- चार साल बाद किया जारी, उस पर भी असमंजस बरकरार
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। कम्प्यूटर के इस युग में होने वाली तमाम तरह की भर्ती के परिणाम भी फटाफट सामने आ जाते हैं, लेकिन मप्र ऐसा एकमात्र राज्य है, जहां पर परीक्षा होने के चार -चार साल तक उसके परिणामों का इंतजार करना पड़ा है। इसकी वजह है भर्ती के लिए बनाए गए गलत- शलत नियम। इन नियमों का पता चलने के बाद भी न तो उनमें बदलाव किया गया और न ही भर्ती प्रक्रिया में कोई सुधार किया गया। ऐसा नही हैं कि ऐसा सिर्फ राज्य सेवा के अफसरों की भर्ती में ही हो रहा है, बल्कि अन्य परीक्षाओं के भी हाल प्रदेश में बेहाल बने हुए हैं। यही वजह है कि अधिकांश भर्ती परीक्षाएं विवादों में आ जाती हैं और फिर यह परीक्षाएं अपने परिणामों का सालों तक इंतजार करती रहती हैं। ऐसे मामलों में पुरानी सरकारें कभी गंभीर नहीं दिखी है, जिसकी वजह से प्रदेश की बदनामी तो हो ही रही है, साथ ही परीक्षा देने वाले युवकों को भी मानसिक परेशानी के दौर से गुजरना पड़ रहा है। मप्र लोक सेवा आयोग द्वारा 4 साल पहले 2019 में आयोजित की गई भर्ती परीक्षा का परिणाम देरी से घोषित होने के बाद पूरी परीक्षा प्रणाली पर ही सवाल उठना शुरू हो गए हैं। क्योंकि परीक्षा देने के बाद सबसे ज्यादा संघर्ष अभ्यर्थियों ने ही किया। उप जिलाधीश और उप पुलिस अधीक्षक के पद पर चयनित कई अभ्यर्थी मानते हैं कि परीक्षा के लिए तैयारी से ज्यादा संघर्ष उन्होंने परीक्षा के बाद न्यायालय के फैसले के लिए किया। चूंकि लोक सेवा आयोग ने राज्य शासन द्वारा साल भर पहले बताए गए समाधान पर परिणाम घोषित तो कर दिया है, लेकिन भविष्य में इस तरह से देरी न हो इसका कोई समाधान अभी नहीं तलाशा है। खास बात यह है कि यह परीक्षा परिणाम सुप्रीम कोर्ट के भविष्य में होने वाले फैसले के अधीन है। यानी पूरी भर्ती प्रक्रिया ही निरस्त होने का खतरा बरकरार है।
दरअसल, मप्र लोक सेवा आयोग के इतिहास में यह पहली बार है कि भर्ती परीक्षा होने के बाद परिणाम में इतना लंबा समय लगा है। इसकी प्रारंभिक वजह जो सामने आई है, वह यह है कि राज्य शासन ने 2019 में भर्ती के लिए जो नियम बनाए थे, वह नियम ही गलत थे। नए नियम में यह शामिल किया था कि प्रारंभिक परीक्षा की मैरिट अलग-अलग वर्ग की बनाई जाए। लोक सेवा आयोग ने जब इस नियम के अनुसार अजा, अजजा, ओबीसी और सामान्य वर्ग की मेरिट सूची बनाई तो विवाद खड़ा हो गया। इसके बाद जब मामला उच्च न्यायालय में पहुंचा तो न्यायालय ने भर्ती नियम को ही असंवैधानिक करार दिया। न्यायालय के इस फैसले के बाद पूरी भर्ती प्रक्रिया ही असंवैधानिक होना थी, लेकिन तब लोक सेवा आयोग ने कोर्ट के इस फैसले को दरकिनार करते हुए मुख्य परीक्षा भी आयोजित कर डाली। उस समय कोर्ट में हर वर्ग की अलग-अलग याचिकाएं लगाई गई। फिर पीएससी परीक्षा को लेकर राज्य शासन, लोक सेवा आयोग कोर्ट में उलझते गए। राज्य शासन, पीएससी और अपीलार्थियों की ओर से भर्ती को लेकर अलग-अलग तर्क रखे गए, परिणाम स्वरूप न्यायालय में मामला लंबा खिंचता गया। इस बीच राज्य शासन ने सितंबर 2022 में लोक सेवा आयोग को परीक्षा परिणाम जारी करने का सुझाव दिया।
पूरी परीक्षा पर ही संकट…
इस मामले में कानून के जानकारों का मानना है कि सरकार की तरफ से नियम ही गलत बनाए गए थे। भर्ती का विज्ञापन इससे पहले जारी किया गया था। जब परीक्षा के नियम ही न्यायालय ने अमान्य कर दिए हैं, तो फिर भर्ती प्रक्रिया कैसे मान्य होती। इसके बावजूद लोक सेवा आयोग ने मुख्य परीक्षा कराई। अब जो परिणाम घोषित हुआ है, वह उच्चतम न्यायालय के आदेश के अधीन है। ऐसे में पूरी परीक्षा के निरस्त होने की संभावना बनी हुई है। दरअसल राज्य शासन ने सितंबर 2022 में 87 प्रतिशत पदों के आधार पर परिणाम घोषित करने का समाधान निकाला था। 13 प्रतिशत पद होल्ड पर रखे गए है। इसका फैसला उच्चतम न्यायालय में होगा। खास बात यह है कि 87 प्रतिशत परिणाम का फैसला न्यायालय ने भी स्वीकृत किया है। यदि 100 प्रतिशत परिणाम के लिए न्यायालय के फैसले का इंतजार किया जाता है तो फिर शासन की प्रशासनिक व्यवस्था बैठ जाएगी। अधिकारी सेवानिवृत्त होते जाएंगे और नई भर्ती नहीं होगी तो फिर व्यवस्था कैसे चलेगी। अब चार सालों की परीक्षा के परिणाम भी इसी फार्मूले से घोषित होंगे।
नाथ का निर्णय पड़ा भारी
कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 14 प्रतिशत की जगह 27 प्रतिशत आरक्षण देना शुरू किया। इसके लिए नए भर्ती नियम बनाए गए। सामान्य प्रशासन विभाग ने लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के लिए भी भर्ती नियम बनाए थे। आयोग का इस मामले में कहना है कि सरकार ने ही नियम में यह प्रावधान किया था कि अलग-अलग वर्ग की मैरिट सूची बनाई जाए। यहीं से भर्ती परीक्षा का विवाद शुरू हुआ। आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी इस मामले में कोर्ट पहुंचे। कोर्ट ने पूरी नियम प्रक्रिया को ही खारिज करते हुए पुराने नियमों से भर्ती के आदेश दिए। इसके बाद सभी की एक मैरिट सूची तैयार की गई। इसके बाद ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने और नहीं देने को लेकर दोनों पक्ष कोर्ट चले गए हैं। सुनवाई के दौरान राज्य शासन और लोक सेवा आयोग ने कोरोना काल में इस मसले पर कोर्ट में पक्ष ही नहीं रखा।