बिखेर कर गईं गीतों की माया

  • स्मृति शेष
  • राकेश अचल
गीतों की माया

माया गोविंद नहीं रहीं, वे पिछले कुछ महीनों से लगातार अस्वस्थ्य थीं, उन्हें जाना ही था, उन्होंने अपना 82वां जन्मदिन हठपूर्वक पूरा किया और अंतत अपने गीतों की माया बिखेरकर माया गोविंद जी हमेशा के लिए चिर यात्रा पर निकल गयीं।
माया गोविंद उस दौर की गीतकाकर थीं, जब मंच पर गीत का ही युग था,हंसी-मजाक भी फूहड़ता की सीमाएं लांघने की हिम्मत नहीं करते थे । माया जी मंच से होते हुए भारतीय सिनेजगत में अपनी जगह बनाने में कामयाब हुईं। उन दिनों रेडियो का कोई भी गीतों का कार्यक्रम हो उसमें एक न एक गीत माया गोविंद का अवश्य होता था । उन्होंने शुरू से अंत तक गीतों की अपनी माया को कायम रखा। उनका नाम लेते ही एक ऐसी छवि मानस पर उभरती है जिसमें शालीनता और भारतीयता के दर्शन होते हैं।
कोई दो दशकों से माया गोविंद को मंच पर नहीं सुना ,लेकिन यदा-कदा वे किसी न किसी कार्यक्रम में मंचासीन दिखाई दे जातीं थीं। उनके गीतों में छंद का अनुशासन और देशज सुगंध इतनी भीनी होती थी कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता था। माया जी जिस समय मंचों पर आयीं उस समय मंच पर पुरुष गीतकारों का दबदबा था ,लेकिन अपनी शब्द साधना से माया जी ने इस दबदबे के रहते हुए भी अपनी जगह तलाश ली । माया जी शायद आठवें दशक के शुरू में मुंबई आयीं थीं। उन्होंने गीत भी लिखे और मौका मिला तो अभिनय भी कर दिखाया। वे आयीं ही मंच से थीं। नाटक उनका पहला प्रेम था, लेकिन उनकी पहचान अंतत:उनके गीत ही बने । गीतों ने उन्हें प्रतिष्ठा, मान और वैभव सब दिया, लेकिन उन्होंने इसके लिए बाजार के सामने समर्पण नहीं किया, हालांकि बहुत से गीत बाजार की मांग पर लिखे जरूर। जैसे अटरिया पर लोटन कबूतर
माया जी ने अनेक प्रतिष्ठित फिल्म निर्माताओं के लिए गीत लिखे लेकिन राजश्री प्रोडक्शन की पारिवारिक फिल्मों में उन्हें ज्यादा अवसर मिला । मनोज कुमार की फिल्म कलयुग और रामायण (1987) में उनके एक गीत ने धूम मचाई। ये गीत मुझे आज भी याद है । गीत के बोल थे –
क्या क्या न सितम हाय ढाती हैं चूड़ियां
जब भी किसी कलाई में आती हैं चूड़ियां
फिल्मों में सक्रिय रहते हुए भी माया जी साहित्य की सतत सेवा करती रहीं। उनकी लगभग एक दर्जन पुस्तकें गीतों कि दुनिया को समृद्ध करतीं है। उनके रचना संसार पर शोध भी हुए मया जी का जीवन संघर्षों की अथक कहानी है। उनकी पहली शादी नाकाम रही और उन्होंने दोबारा घर बसाया तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वादा भूल न जाना (जलते बदन), नैनों में दर्पण है (आरोप), यहां कौन है असली कौन है नकली, ये तो राम जाने (कैद), तेरी मेरी प्रेम कहानी किताबों में भी न मिलेगी (पिघलता आसमान), कजरे की बाती अंसुअन के तेल में (सावन को आने दो), चार दिन की जिंदगी है (एक बार कहो), ह्यलो हम आ गए हैं फिर तेरे दर पर (खंजर), मोरे घर आए सजनवा (ईमानदार), ठहरे हुए पानी में कंकर न मार सांवरे (दलाल), दरवज्जा खुल्ला छोड़ आयी नींद के मारे (नाजायज), को कौन भूल सकता है ?
प्रेम का ग्रन्थ पढ़ाओ सजनवा (तोहफा मोहब्बत का), आंखों में बसे हो तुम तुम्हें दिल में छुपा लूंगा (टक्कर), शुभ घड़ी आयी रे (रजिया सुल्तान), हम दोनों हैं अलग अलग हम दोनों हैं जुदा जुदा (मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी), चन्दा देखे चन्दा तो चन्दा शरमाए (झूठी), मेरी पायल बोले छम… छमछम (गजगामिनी), मुझे जिन्दगी की दुआ न दे (गलियों का बादशाह), डैडी कूल कूल कूल (चाहत) और देखो कान्हा नहीं मानत बतियां (पायल की झंकार) तो आज भी मेरी पीढ़ी के श्रोताओं को रोमांचित करते हैं ।
आज कविता मंच पर एक से बढ़कर एक कवियत्रियां हैं ,लेकिन उनमें से माया गोविंद कोई नहीं है। हो भी नहीं सकती क्योंकि गीत आह से उपजा गान है और आह माया गोविंद का अतीत रहा है।
विनम्र श्रृद्धांजलि
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार  हैं)

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