- अरुण पटेल
छत्तीसगढ़ सहित चार राज्यों में चार विधानसभा उपचुनावों एवं एक लोकसभा उपचुनाव की मतगणना में जो जनादेश ईवीएम से निकलकर बाहर आया है वह भारतीय जनता पार्टी के लिए निराशाजनक तथा कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल का उत्साह बढ़ाने वाला है। क्योंकि हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पंजाब को छोड़कर अन्य राज्यों में भाजपा की धमाकेदार जीत के बाद विपक्षी दल के नेताओं व कार्यकर्ताओं में जो हताशा व निराशा की लहर दौड़ गई थी ,उससे एक सीमा तक उन्हें उबरने में मदद मिलेगी। वैसे उपचुनाव के नतीजों को आम जनमानस के रुझान का प्रतीक नहीं माना जा सकता लेकिन फिर भी कुछ न कुछ संदेश यह अवश्य ही देते हैं। सामान्यत: उपचुनावों में सत्ताधारी दल के उम्मीदवार जीतते हैं लेकिन बिहार इसका अपवाद बन गया ,जहां पर सत्ता में भागीदार होते हुए एनडीए की जीती हुई सीट बचाने में भाजपा नाकामयाब हुई और तेजस्वी यादव की सक्रियता यहां रंग लाई तथा राजद उम्मीदवार को भारी मतों से जीत हासिल हुई। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन नतीजों से विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं का हताश हुआ मनोबल उठाने में उनके नेताओं को काफी मदद मिल सकती है।
छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ उपचुनाव में सबसे शोचनीय स्थिति तो जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ जिसे जोगी कांग्रेस कहा जाता है, के उम्मीदवार नरेंद्र सोनी की रही जो एक प्रकार से राजमहल से जुड़े हुए थे इसलिए उम्मीद थी कि उन्हें महल का समर्थन मिल जायेगा, लेकिन जो परिणाम सामने आये हैं उसमें उन्हें निराशा हाथ लगी है और उन्हें नोटा से भी कम वोट मिले हैं। इससे जोगी कांग्रेस के भविष्य को लेकर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है क्योंकि उसे वोट देने वाले अधिकांश मतदाताओं ने उपचुनाव में कांग्रेस को वोट दिया, ऐसा चुनाव परिणामों से उभर कर सामने आया है। इससे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी को धीरे से जोर का झटका लगना स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसा लगता है कि उनकी राजनीतिक शैली को मतदाता पसंद नहीं कर रहे हैं। उनकी पार्टी उस मरवाही सीट को भी नहीं बचा पाई थी, जिस पर अजीत जोगी काबिज थे और उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने छलांग लगाते हुए तीसरे स्थान से पहली पायदान पर आने में सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार खैरागढ़ में भी कांग्रेस तीसरे स्थान से पहले स्थान पर आई। कोई माने या न माने लेकिन यह बात हकीकत बनकर उभर रही है जिसमें कहा जा सकता है कि जिस प्रकार मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अपना आभामंडल है उसी प्रकार छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल भी पूरी ताकत से उभर रहे हैं और उनका जादू भी मतदाताओं के सिर चढ़कर बोल रहा है। भाजपा के लिए राजनांदगांव और मरवाही में हुए उपचुनाव में यह बात संतोष की थी कि वह दूसरे स्थान की अपनी स्थिति बनाये रखने में सफल रही। हालांकि 2018 के बाद से छत्तीसगढ़ में जितने भी उपचुनाव हुए उनमें भाजपा जीत नहीं पाई और अपनी जीती हुई सीटें भी नहीं बचा पाई। जहां तक खैरागढ़ का सवाल है आरम्भ से यह लग रहा था कि कांटे की टक्कर में कांग्रेस उम्मीदवार यशोदा वर्मा अंतत: विधानसभा पहुंचने में सफल रहेंगी, लेकिन लगता है सारे परिदृश्य को बघेल की इस घोषणा ने एकतरफा बना दिया जिसमें खैरागढ़ को कांग्रेस उम्मीदवार यशोदा वर्मा के जीतने के 24 घंटे के अंदर जिला बनाने का वायदा किया था। इस वायदे को लेकर भाजपा ने संदेह का माहौल बनाने की पूरी कोशिश की लेकिन मतदाताओं ने उसकी बात पर भरोसा करने के स्थान पर बघेल के वायदे पर ज्यादा भरोसा जताया। खैरागढ़ उपचुनाव में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। हालांकि मध्यप्रदेश के नेताओं में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल भी कोई असर वहां नहीं डाल पाये। इसी प्रकार डॉ. रमन सिंह को भी इस नतीजे से झटका लगना स्वाभाविक है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की अगुवाई में कांग्रेस अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही है। वहीं पिछले लगभग तीन-चार माह से भाजपा जिस तेजी से जनता से फिर जुड़ने की कोशिश करते हुए संघर्ष करती नजर आ रही थी ,उसके वह प्रयास फिलहाल नाकाफी नजर आ रहे हैं। भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले के लिए और अधिक धारदार रुख अपनाना होगा। केवल इतना ही पर्याप्त नहीं, अपितु उसे अपने नये चेहरों को आगे करने के साथ ही कुछ पुराने नेताओं को भी आगे करना पड़ेगा जो भले ही सत्ता व संगठन में रहे हों लेकिन अपने आपको उपेक्षित महसूस करते रहे हैं। ऐसे नेताओं में बृजमोहन अग्रवाल, प्रेम प्रकाश पांडेय, चंद्रशेखर साहू, अमर अग्रवाल तथा वीरेंद्र पांडेय आदि शामिल हैं। फिलहाल 2018 के विधानसभा चुनाव में डेढ़ दर्जन सीटों से कुछ अधिक सीटें जीतने वाली भाजपा के पास अब डेढ़ दर्जन सीटें भी नहीं बचीं हैं। हर उपचुनाव में बघेल की पकड़ मतदाताओं पर मजबूत होती नजर आ रही है। इसमें जो संदेश छिपा है उसमें चुनौतियां जीतने वाले के सामने भी हैं और हारने वाले के सामने भी, लेकिन वे अलग-अलग हैं। भूपेश बघेल के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जिस पायदान पर कांग्रेस खड़ी है उससे नीचे न खिसकने पाये बल्कि कुछ कदम और आगे बढ़े, क्योंकि जिस स्थान पर कांग्रेस पहुंच चुकी है उस पर टिके रहना हिमालयीन चुनौती से कम नहीं होगा । इसी प्रकार भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किस प्रकार वह जनता का विश्वास जीते और ऐसा माहौल बनाने में सफल रहे जिससे यह बात आसानी से मतदाताओं के गले उतर सके कि वह न केवल कांग्रेस को कड़ी टक्कर देने जा रही है ,बल्कि उसे चुनाव में हरा भी सकती है। यह एक ऐसी चुनौती है जो छत्तीसगढ़ के मौजूदा राजनीतिक परिवेश में लोहे के चने चबाने जैसा ही होगा। आजकल चुनावी नतीजे बहुत कुछ धारणा यानी परसेप्शन पर आधारित होते हैं। खैरागढ़ उपचुनाव में बघेल ने ऐसी धारणा बनवा दी कि कांग्रेस काफी मजबूत है। यहां पर पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस न केवल तीसरे स्थान पर थी बल्कि ,उसे केवल 18 हजार वोट ही मिले थे ,जबकि हार-जीत का मार्जिन ही इस बार उससे कहीं अधिक हो गया है। कांग्रेस की यशोदा वर्मा ने भाजपा के कोमल जंडेल 20,000 से कुछ अधिक मतों से पराजित किया। जोगी कांग्रेस के सामने तो अब सबसे पहले अपने दल को बचाने की चुनौती होगी ,क्योंकि इसके बाद उसकी पार्टी के कार्यकर्ताओंव कुछ नेताओं में भगदड़ की स्थिति पैदा हो सकती है। उसके कुछ विधायक भूपेश बघेल के मोहपाश में बंध चुके हैं और जिन्हें इस पार्टी में अपना भविष्य नजर नहीं आयेगा वे कांग्रेस में जा सकते हैं। ऐसे कुछ नेता जिन्होंने अपने रिश्ते कांग्रेस से पूरी तरह तोड़ लिए हैं या बिगाड़ लिए हैं ,वह भाजपा में अपना भविष्य तलाश सकते हैं। इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्ण मुकाबले में बघेल ने अपनी प्रतिष्ठा बचा ली है तो वहीं रमन सिंह सफल नहीं हो पाये। अमित जोगी भी अपनी पार्टी का अस्तित्व प्रदर्शित कर पाने में सफल नहीं हुए हैं।
– लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक हैं