक होम राशन कहा जाता है, जबकि 3 वर्ष से 6 वर्ष की उम्र के बच्चों को स्थानीय स्तर पर यानी गांव/बस्तियों में ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरम पका हुआ पोषण आहार दिए जाने की व्यवस्था है। जमीनी अनुभव बताते हैं कि दोनों की व्यवस्थाओं में गंभीर उपेक्षा और गैर-जवाबदेहिता विराजमान है। मप्र में 3 से 6 साल के बच्चों को गांवों में ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरम पका हुआ पोषण प्रदान किया जाता है। इसके लिए गेहूं और चावल का आवंटन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग द्वारा किया जाता है; लेकिन कम्प्यूटरीकरण की व्यवस्था के विकास के कारण मार्च 22 से 38 लाख बच्चों के लिए आवंटित होने वाला अनाज चार महीने जारी ही नहीं हो पाया। बच्चों को गरम पका हुआ पोषण आहार प्रदान करने का काम ग्रामीण क्षेत्रों में 50 हजार और शहरी क्षेत्रों में 2076 स्वयं सहायता समूह कर रहे हैं। आज की स्थिति यह है कि जो महिलायें भोजन पकाने का काम करती हैं, उन्हें दिए जाने वाला 2000 हजार रुपये का मानदेय 3-4 महीने तक जारी ही नहीं होता है। इन स्थितियों में जब अनुसूचित जाति-जनजाति की महिलायें पोषण आहार उपलब्ध नहीं करा पाती हैं, तब उनके विरुद्ध संगठित दुष्प्रचार भी शासन व्यवस्था के माध्यम से ही कराया जाता है। इस पोषण आहार पकाने वाले समूहों को खाद्य सामग्री के लिए मिलने वाली राशि 3 से 6 महीने की देरी से पहुंचती है। जिस आंगनवाड़ी केंद्र की स्थिति का जिक्र हमनें ऊपर किया है, वहां से स्वयं सहायता समूह के रसोइये को मार्च 2020 यानी कोविड-19 महामारी वाले महीने से मानदेय का भुगतान ही नहीं हुआ है।

80 लाख से ज्यादा को पोषण आहार
मप्र के महिला एवं बाल विकास विभाग के अनुसार राज्य में पोषण आहार कार्यक्रम में 69.44 बच्चे और 13.66 लाख महिलायें दर्ज हैं, जिन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के मुताबिक वर्ष में 300 दिन पोषण आहार प्रदान किये जाने की व्यवस्था होना चाहिए। भारत सरकार ने मानकों के मुताबिक बच्चों के पोषण आहार के लिए 8 रुपये, महिलाओं के लिए 9.50 रुपये और अति गंभीर तीव्र कुपोषित बच्चों के लिए 12 रुपये प्रतिदिन के मान से आवंटन किया जाना चाहिए। अगर यह मानक वास्तव में लागू किया जाए तो मप्र में पोषण आहार के लिए 2253.87 करोड़ रुपये का आवंटन किया जाना चाहिए, लेकिन वर्ष 2021 में इसके लिए केवल 1450 करोड़ रुपये का ही आवंटन किया गया था। वर्ष 2022-23 में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम – विशेष पोषण आहार कार्यक्रम के लिए 1272.24 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। जब सरकार की मंशा ही कुपोषित है, तब बच्चे कुपोषण से मुक्त कैसे होंगे। उल्लेखनीय है कि अगर राज्य में उत्सवों, भीड़ जुटाने वाले कार्यक्रमों और महिला एवं बाल विकास विभाग के बजट से राजनीतिक कार्यक्रमों के आयोजनों का मोह त्यागा जा सके, तो पोषण आहार कार्यक्रम के लिए शेष एक हजार करोड़ रुपये जुटाए जा सकते हैं। वर्तमान बजट आवंटन से बच्चों और महिलाओं को 300 के स्थान पर केवल 187 दिन का ही पोषण आहार उपलब्ध करवाया जा सकता है। एक तरफ कुपोषण कम नहीं हो रहा है, तो दूसरी तरफ उनके लिए चलाई जाने वाली योजनाएं आर्थिक तंगी का शिकार हो रही हैं। इसमें सबसे अहम योजना है, विशेष पोषण आहार योजना। इस योजना के तहत प्रदेश 97 हजार से ज्यादा आंगनबाड़ी केंद्रों में 80 लाख से ज्यादा कुपोषित बच्चों को पोषित करने पूरक पोषण आहार मुहैया कराया जाता है। इसके लिए राशि केन्द्र सरकार द्वारा दी जाती है। लेकिन हालत यह है कि अब भी प्रदेश को इस मद में मिलने वाली राशि में से साल बीत जाने के बाद भी पांच सौ करोड़ रुपए नहीं दिए जा रहे हैं। प्रदेश की गिनती उन राज्यों में होती है, जहां पर बहुतायत मात्रा में बच्चे कुपोषित हैं। प्रदेश मे अति कुपोषित बच्चों की संख्या करीब एक लाख है। इनके पोषण आहार पर खर्च होने वाली राशि का 74 फीसदी केन्द्र सरकार द्वारा दी जाती है। इसके तहत प्रदेश को बीते साल केन्द्र सरकार से 1623 करोड़ रुपए मिलने थे, लेकिन केन्द्र सरकार ने महज 1123 करोड़ की राशि ही उपलब्ध कराई है। इसकी वजह से अब भी भी प्रदेश सरकार को बीते साल के हिस्से के पांच सौ करोड़ रुपए लेने हैं। इसी तरह से अन्य योजनाओं को देखें तो, उनमें प्रदेश को 2794 करोड़ रुपए मिलने थे, लेकिन मिले महज 1495 करोड़ रुपए। प्रदेश में महिलाओं तथा बच्चों के कल्याण के लिए मप्र सरकार द्वारा कई तरह की योजनाओं का संचालन किया जाता है। इनमें सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण आहार 2.0 योजना, नारी अदालत, हब फॉर वूमन एम्पॉवरमेंट, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना, पोषण अभियान, स्वधार योजना, वन स्टॉप सेंटर (सखी), महिला शक्ति केंद्र, वात्सल्य योजना, महिला विश्रामालय का भवन निर्माण, समेकित बाल संरक्षण योजना, किशोरी बालिका योजना, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम विशेष पोषण आहार योजना तथा मिशन वात्सल्य तैसी योजनाएं शामिल हैं। इन योजनाओं पर बीते साल राज्य सरकार ने 4 हजार 330 करोड़ का बजट प्रावधान किया था। इसमें से 1535 करोड़ की राशि मप्र को और 2794 करोड़ रुपए केंद्र सरकार को खर्च करने थे , लेकिन 31 मार्च तक प्रदेश को केंद्र ने महज 1495 करोड़ रुपए ही दिए। पूरी राशि न मिलने की वजह से पोषण आहार के वितरण की दो योजनाओं पर बड़ा आर्थिक संकट खड़ा हो गया है। प्रदेश में कुपोषण से मुक्ति के लिए मप्र सरकार द्वारा आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से दो योजनाएं चलाई जा रही है। इनमें से एक में 6 माह से 6 साल तक की आयु के बच्चों को सुबह नाश्ता और दोपहर में भोजन दिया जाता है, वहीं एक अन्य योजना में 3 से 6 साल के बच्चों को विशेष पोषण आहार प्रदान करने तरह-तरह के पौष्टिक व्यंजन उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है। प्रत्येक बच्चे पर पोषण आहार के लिए 7 से 7.95 रुपए खर्च किए जाते हैं। न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के तहत संचालित विशेष पोषण आहार योजना में प्रदेश सरकार ने 1272 करोड़ का बजट प्रावधान किया था, इसमें से मप्र सरकार ने 647 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, लेकिन केंद्र सरकार से उसके हिस्से के 625 करोड़ रुपए की राशि अभी तक नहीं प्रदान की गई है। इसी तरह सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण-2.0 के लिए 2191 करोड़ के बदले केंद्र से 1623 करोड़ रुपए मिलना था, जिसमें केंद्र ने अभी तक 1123 करोड़ ही दिए और 500 करोड़ की राशि अभी भी अटकी हुई है।

आर्थिक विकास के बावजूद कुपोषण
हैरानी की बात यह है कि मप्र लगातार आर्थिक विकास कर रहा है। उसके बावजुद कुपोषण चिंता का विषय बना हुआ है। रिजर्व बैंक आफ इंडिया के प्रतिवेदन के अनुसार वर्ष 2005-06 में मप्र का राज्य सकल घरेलु उत्पाद प्रचलित मूल्य पर 1242 अरब रुपये था, जो वर्ष 2015-16 में लगभग चार गुना बढक़र 5410 अरब रुपये और फिर वर्ष 2020-21 में साढ़े सात गुना बढक़र 9175 अरब रुपये हो गया। राज्य की आर्थिक विकास दर लगभग 11.5 प्रतिशत रही है। खेती में अद्भुत चमत्कारिक विकास करने के लिए कई मर्तबा कृषि कर्मण पुरूस्कार हासिल किया गया है, लेकिन ठीक इसी अवधि में बच्चों में कुपोषण की स्थिति क्या रही? जब आर्थिक विकास दर 11.5 प्रतिशत थी, तब वृद्धिबाधित (ठिगनापन) कुपोषण में केवल 1 प्रतिशत की दर से कमी हो रही थी। अल्प पोषण में केवल 1.1 प्रतिशत की दर से और कम वजन के बच्चों में 1.8 प्रतिशत की दर से कमी हो रही थी। इसका मतलब है कि आर्थिक विकास की नीतियों के स्वरुप और परिणामों का खाद्य असुरक्षा, आजीविका और बच्चों में कुपोषण के नजरिए से कभी भी कोई आंकलन नहीं किया गया। यह एक चिंतनीय स्थिति है कि मप्र में बच्चों में एनीमिया में कमी की दर 0.1 प्रतिशत और गर्भवती महिलाओं में 0.3 प्रतिशत है. ऐसे सूचकों के सामने होने के बाद भी मप्र आठ में चार पहर राजनीतिक उत्सव मनाता है और लोगों को अहसास करवाता है कि कुपोषण समाप्त हो गया है। कुपोषण एक ऐसी आपदा है, जिसमें अवसर, राजनीतिक लाभ और मुनाफा खोजने की प्रवृत्ति समाज और राज्य व्यवस्था के अनैतिक होने का प्रमाण देती है। दो दशक से ज्यादा हो गए हैं, जब से मप्र सबसे ज्यादा बच्चों में मौजूद कुपोषण की ऊंची दर के कारण बार-बार चर्चा में आ जाता है। वर्ष 2001 से राज्य में कुपोषण 12 बार सबसे ज्यादा बहस का विषय बना। वर्ष 2001-02 में मप्र के शिवपुरी-श्योपुर जिलों में 23 बच्चों की कुपोषण के कारण मृत्यु हुई थी। भारत सरकार द्वारा संचालित किये जाने वाले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2005-06) से पता चला कि मप्र में 60 प्रतिशत बच्चे कम वजन के और 50 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं। इसके बाद वर्ष 2004-06 में पुन: इन्हीं जिलों के साथ खंडवा जिले में 39 बच्चों की मृत्यु दर्ज हुई। वर्ष 2007-09 में सतना के दो विकासखंडों में 27 बच्चों की मृत्यु हुई। इसके बाद झाबुआ में, रीवा में, सिंगरौली में, बड़वानी जैसे जिलों में भी कुपोषण के बच्चों के मृत्यु दर्ज हुई। ये सभी बच्चे अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों से सम्बन्ध रखते थे। कुपोषण को समाप्त करने के लिए यह वैज्ञनिक मांग स्थापित हुई कि इन बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से अंडे प्रदान किये जाएँ, जो कि प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों का अच्छा स्रोत है, लेकिन धार्मिक भावनाओं की धार ने बच्चों के पोषण के मूलभूत अधिकार की डोर को काट दिया।
18 सालों से यह मांग की जा रही है कि राज्य में पोषण आहार के कार्यक्रम के लिए पर्याप्त बजट आवंटित किया जाना चाहिए, लेकिन जिस वक्त 12-15 ग्राम प्रोटीन और 500 कैलोरी के लिए कम से कम 16 रुपये की आवश्यकता है, वहां यह आवंटन केवल 8 रुपये है। मप्र में चार बार समाज के सबसे प्रभावशाली समूहों के दबाव में पोषण आहार कार्यक्रम में अण्डों को शामिल करने से रोका गया, लेकिन पोषण आहार में जब-जब भ्रष्टाचार की बात उभरी, तब-तब शाकाहारी राजनीतिक समुदाय मौन हो गया। कितना अजब विरोधाभास है कि सबसे उच्चतम नैतिक सिद्धांतों का पालन करने वाले समुदायों ने बच्चों की कुपोषण से मृत्यु और पोषण आहार में भ्रष्टाचार पर एक बार भी कोई प्रश्न नहीं पूछा! जिस तरह के कुपोषण की स्थिति मप्र में रही है, उसका बहुत सीधा जुड़ाव राज्य में शिशु और बाल मृत्यु दर के साथ भी स्थापित होता है। राज्य की बाल मृत्यु दर और प्रदेश में होने वाले सभी जीवित जन्मों की संख्या के आंकलन से यह समझ आता है कि मप्र में इक्कीसवीं सदी के पहले 22 सालों में लगभग 3.96 करोड़ जीवित जन्म हुए हैं, और अगर औसतन और बाल मृत्यु दर लगभग 70 प्रति हजार जीवित जन्म रही है। इस मान से 27.72 लाख बच्चों की मृत्यु पांच साल से कम उम्र में हुई है, जिनमें से लगभग 10 प्रतिशत में अतिगंभीर तीव्र कुपोषण मृत्यु का एक प्रत्यक्ष कारण रहा है, लेकिन इसके मूल कारणों का विश्लेषण करके बच्चों के गरिमामय जीवन के मूल अधिकार को सुनिश्चित करने के बजाये, कुपोषण को प्रचार के एक अवसर के रूप में तब्दील कर दिया गया।

सारे प्रयास हो रहे फेल
मप्र में कुपोषण को दूर करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं। जुलाई-अगस्त 2015 में बहुत जोश-खरोश के साथ आंगनवाडी केन्द्रों में दूध देने का प्रावधान किया गया था, क्योंकि प्रोटीन के लिए अंडे नहीं देने थे। लेकिन फिर कुछ महीनों बाद दूध लुप्त हो गया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों से पोषण आहार के लिए स्वयं सहायता समूहों को मार्च से जुलाई-22 के बीच गेहूं-चावल नहीं मिला, क्योंकि व्यवस्था को तकनीकी रूप से उन्नत किया जा रहा था। अप्रैल-मई 2022 में कहा गया कि सभी आंगनवाड़ी केन्द्रों में पारदर्शी डिब्बों में लड्डू, नमकीन, मठरी, भुना चना, गुड़ आदि रखा जाएगा। यह पहल इतनी अधिक पारदर्शी रही, दिखाई ही नहीं दी। एक बहुत महत्वपूर्ण कदम और उठाया गया है। पहले मप्र में आंगनवाड़ी केन्द्रों की स्थिति, पानी, शौचालय, वजन मशीन की जानकारी वेबसाईट पर सबके लिए उपलब्ध होती थी। पहले यह भी देखा जा सकता था कि किस आंगनवाड़ी केंद्र में कितने बच्चे मध्यम या अतिगंभीर तीव्र कुपोषित हैं। अब प्रदेश में केवल तीन लोग यह जानकारी देख पाते हैं, क्योंकि मप्र के लोगों ने कुपोषण से सम्बंधित पहलुओं पर निगाह रखना शुरू कर दिया था और प्रश्न पूछने लगे थे। मप्र के 97 हजार आंगनवाड़ी केन्द्रों को 7 कारखानों से टेक होम राशन भेजा जाता है। इसे मप्र में विकेंद्रीकरण कहा गया है। ऐसे विकेंद्रीकरण का परिणाम सिंगरौली में नजर आया। वहां नवानगर थाना क्षेत्र में एक दुकान से 12 बोरी पोषण आहार (लगभग 480 पैकेट) बरामद हुआ। मप्र में शासन व्यवस्था की दृढ़ मान्यता है कि व्यवस्था को मशीनी और तकनीकी बना देने से कुपोषण में कमी आ जायेगी। आंगनवाड़ी केन्द्रों पर पोषण आहार भले न पहुंच पाया हो, लेकिन केन्द्रों की निगरानी के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को स्मार्ट फोन खरीद कर दिए गए हैं। इस वक्त भी मप्र में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (5) के मुताबिक 35.7 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं। झाबुआ (49.3 प्रतिशत), कटनी (49.5 प्रतिशत), सतना (49.4 प्रतिशत), बड़वानी 45.8 प्रतिशत, छतरपुर (45.1 प्रतिशत और श्योपुर (45.8 प्रतिशत) में ये मानक और चिंताजनक हैं। कोई भी बच्चा ठिगनेपन का शिकार तभी होता है, जब उसका परिवार और समुदाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुपोषण से ग्रस्त रहते हुए खाद्य असुरक्षा में रहता है। यह कुपोषण एक पीढ़ी में कम होता भी नहीं है, लेकिन मप्र सरकार ने 24-25 मई 2022 को साफ-साफ कह दिया था कि बस, डेढ़ साल में मप्र से कुपोषण खतम हो जाएगा। यह दावा किया जाता है कि मप्र सरकार ने खुद पहल करके निजी कंपनियों को पोषण आहार कार्यक्रम से अलग किया और स्वयं सहायता समूहों को पोषण आहार बनाने का जिम्मा दिया। यह बस एक झूठ है। मप्र उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद मप्र सरकार ने निजी कंपनियों द्वारा पोषण आहार बनवाना जारी रखा था। अदालत में मिथ्या शपथ पत्र दाखिल किये गए। आखिर में न्यायालय ने कठोर टिप्पणियां कीं, तब मजबूरी में सरकार ने उनसे काम वापस लिया।

दावे और जमीनी हालात
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक मप्र में 19 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषित (मध्यम कुपोषित) और 6.5 प्रतिशत बच्चे अति गंभीर तीव्र कुपोषित हैं। लेकिन धरातल पर की जाने वाली माप जोख कोई और ही कहानी बयान करती है। राज्य में कितने बच्चे कुपोषित हैं, इसी में असमंजस की स्थिति है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार मप्र में 19 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषित (लम्बाई के अनुसार कम वजन) हैं, लेकिन महिला एवं बाल विकास विभाग के अनुसार केवल 3.93 प्रतिशत बच्चे की कुपोषित हैं। मप्र सरकार द्वारा जून 2023 में की गई वृद्धि निगरानी में 60.46 लाख बच्चों में से महज 2.008 लाख बच्चे (3.32 प्रतिशत) ही मध्यम कुपोषित पाए गए और केवल 36580 बच्चे (0.60 प्रतिशत) ही अति गंभीर तीव्र कुपोषित हैं। इसी क्रम में हम देख सकते हैं कि लगभग 12 लाख मध्यम कुपोषित बच्चों में से 10 लाख बच्चों की वास्तविक पोषण स्थिति को जांचा ही नहीं जा सका है। अति गंभीर कुपोषण एक आपदा है। लगभग 3.60 लाख बच्चे इस श्रेणी में हैं, लेकिन 90 प्रतिशत अति गंभीर कुपोषित बच्चे नजर से ओझल हैं। राज्य की रिपोर्ट को अगर स्वीकार कर लिया जाए, तो मप्र अब एक कुपोषण मुक्त प्रदेश माना जाएगा, क्योंकि 5 प्रतिशत से कम होने पर कुपोषण को नगण्य ही माना जाता है। मप्र के रीवा संभाग की एक आंगनवाडी की यह वास्तविकता है। इसमें हम गांव और आंगनवाड़ी केंद्र के नाम का उल्लेख नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इससे बस प्रताडऩा का दौर भर शुरू होता है, बदलाव का नहीं। इस आंगनवाड़ी केंद्र में 6 माह से 36 माह आयु के 62 बच्चे दर्ज हैं। जिन्हें नियमानुसार हर महीने पोषण आहार (टेक होम राशन) के 4-4 पैकेट मिलना चाहिए, लेकिन इस केंद्र पर 45 प्रतिशत पोषण आहार कम पहुंचा। जनवरी से अगस्त 2023 की अवधि में यहां 1984 पैकेट पोषण आहार मिलना चाहिए था, लेकिन वास्तव में 1080 पैकेट ही पहुंचाया गया। फरवरी, मार्च और अप्रैल महीने तो ऐसे रहे, जिनमें एक पैकेट भी पोषण आहार वहां नहीं पहुंचा। यह बस एक बानगी है। ऐसी स्थिति मप्र में सर्वव्यापी है। मप्र में कुपोषण की स्थिति और राज्य व्यवस्था की भूमिका से यह तो साफ हो ही जाता है कि पोषण सुरक्षा और कुपोषण से मुक्ति नीति से ज्यादा नियत और नैतिकता का विषय है। बजट आवंटन में कमी, पोषण आहार की आपोर्र्ती में कमी, खराब गुणवत्ता, पोषण स्थिति में निगरानी में लापरवाही और जानकारियों-आंकड़ों को सार्वजनिक पटल से हटाये जाने की पहल; ये सब साबित करते हैं कि मप्र में कुपोषण का खेल खेला जा रहा है, जिसमें निजी और शासन व्यवस्था खिलाड़ी हैं और बच्चे खिलौने। विशेषज्ञ बताते हैं कि सरकार का पूरा ध्यान पोषण आहार पर ही है। लेकिन, बच्चों को सिर्फ पोषण आहार देने से कुपोषण दूर नहीं होगा। उन्होंने कहा कि सरकार को अब यह कारण देखना जरूरी है कि बच्चों को पोषण आहार देने के बाद भी कुपोषण क्यों दूर नहीं हो रहा है? चिकित्सकों ने बताया कि हमारे पास जो बच्चे आते हैं उसमें से कई बच्चों को सिकल सेल ट्रेड होता है, जो अधिकतर पकड़ में नहीं आता है। बच्चों का हीमोग्लोबिन कम होता है। अभी कई सारे बच्चे ऐसे मिल रहे हैं जिनमें सिकल सेल एनीमिया है। इसलिए वे कुपोषित हैं। कई बच्चों के दिल में छेद होने और डायरिया जैसी बीमारियों की वजह से भी वे कुपोषण का शिकार बन जाते हैं। चिकित्सकों ने बताया कि कई बच्चों के दिल में छेद होने से वे कुपोषित हैं। लेकिन, पूरा ध्यान सिर्फ पोषण आहार पर दिया जाता है। कई सारे बच्चों को ट्यूबरक्लोसिस यानी टीवी की बीमारी होती है, जिसके कारण वे कुपोषित हो जाते हैं। तो अब जरूरत इस बात की है कि हमें कुपोषण की जड़ पर जाना आवश्यक है। बच्चे पोषण आहार के अतिरिक्त किस कारण से कुपोषित हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण का एक कारण सफाई न रखना भी है। जिससे उनको बार-बार डायरिया होता है और बच्चा कुपोषण का शिकार हो जाता है।

महिलाओं के कारण भी कुपोषण
कुपोषण के बारे में डाइटीशियन अनीता साहू ने बताया कि वर्तमान समय में कुपोषण गरीब वर्ग के परिवारों के बच्चों में देखने को मिल रहा है। यहां की महिलाएं गर्भावस्था से ही खुद का ध्यान नहीं रखती हैं, जिस कारण से बच्चों में कुपोषण मुख्य तौर पर देखने को मिल रहा है। वह ना तो आहार ठीक से लेती हैं और उनका रहन-सहन भी उनके स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव डालता है। जिससे बच्चे का विकास ठीक तरह से नहीं हो पाता है। गरीब वर्ग की महिलाओं का नशा करना भी कुपोषण की एक मुख्य वजह सामने आई है। अशिक्षा के कारण भी वह सरकार के द्वारा दिए जाने वाली सुविधा और दवाइयां टाइम से नहीं लेती हैं जो उन्हें और उनके बच्चों को बीमार बनाता है। सरकार ने अपने स्तर पर कुपोषण के प्रति जागरूकता के लिए अलग-अलग प्रयास किए हैं और कुपोषण के उपचार के लिए न्यूट्रीशन रिहैबिलिटेशन सेंटर खोले हैं। जहां पर बच्चों को कुपोषण से उभारा जाता है। इन सेंटरों की सहायता से मां और बच्चे दोनों के पोषण के ऊपर काम किया जाता है। यहां पर मां के पोषण के लिए 100 रुपये और बच्चे के पोषण के लिए 70 रुपये खर्च किया जाता है। इन पैसों से इनको आहार और दवाइयां उपलब्ध कराई जाती हैं। न्यूट्रीशन रिहैबिलिटेशन सेंटर में बच्चों और मां को उनकी समस्या के हिसाब से 21 व 14 दिन के लिए रखा जाता है। इसके अलावा यहां उपचार के लिए आने वाली महिलाओं को सहायता राशि के रूप में 120 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दिया जाता है। कुपोषण को दूर करने के लिए मुख्य तौर पर अच्छा भोजन ही सबसे लाभदायक साबित होता है। अच्छे कैल्शियम और प्रोटीन से भरा हुआ भोजन ही कुपोषण को दूर करने में सहायक होता है। कुपोषण को दूर करने के लिए मां और उनके परिवार वालों में जागरूकता बढ़ाना ही सबसे महत्वपूर्ण साबित होगा।

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