महाराष्ट्र से शुरुआत हुआ वंशवाद का पतन !!

  • सतीश जोशी
वंशवाद

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार वंशवाद की राजनीति को आड़े हाथों लेते रहे हैं।  उन्होंने यदि इस तरह के वंशवाद पर प्रहार किया तो वह सिर्फ दिखावे या भाषण तक सीमित नहीं रहा है।
वंशवाद पर आधारित, यूं कहें कि बाल ठाकरे के जमाने से परिवारवाद से पोषित, पल्लवित पार्टी शिवसेना सत्ता से दूर रही पर पार्टी परिवार की शक्ति से केन्द्रित रही। पिछला चुनाव भाजपा-शिव सेना ने मिलकर लड़ा, चुनाव जीता भी, पर सत्ता के मोह में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस से हाथ मिला लिया। ढाई साल की सत्ता राजनीति से पिछले डेढ़ पखवाड़े के ड्रामे के बाद उद्धव ठाकरे को जिस तरह बिदा होना पड़ा, दिलचस्प है। उद्धव ठाकरे के नीचे से एकनाथ शिन्दे ने कुर्सी छीन ली और मुख्यमंत्री बन गये, इसके बाद पार्टी की जंग और भी तेजी से आगे लड़ी जाएगी, यह तय है और वह कर्कश होगी। यह किसी हाल में रुकने वाली नहीं है। नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा की सेना ने देवेंद्र फडणवीस के सेनापतित्व में एकनाथ शिन्दे का राजतिलक कर  वंशवाद की राजनीति के पतन की शुरुआत कर दी है। इस वंशवाद की जनक कांग्रेस के वंशवाद पर चर्चा हो जाए। कांग्रेस ने भारतीय राजनीति को वंशवाद की राजनीति का सूत्र सिखाया। बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी सरीखे दिग्गजों ने कांग्रेस को एक आंदोलन के रूप में चलाया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद वह नेहरू-गांधी परिवार की निजी संपत्ति मात्र बनकर रह गई। उसने समय के साथ खुद को देश के प्रथम-परिवार के रूप में स्थापित कर लिया।
नेहरू-गांधी परिवार को स्थापित करने की होड़ में कांग्रेस ने सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ. बीआर आंबेडकर और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को भी भुला दिया। पार्टी की कमान हमेशा नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के बीच ही घूमती रहे। जब कभी पार्टी के किसी भी क्षेत्रीय नेता का कद यदि प्रथम-परिवार के सदस्यों से ऊंचा होने लगा तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह भ्रम पैदा कर दिया गया कि प्रथम-परिवार के सदस्य ही कांग्रेस को एक साथ बांध कर रख सकते हैं। दुर्भाग्य से क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भी कांग्रेस की इस नीति का अनुसरण किया। जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार राज्य के प्रथम-परिवार बन गए। उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम और लालू यादव अपनी पार्टी परिवार के प्रथम-परिवार बन गए। इसी तरह कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार, महाराष्ट्र में ठाकरे एवं पवार परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, तेलंगाना में केसीआर परिवार, आंध्र में नायडू एवं वाइएसआर परिवार ने अपनी-अपनी पार्टियों को पारिवारिक कंपनियों में बदल दिया। शिवसेना भी इसी तरह की पारिवारिक कंपनी है। उद्धव ठाकरे का पतन इसी राजनीति के पतन की शुरूआत कहना गलत नहीं होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Related Articles