- मनोज श्रीवास्तव
पंकज कपूर की एक फिल्म आई थी – एक डॉक्टर की मौत। जब एक डॉक्टर को उसकी शोध पर न केवल मान्यता नहीं मिलती बल्कि उसे उपेक्षित व बहिष्कृत और दंडित किया जाता है।
वह डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय के जीवन से प्रेरित फिल्म थी जिन्हें in vitro fertilisation के लिए श्रेय देने की जगह व्यंग्य और ताने दिये गये थे और अन्तत: उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। उसी के किंचित् दिनों पहले यही गौरव डॉक्टर रॉबर्ट एडवर्ड्स को उनके स्वतंत्र प्रयास के लिए मिला था। मैं उन दिनों एम. ए. प्रीवियस में था और यह मृत्यु इतनी त्रासद महसूस हुई थी।
यह स्वतंत्र भारत की घटना थी। हमने माकोर्नी और राइट ब्रदर्स की कहानियां पढ़ीं थीं और हम सोचते थे कि जगदीश चंद्र बसु और तलपदे को उनके आविष्कारों का श्रेय इसलिए नहीं मिला कि हम औपनिवेशिक शासन में थे। लेकिन डॉक्टर सुभाष की आत्महत्या ने हमें यह बताया कि जो समाज 1947 के बाद बना वह भी प्रतिभा से उतनी ही घृणा करता था। तब साभ्यतिक ईर्ष्या रही होगी, बाद में वह पो्रफेशनल ईर्ष्या में बदल गई। ऊपर से बंगाल सरकार और भारत सरकार की क्रूरताएं जब उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार तक अटेंड करने की अनुमति नहीं दी जाती थी। वे यह लिखकर मरे कि I can’t wait everyday for a heart attack to kill me.
अब एक डॉक्टर की मौत और हुई है। फिर वही शब्द उस पर साकार होते हुए। अबके यह मौत भारत के भीड़-तंत्र के नाम। उस nervous debility के नाम जो दबावों के आगे अपने ही डॉक्टरों को गुनहगार की तरह देखती है। उन गैलरी और तालियों के नाम जो चिकित्सकों के सार्वजनिक अपमान पर कमाई जातीं हैं। उन संवेगी फैसलों के नाम जो ‘क्षण’ की गर्मी के आधार पर लिये जाते हैं। आप कहते रहें इसे आत्महत्या लेकिन है यह mob murder.
आर्टिकल 99 हॉलीवुड मूवी भी ऐसी ही थी, जिसमें राजनीति डॉक्टर से या रोगी के स्वास्थ्य से ज्यादा कीमत की चीज बन गई थी।
आत्महत्या से पहले क्या क्या चल रहा होगा उस डॉक्टर के दिमाग में। कितने कड़वे शब्दों की रील मूंदी हुई आंखों के सामने से कितनी बार गुजरी होगी। सहसा वह अकेली पड़ गयी है। उसे अकेला कर दिया गया है। दोष-निर्धारण में भी। ये सब लोग जो चढ़े आ रहे हैं, ये खुद के मामलों में कितने डिफेन्सिव और औचित्यीकरण में व्यस्त होते हैं। तथ्यों को देखने की फुरसत किसी को नहीं है। हर चीज का एक खाकी समाधान। FIR कर ली है। FIR काटना लॉ एंड ऑर्डर समस्याओं से निपटने का तरीका बन गया है। उनकी तो आदत में शुमार है क्योंकि वे एक दिन में पचीस FIR काटते हैं, लेकिन जिसके विरुद्ध होती है, वह अपनी आत्म-छवि के ऐसे ध्वंस के संस्कार लेकर नहीं जीता है।
उसकी मृत्यु के पहले आखिरी विचारों में यह भी कि ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है।
दूसरी ओर इसी दुनिया में अपने पति और बच्चों के गड्डमड्ड होते हुए चेहरों की आखिरी स्मृति।
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं)