वन्यप्राणियों की सुरक्षा होगी मजबूत

स्पेशल टाइगर

-स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन करेगी मप्र सरकार
-पांचवी बाघ गणना में प्रदेश में 600 से अधिक बाघ होने की संभावना

मप्र के जंगलों में बाघ सहित अन्य प्राणियों की लगातार हो रही मौत के बाद सरकार वन क्षेत्र के साथ ही वन्यप्राणियों की सुरक्षा और मजबूत करेगी। इसके लिए इस साल के अंत तक स्पेशल टाइगर प्राटेक्शन फोर्स का गठन किया जाएगा। गौरतलब है कि प्रदेश में इस साल अभी तक 38 बाघों की मौत हो चुकी है। इसको लेकर हाईकोर्ट ने भी मप्र सरकार को दिशा-निर्देश जारी किया है।

गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)।
देश में पांचवीं बाघ गणना शुरू हो गई है। इस बीच मप्र की चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही हैं। कर्नाटक के साथ होने वाली प्रतिस्पर्धा में मप्र में बाघों की मौत के मामलों ने यह चुनौती और भी बढ़ा दी है। देश में एक जनवरी से 19 नवंबर 2021 तक 114 बाघों की मौत हो चुकी है। इसमें से अकेले मप्र में 36 प्रतिशत (38) बाघों की हुई है। यह पिछले पांच सालों में बाघों की मौत का सबसे बड़ा आंकड़ा है। यह स्थिति तब है, जब कर्नाटक की तुलना में मप्र में वर्ष 2018 की गणना में सिर्फ दो बाघ ज्यादा निकले हैं। कर्नाटक में 524 और मप्र में 526 बाघ गिने गए थे। वहीं, बाघों की मौत के मामले में देश में दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र है। वहां इस अवधि में 21 तो कर्नाटक में 15 बाघों की मौत हुई है। इसको देखते हुए मप्र सरकार वन्यप्राणियों की सुरक्षा और मजबूत करने जा रही है।
केंद्र सरकार के निर्देश के 12 साल बाद वन विभाग स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स गठित करने जा रहा है। ये फोर्स पन्ना, कान्हा, बांधवगढ़ और पेंच नेशनल पार्क में तैनात की जाएगी। हर पार्क में 112 सुरक्षाकर्मियों की तैनाती होगी। इस प्रस्ताव को कैबिनेट में भेजा जाएगा। मंजूरी मिलते ही सुरक्षाकर्मियों की भर्ती सहित अन्य प्रक्रिया शुरू कर दी जाएगी। गौरतलब है कि बाघों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने प्रदेश सरकार को वर्ष 2010 में स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स के गठन का प्रस्ताव दिया था। इसके साथ ही केंद्र ने 100 प्रतिशत बजट भी देने के लिए कहा था। सरकार ने कई सालों तक इसका गठन नहीं किया। बाद में इसका प्रस्ताव केंद्र को भेजा तो केंद्र ने कहा कि वो सिर्फ 60 फीसदी राशि देगा।

हाईकोर्ट ने लगाई फटकार
प्रदेश में लगातार बाघों की मौत पर मप्र हाईकोर्ट ने गम्भीरता दर्शाई। चीफ जस्टिस रवि मलिमठ व जस्टिस विशाल धगट की बेंच ने राज्य व केंद्र सरकार से पूछा कि पिछले एक साल में प्रदेश में 36 बाघों की मौत कैसे हो गई? कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकार के वन एवं पर्यावरण विभाग तथा नेशनल टाइगर कन्सर्वेटर अथॉरिटी के सदस्य सचिव को नोटिस जारी किए। 4 सप्ताह में जवाब मांगा गया।
टाइगर स्टेट का तमगा बचाने और बाघ गणना 2022 में प्रतिद्वंदी राज्यों को कड़ी टक्कर देने का दावा कर रहे मप्र की धरातल पर स्थिति खराब है। यहां बाघों की मौत रुक नहीं रही है। यहां नवंबर माह के 23 दिनों में 6 बाघों की मौत हो चुकी है। अगस्त माह में पांच बाघों की मौत हुई है। मई माह तो बाघों के लिए सबसे बुरा समय साबित हुआ है। इस माह सबसे ज्यादा सात बाघों की मौत दर्ज हुई है। इससे टाइगर स्टेट का तमगा बरकरार रखने की संभावनाओं पर धुंध छा गई है। इसके बाद भी वन विभाग से एक ही जबाव मिलता है कि मौत का आंकड़ा सामान्य है। ज्यादा बाघ हैं। इसलिए ज्यादा मौत भी हो रही है।

टाइगर स्टेट में सबसे ज्यादा मौतें
मप्र को टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त है, लेकिन अब प्रदेश को इस औहदे के साथ ही एक और औहदा मिल गया है। दरअसल प्रदेश, देश में नंबर एक स्थान पर है जहां इस साल अब तक सबसे ज्यादा बाघों की मौत हुई है। यानि टाइगर स्टेट के तमगे के साथ ही यहां सबसे ज्यादा बाघों की मौत का तमगा भी मप्र के सिर आ गया है। राज्य में नवंबर 2021 तक 38 बाघों की जान जा चुकी है। इनमें से कुछ का शिकार किया गया तो कुछ अपनी मौत ही मर गए। इन मौतों में से सबसे ज्यादा 20 मौत टाइगर रिजर्व क्षेत्र में हुई हैं। हाल ही में रातापानी सेंचुरी में भी दो बाघों के शव मिले थे। तेजी से मर रहे बाघों की मौत के मामले में अब पार्क प्रबंधन की कार्यशैली पर सवाल उठने लगे हैं। वन्य प्राणी प्रेमी बाघों की मौत का कारण टाइगर रिजर्व में ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति को मानते हैं, जिनका वाइल्ड लाइफ प्रबंधन से कोई लेना-देना नहीं है।
वनाधिकारियों का कहना है कि बाघों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जिसकी वजह से उनमें टेरिटोरियल फाइट होती है। इसमें कमजोर बाघ घायल होकर या तो इलाका छोड़ देता है या मर जाता है। यह प्राकृतिक है। टेरिटोरियल फाइट रोकने के लिए सेंचुरी बनाकर नए इलाके की संभावनाओं को तलाशा जा रहा है। पन्ना टाइगर रिजर्व में फरवरी 2009 में बाघ विहीन हो गया था। यहां बाघों के कुनबे को बढ़ाने के लिए दो अलग-अलग टाइगर रिजर्व से बाघ-बाघिनों को शिफ्ट किया गया। इसके करीब ढाई साल बाद जंगल में अप्रैल 2012 में एक बाघिन ने 4 शावकों को जन्म दिया। इसके बाद यहां बाघों का कुनबा लगातार बढ़ता गया। वर्तमान में पन्ना में 31 बाघ हैं।

किस राज्य में कितने बाघ और कितनी मौत
राज्य 2018 में बाघ 19 नवंबर 2021 तक मौत
मप्र — 526 — 38
महाराष्ट्र — 312 — 21
उत्तर प्रदेश — 173 — 09
कर्नाटक — 524 — 15
बिहार — 31 — 03
उत्तराखंड — 442 — 03
तेलंगाना — 26 — 03
छत्तीसगढ़ — 19 — 03
केरल — 190 — 06
तमिलनाडू — 264 — 02
असम — 190 — 06
राजस्थान — 69 — 01
पश्चिम बंगाल — 00 — 01
आंध्रप्रदेश — 48 — 01

मप्र में 6 साल में मरे 177 बाघ

मप्र में बाघों की सुरक्षा व्यवस्था की स्थिति का आकलन इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में पिछले 6 साल में 177 बाघ मरे हैं। गौरतलब है कि मप्र का पन्ना टाइगर रिजर्व 2009 में बाघ विहीन हो गया था। यहां बाघों की संख्या को बढ़ाने के लिए दो अलग-अलग टाइगर रिजर्व से बाघ-बाघिनों को शिफ्ट किया गया था। आज मप्र में करीब 600 बाघ हो गए हैं। लेकिन उनकी मौत का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा है। वनाधिकारियों का कहना है कि ये सही है कि राज्य में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। एनटीसीए की ओर से वर्ष 2012 से 2019 के बीच देशभर में मरने वाले बाघों पर जारी रिपोर्ट में मप्र शीर्ष पर है। यदि इनमें इस साल यानी 2020 में 26 बाघों की मौत को भी जोड़ दिया जाए तो प्रदेश में मरने वाले बाघों की संख्या 198 हो जाती है। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा बाघों की मौत जनवरी, मार्च और दिसंबर माह में होती है। मई में भी मौत का आंकड़ा इसी के आसपास रहता है।
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व फारेस्ट में पिछले 8 महीने में 11 बाघों की मौत हो चुकी है। तीन तेंदुए और दो हाथी भी मारे जा चुके हैं। हैरान करने वाली बात यह रही कि इस वर्ष केवल 3 बार में सात बाघों की मौत हुई, इसमें 6 शावक शामिल थे। दो बार एक साथ दो-दो शावकों की मौत हुई, जबकि तीसरी बार में दो शावक और उनकी मां सोलो बाघिन-42 मौत का शिकार बने। बाघिन के दो शावक अभी भी लापता है। यह घटनाएं 14 जून, 10 अक्टूबर और 17 अक्टूबर को हुई। 5 बाघों का शिकार तो फारेस्ट रिजर्व एरिया के भीतर हुआ। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी आफ इंडिया ने शिकारियों को पकड़वाने के लिए 25000 का इनाम भी घोषित किया था। बांधवगढ़ में बाघों की यह मौतें सहज नहीं थी, क्योंकि किसी का शव जमीन में दबा मिला, तो किसी को मारने के बाद झाडिय़ों में छिपा दिया गया था। बांधवगढ़ में बाघों की मौतों के सबसे ज्यादा मामले संदेहास्पद पाए गए हैं। मप्र में ज्यादा मौतें बताती है कि बाघ प्रबंधन में कितनी लापरवाही और उदासीनता बरती जा रही।

मप्र में साल दर साल बाघों की मौत
2021 – 38 बाघों की हुई मौत
2020-30 बाघों की हुई मौत
2019-29 बाघों की हुई मौत
2018-19 बाघों की हुई मौत
2017-27 बाघों की हुई मौत
2016-34 बाघों की हुई मौत

मप्र पहले तो महाराष्ट्र है दूसरे स्थान पर
इस साल अब तक मप्र में 38 बाघ, महाराष्ट्र में 21, कर्नाटक 13, यूपी 7, केरल 5, असम 5, छत्तीसगढ़ 3, बिहार 2 बाघों की मौत हुई है।
इन प्रदेशों में बाघों की मौत
राज्य —- संख्या
मप्र — 172
महाराष्ट्र — 125
कर्नाटक — 111
उत्तराखंड — 88
तमिलनाडू — 56
असम — 54
उत्तर प्रदेश — 35
केरल — 33
राजस्थान — 17
पश्चिम बंगाल — 11
बिहार — 10
छत्तीसगढ़ — 09
ओडि़शा — 07
आंध्रप्रदेश — 07
तेलंगाना — 05

1000 करोड़ स्वाहा फिर भी जा रही बाघ की जान
1000 करोड़ रूपए से अधिक खर्चने के बाद भी मप्र का वन अमला सजग नहीं हुआ है। इसका परिणाम है कि प्रदेश के जंगलों में बाघ सहित अन्य वन्य प्राणियों का लगातार शिकार हो रहा है। जानकारों का कहना है कि मप्र के जंगलों में आज भी खुंखार तस्करों का राज है, जो आदिवासियों को थोड़े से पैसे का लालच देकर बाघ या अन्य वन्य प्राणियों का शिकार करवाते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के दखल के बाद वन विभाग और खुफिया विभाग की जांच में यह बात सामने आई है कि प्रदेश के 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्यों के आसपास स्थित ऐसे फार्म हाउस और रिसोर्ट तस्करों का अड्डा बने हुए हैं। वन विभाग-नेशनल पार्क के अफसरों, सफदपोश लोगों, स्थानीय प्रशासन और तस्करों के गठजोड़ से मप्र में हर साल वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार करीब 7500 करोड़ रूपए से अधिक का है। मप्र में इस साल अब तक 38 बाघों की मौत हो चुकी है। कुछ बाघ उम्र पूरी होने के कारण, कुछ आपसी लड़ाई में मारे गए। लेकिन इनमें से आधे से ज्यादा की मौतें मानवीय कारणों के चलते हुई है। यह स्थिति तब है जब बाघों के संरक्षण के नाम पर एक दशक में करीब 1000 करोड़ से ज्यादा की राशि खर्च हो चुकी है।
मप्र में वन्य-जीव संरक्षित क्षेत्र 10989.247 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो देश के दर्जन भर राज्य और केंद्र शासित राज्यों के वन क्षेत्रों से भी बड़ा है। मप्र में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर में वन क्षेत्र हैं। यहां 10 राष्ट्रीय उद्यान और 25 वन्य-प्राणी अभयारण्य हैं, जो विविधता से भरपूर है। कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, पेंच, सतपुड़ा एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान को टाइगर रिजर्व का दर्जा प्राप्त है। अपनी स्थापना के समय से ही ये नेशनल पार्क और अभयारण्य रसूखदारों और तस्करों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए है। यही कारण है की इनके भीतर स्थित गांवों को जहां बाहर किया जा रहा है, वही इनके आसपास फार्म हाउस और रिसार्ट बड़ी तेजी से बने हैं। जानकार बताते हैं कि जब नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के आसपास फार्म हाउस और रिसोर्ट बढऩे लगे तब से प्रदेश में वन्य प्राणियों के शिकार के मामले भी बढ़ गए। वर्ष 2006 पहले तक मप्र में बाघों की संख्या सबसे अधिक होने से टाइगर स्टेट का दर्जा बरकरार था। ऐसा भी मौका आया जब मप्र में करीब 700 टाइगर थे।

एक टाइगर पर होता है 11.5 लाख खर्च
मप्र में एक टाइगर का सालाना खर्च साढ़े ग्यारह लाख रुपए है, जबकि अन्य राज्यों में यह 8 लाख 80 हजार है। वर्ष 2010 की गिनती के अनुसार देश भर में कुल 1706 टाइगर थे, इनके रखरखाव के लिए केन्द्र सरकार प्रति वर्ष 150 करोड़ रुपए देती है, जो कि प्रति टाइगर 8 लाख 80 हजार रुपए है। साल 2015 के आंकड़ों के मुताबिक मप्र को 257 बाघों के हिसाब से 30 करोड़ मिलते हैं जो प्रति बाघ 11 लाख 67 हजार रुपए होते हैं। प्रति बाघ इतनी बड़ी रकम खर्च किए जाने के बाद भी बाघों का कुनबा बढ़ाने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले।
संकट केवल बाघ जैसे वन्यप्राणी पर ही नहीं है, बल्कि हाथियों और तेंदुओं पर भी है। हाथियों की मौतों के पीछे एक दूसरा मसला यह है कि बांधवगढ़ हो या बरगी, इन रिजर्व फारेस्ट में उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ से आए हाथियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। यह हाथी गांवों में खेतों मे घुस जाते हैं और फसल को नष्ट कर देते है। इससे ग्रामीण बहुत परेशान रहते हैं, शिकायत के बाद भी वन विभाग उनकी कोई मदद नहीं कर पाता, लिहाजा मनुष्य और वन्यप्राणियों में टकराव सामने आता है। इसी प्रकार मप्र के किसी भी जंगल में तेंदुए सुरक्षित नहीं हैं। भोपाल, मंडला, चंदेरी, सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के जंगलों में बड़े पैमाने पर तेंदुओं का शिकार और उनकी विभिन्न कारणों से मौतें सामने आई हैं। वास्तव में मप्र में तेंदुओं की संख्या ढाई से तीन हजार के आसपास अनुमानित है। यह संख्या देश के किसी भी फारेस्ट एरिया में मौजूद तेंदुओं की संख्या से कहीं ज्यादा है, लेकिन उनका शिकार भी बड़े पैमाने पर हो रहा, जिसका कोई एकमुश्त आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। अलबत्ता हर दो-चार दिन में किसी न किसी फारेस्ट रेंज से तेंदुओं के मरने की खबरें आती रहती हैं।

शिकारियों के पनाहगाह बने जंगल
वन विभाग वन्यप्राणियों की मौतों के कारण चाहे जो भी बताए, लेकिन सूत्र बताते हैं कि मप्र के बांधवगढ़, पन्ना, सिवनी, मंडला, भोपाल, होशंगाबाद, रायसेन के जंगल शिकारियों के पनाहगाह बन गए हैं। देश के दूसरे राज्यों में टाइगर कारिडोर बड़े जंगलों में फैले हुए हैं, लेकिन मप्र में ऐसा नहीं है, इसलिए शिकारी घात लगा लेते हैं। बताते हैं कि सीधी जिले में संजय गांधी, मंडला जिले में कान्हा किसली, सिवनी जिले में पेंच, पन्ना में पन्ना नेशनल पार्क और उमरिया जिले में बांधवगढ़ नेशनल पार्क, यह सभी छोटे-छोटे टुकड़ों और वनक्षेत्रों में बंटे हैं। इसलिए शिकारयों को शिकार में आसानी होती है। राज्य में महाराष्ट्र के शिकारियों का बड़ा नेटवर्क सक्रिय है। महाराष्ट्र के लगभग एक दर्जन शिकारी ऐसे हैं, जो कई बार गिरफ्तार होने के बाद मप्र के शिकारियों से अपने नेटवर्क का पर्दाफाश कर चुके हैं। यह शिकारी गिरोह बाघ की खाल, नाखून, दांत बेचकर बड़ी रकम आसानी से कमा लेते हैं।
वन विभाग भी स्वीकारता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी जानवरों की तस्करी नहीं रूक पा रही है। वन्य जीवों की तस्करी करना अपराध है। इसके लिए वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत तीन साल की सजा और 25 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान है। किसी भी तरह के जंगली जानवर जैसे कछुआ, उल्लू, चमगादड़, सांप, शेर, तेंदुआ, भालू आदि को पकडऩा या खरीदना-बेचना गैरकानूनी है। सख्त कानून के बाद भी इनमें से कई को पकडक़र बेचा जा रहा है तो कई को मारकर तस्करी की जा रही है। इसके कारण दोमुंहा सांप, उल्लू और चमगादड़ की कुछ प्रजातियां, पानी के कछुए की प्रजाति विलुप्त होने की स्थिति में है। यूं तो सरकार विलुप्त होते जा रहे प्राणियों को बचाने की बात करती है, लेकिन इस तरह लगातार हो रहे शिकार और प्राणियों की तस्करी को रोकने के लिए कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा रहा। अंधविश्वास सबसे बड़ा कारण वन विभाग के मुताबिक कई जानवरों के शिकार और तस्करी के पीछे सबसे बड़ा कारण उनसे जुड़ा अंधविश्वास है। इसके चलते लोग कछुआ, तेंदुए के नाखून, शेर की खाल, बाल और हड्डियां, चमगादड़ की चमड़ी, सांप की कैंचुली, सेही और गोह के बाल आदि की मांग करते हैं। इनकी मांग को पूरा करने के लिए शिकारी जाल बिछाते हैं और निर्दोष प्राणियों को या तो जीवित पकड़ते हैं या मौत के घाट उतार देते हैं। इसके अलावा कुछ प्राणियों के मांस, खून और हड्डियों का उपयोग दवाई बनाने के लिए भी किया जाता है। इस तरह बनाई गई दवाइयों का कितना असर होता है यह कोई नहीं जानता, लेकिन अंधविश्वास के चलते प्रयोग जरूर किया जाता है।

नई सेंचुरी की घोषणा, पुरानी ठंडे बस्ते में
बाघों की मौत का सही कारण नहीं मिलने और मौत को दबाने के लिए हर बार एक घोषणा कर दी जाती है। हाल ही में वन मंत्री विजय शाह ने बुंदेलखंड में नई सेंचुरी घोषित की, जबकि टाइगर स्टेट का तमगा मिलने के बाद प्रदेश में शुरू हुई 11 नए अभयारण्य गठन की प्रक्रिया पर पूर्ण विराम लग गया है। राज्य सरकार ने नए अभयारण्यों की जरूरत को सिरे से खारिज करते हुए इस प्रक्रिया को रोक दिया है। इनमें से पांच अभयारण्य के प्रस्ताव कैबिनेट की मंजूरी के लिए जा चुके थे तो शेष छह अभयारण्यों के प्रस्ताव भी लगभग तैयार थे। पिछले दिनों वन मंत्री विजय शाह ने साफ कहा है कि प्रदेश में कोई नया अभयारण्य नहीं खोला जाएगा। वर्ष 2018 के बाघ आकलन (टाइगर एस्टीमेशन) में प्रदेश 526 संख्या के साथ देश में पहले स्थान पर रहा है। इसके साथ ही सरकार की जिम्मेदारी भी बढ़ी है। विशेषज्ञों ने साफ कहा था कि बाघों की संख्या बढऩे का मतलब है, ज्यादा निगरानी और बाघों के लिए नए क्षेत्रों का विकास। इसी सलाह पर पूर्ववर्ती कमल नाथ सरकार ने 11 नए अभयारण्यों के गठन का प्रस्ताव तैयार किया था। नाथ सरकार अभयारण्यों के गठन पर आखिरी फैसला ले पाती, इससे पहले ही सरकार गिर गई। हालांकि शिवराज सरकार ने पहले दिन से ही इसे प्राथमिकता में नहीं रखा। बाघ आकलन की रिपोर्ट 2019 में आई थी, तभी विशेषज्ञों ने कहा था कि प्रदेश के नेशनल पार्क और अभयारण्यों में बाघ क्षमता से अधिक हो गए हैं। ऐसे में नए क्षेत्र तैयार करने होंगे। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में बीते नौ महीने में घटी घटनाओं ने विशेषज्ञों की आशंका को सही साबित किया है।
ऐसी घटनाएं दूसरे इलाकों में भी घटी हैं। पार्क के बफर क्षेत्र में बाघों ने आधा दर्जन ग्रामीणों को मौत के घाट उतार डाला है। यदि बांधवगढ़ की ही बात करें तो वहां क्षमता 70 बाघों की है और वर्तमान में 124 हैं। इस कारण बाघ बफर क्षेत्र से बाहर निकलकर नजदीक के गांव तक पहुंच रहे हैं। नए अभयारण्यों का गठन सिर्फ बाघों की सुरक्षा के लिए ही नहीं था, बल्कि सरकार को पर्यटन बढ़ाकर आमदनी भी बढ़ानी थी। वर्तमान में प्रदेश में 11 नेशनल पार्क और 24 अभयारण्य हैं, जिनसे हर साल औसतन 27 करोड़ रुपये राजस्व मिलता है। तत्कालीन सरकार ने इसे 200 करोड़ रुपए तक ले जाने का लक्ष्य रखा था।

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