- सपा व बसपा जैसे दल नहीं बना सके खुद की ताकत
- विनोद उपाध्याय
मध्यप्रदेश ऐसा राज्य है, जहां पर हमेशा से ही भाजपा व कांग्रेस के बीच सियासी लड़ाई होती आयी है, फिर विधानसभा चुनाव हो या फिर लोकसभा का चुनाव। इतना जरूर है कि कुछ सीटों पर अन्य दल अपनी -अपनी ताकत दिखाते रहे हैं। इस बीच एक दो मौके जरुर ऐसे आए हैं, जब लगा कि प्रदेश में तीसरी सियासती ताकत तेजी से उभर रही है। तीसरी सियासी ताकत बनने की अच्छी संभावनाओं के बाद भी दूसरे दलों ने रुचि नही ली, जिसकी वजह से उनका वजूद ही अब खतरे में पड़ता दिख रहा है। दरअसल प्रदेश में तीसरे दल उधारी के नेताओं के भरोसे ही अब तक बने हुए हैं। यही वजह है कि भले ही वे बागी नेताओं की एक अच्छी शरण स्थली बन चुके हैं, लेकिन फिर भी वे अपनी सियासी ताकत मजबूत करने में सफल नही हुए हैं। यही वजह है कि प्रदेश के दो अचंल विंध्य और चंबल की कुछ सीटों पर बसपा का बेहद प्रभावशाली असर रहा है, लेकिन अब बीते कुछ चुनावों से उसके प्रभाव में तेजी से गिरावट आ रही है। यही वजह है कि इस बार बसपा का विधानसभा चुनाव में प्रदेश में खाता भी नहीं खुल सका है। लोकसभा में भी उसका प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। इतना जरुर है कि उसके प्रदर्शन भाजपा को जरुर आधा दर्जन सीटों पर फायदा हो गया है। एक समय ऐसा आया था जब प्रदेश में बसपा को लोकसभा चुनाव में में भी खाता खुला और विधानसभा में भी उसके आधा दर्जन से अधिक विधायक पहुंचे थे, लेकिन जिस तरह से बसपा की परंपरा रही है अपने नेताओं को पार्टी से बाहर करने की , उससे मप्र भी अछूता नही रहा। इसकी वजह से बसपा अब प्रदेश में अपना वजूद ही खोती जा रही है। तीसरी ताकत का दूसरा बड़ा दल सपा है, लेकिन यह दल भी अब प्रदेश में पूरी तरह से अप्रभावी हो गया है। एक समय प्रदेश की विधानसभा में सपा के विधायकों की संख्या सात तक पहुंच गई थी , लेकिन इसके बाद वह इस आंकड़े को कभी नहीं छू सकी है। हालत यह है कि अब तो प्रदेश में हाल ही में हुए चुनाव में उसके प्रत्याशियों को नोटा से भी कम वोट मिले हैं। नगरीय निकाय में प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर अपनी प्रभावी उपस्थिति दिखाने वाली आम आदमी पार्टी भी अब बेदम नजर आने लगी है। यह तीनों वे दल हैं तो दूसरे दलारें के बागियों के लिए एक मुफीद शरणस्थली बन चुके हैं।
आप पार्टी का भी आधार खिसका
आम आदमी पार्टी ने दो साल पहले नगरीय निकाय चुनाव में प्रदेश में अपनी प्रभावी उपस्थिति दिखाई थी। सिंगरौली नगर निगम में उसने जीत दर्ज की थी तो ग्वालियर नगर निगम में भी उसके प्रत्याशी को प्रभावी मत मिले थे। कई स्थानों पर उसके पार्षद भी जीते थे। यह संख्या पांच दर्जन से भी ज्यादा थी पर विधानसभा चुनाव में वह अपना प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी। लोकसभा सभा चुनाव में भी उसका प्रदर्शन निष्प्रभावी रहा।
चुनाव लडऩे आते हैं नेता
दरअसल प्रदेश में बसपा और सपा, आप बागियो की शरणस्थली बन गए है। भाजपा और कांग्रेस से दावेदारी कर रहे नेताओं को जब उनकी पार्टी टिकट नहीं देती तब वे समाजवादी पार्टी या फिर बहुजन समाज पार्टी से चुनाव लड़ जाते हैं, इनमें से कुछ नेता जीत भी जाते है पर इस जीत में पार्टी से ज्यादा उनका खुद का वोट बैंक होता है। जिलों में संगठन मजबूत न होने से पार्टी के पास अपने दमदार प्रत्याशियों का अभाव रहता है।
सपा का यहां पर प्रभाव
बुंदेलखंड, खासतौर पर उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे टीकमगढ़ और निवाड़ी जिलों में पार्टी का वोट बैंक है। सपा ने सबसे अच्छा प्रदर्शन 2003 के चुनाव में किया था, जब उसके सात विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे। 1998 विधानसभा चुनाव में भी सपा को चार सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद 2003 में हुए चुनाव में सपा को 7 सीटों पर जीत मिली थी। उसे छतरपुर, चांदला, मैहर, गोपदबनास, सिंगरौली, पिपरिया और मुलताई में सफलता मिली थी। तब उसे 5.26 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन 2008 विधानसभा चुनाव मं उसके विधायकों की संख्या कम होकर कएक रह गई थी, तब निवाड़ी विस सीट पर मीरा यादव ने जीतकर पार्टी की लाज रख ली थी। पार्टी को इस चुनाव में महज 2.46 फीसदी वोट मिले थे। 2013 विस चुनाव में सपा का 2023 की ही तरह खाता भी नहीं खुल पाया था। यह बात अलग है कि 2018 के चुनाव में जरूर एक बार फिर सपा का खाता तो खुला , लेकिन बाद में वह विधायक भी भाजपा में शामिल हो गया।
लोकसभा चुनाव
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की सभी 29 सीटें जीतकर राजनीतिक पंडितों को चौका दिया है। उनका मानना है कि इस एकतरफा जीत के पीछे प्रदेश में तीसरी ताकत का ताकतवर न होना भी एक वजह है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस पिछले कुछ समय से लगातार कमजोर हो रही है। उसके नेताओं ने जिस तरह से पार्टी छोड़ी उसका सीधा असर लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। पार्टी शून्य पर तो सिमटी ही उसका वोट बैंक भी विधानसभा चुनाव के मुकाबले आठ फीसदी तक घट गया। एक समय था जब प्रदेश में बसपा का कई क्षेत्रों में अपना जनाधार था। रीवा और सतना से उसने लोकसभा चुनाव भी जीते थे पर धीरे धीरे इस पार्टी का जनाधार भी सिकुड़ने लगा। 2018 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी के दो विधायक थे। इस बार वह शुन्य पर पहुंच गई है। लोकसभा में इस बार उसके मत प्रतिशत में इजाफा जरूर हुआ है पर कुछ सीटों को छोडक़र वह कहीं उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर पाई। 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 2.38 प्रतिशत मत मिले थे तो इस बार उसे 3 प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं, जबकि दस साल पहले तक इस पार्टी का मतप्रतिशत पांच के आसपास रहा करता था। बसपा को सबसे अधिक मत 1998 के लोकसभा चुनाव में मिले थे तब उसने आठ फीसदी से अधिक मत मिले थे। समाजवादी पार्टी ढाई दशक पहले प्रदेश में उभार पर आई थी पर साल दर साल उसका प्रदर्शन भी घटता रहा। पिछले विधानसभा चुनाव में उसका एक विधायक था। लोकसभा चुनाव में उसका कांग्रेस से गठबंधन था, कांग्रेस ने उसके लिए खजुराहो सीट छोड़ी थी पर यहां उसके प्रत्याशी मीरा यादव का नामांकन निरस्त हो गया था।