- अवधेश बजाज कहिन
दिसंबर का महीना है। ओंकारेश्वर के मंदिरों में सपत्नीक लंबी पूजा-अर्चना के बाद मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव बाहर नर्मदा के तट से लगी पूजा सामग्री की दुकानों की तरफ आ रहे हैं। फूल की दुकान पर बैठी एक किशोरी के पास वह रुकते हैं। यादव उससे जो-जो पूछते हैं, उस सभी में एक बात ‘कॉमन’ है। वह है, किशोरी की पढ़ाई और स्कूल का जिक्र। माहौल बेहद पारिवारिक और हास-परिहास का पुट लिए हुए है। उसी के बीच यादव आखिरी सवाल दाग चुके हैं कि किशोरी स्कूल क्यों नहीं गई? जवाब किशोरी की मां देती हैं। कहती हैं, ‘‘ये जानती थी कि आज आप आ रहे हैं, इसलिए स्कूल नहीं गई। पास के पहाड़ों से टकरा कर आ रही ठंडी हवाओं के बीच माहौल पारस्परिक विश्वास की ऊष्मा से भर जाता है। महिला की सफाई पर यादव कुछ हंस कर कहते हैं, दीदी ने बेटी को बचा लिया।’ फिर तुरंत ही किशोरी की पढ़ाई और स्कूल का जिक्र किसी फिक्र वाले भाव में बदल जाता है। यादव गंभीर भाव के साथ किशोरी के सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद देते हुए इस बात की ताकीद करते हैं कि वो स्कूल जरूर जाए।
इस जिक्र और फिक्र वाले भाव के साथ एक साल के मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. मोहन यादव ने अपने भीतर के आम आदमी को इस बेहद खास पद के आभामंडल से आज भी बचाए रखा है। कभी श्योपुर में खोमचे वाली महिला से बहन-भाई के संवाद के बीच चाय बना कर सभी को पिलाते हुए तो कभी किसी जगह खालिस मध्यमवर्गीय व्यक्ति की भांति अमरुद खरीदते हुए डॉ. मोहन यादव अब खुद और जनसामान्य के बीच विश्वास और संवाद का ठोस संबंध तैयार कर चुके हैं।
डॉ. यादव का एक और पक्ष उन्हें बहुत खास बनाता है। अधिकांश अवसर पर किसी से भी बातचीत के पहले वह पूरी शीघ्रता के साथ मुख्यमंत्री पद के आवरण को अलग रख देते हैं। इससे यह संवाद औपचारिक की जगह पूरी तरह आत्मीय हो जाता है। अधिक दिन नहीं हुए, जब इस साल का सितंबर महीना सितमगर बन गया था। भारी बारिश ने हाहाकार मचा दिया। तब टीकमगढ़ में कई लोग बाढ़ में फंस गए थे। जिसने भी इन लोगों से डॉ. मोहन यादव की बातचीत का वीडियो देखा है, वह मानेगा कि उस समय बाढ़ पीडि़तों से मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि उनके परिवार का मुखिया बात कर रहा था। उन्हें दिलासा दे रहा था। मेरी सिनेमा में बहुत कम रुचि है, फिर भी कुछ दृश्य याद रह जाते हैं। एक फिल्म में वायुसेना के प्रशिक्षु के विमान में तकनीकी खामी आ जाती है। उसका बच पाना नामुमकिन दिख रहा है। तब सेना के कंट्रोल टावर से एक अधिकारी उस प्रशिक्षु से संपर्क कर सबसे पहले अपना नाम बताता है। फिर वह उसे बचने की तरकीब सिखाता है। प्रशिक्षु बचने के बाद अपने साथियों से कहता है कि जैसे ही अफसर ने अपना नाम बताया, उसे पूरा यकीन हो गया कि अब मौत भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। वास्तविक जीवन में मैंने ऐसे दृश्य और संवाद को कई जगह तलाशा। और मेरी वह तलाश टीकमगढ़ वाले इस वीडियो को देखने के बाद ही पूरी हो सकी है। विश्वास के ऐसे असंख्य सेतु निर्मित कर डॉ. मोहन यादव एक साधारण इंसान की तरह व्यवहार करते हुए असाधारण किस्म के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर चुके हैं। एक और सेतु भी है। सरकारी बैठक या बेहद औपचारिक किसी आयोजन से परे डॉ. मोहन यादव को कहीं और गौर से देखिए। ऐसे अवसर पर डॉ. यादव कोई समय न गंवाते हुए मुख्यमंत्री से लेकर मालवा के ठेठ रहवासी के बीच वाले सेतु के उस छोर से इस छोर तक चले आते हैं। और फिर ये सेतु जिस ज्ञान की नदी का रूप लेता है, वह ज्यादातर मौकों पर देखने और सुनने लायक होता है। वो धर्म की व्याख्या। अद्भुत वैज्ञानिक तथ्यों के साथ अध्यात्म और सनातन का उल्लेख। फिर जब इस सब में महारत है तो फिर यह अलग से बताने की जरूरत नहीं रह जाती है कि देश के इतिहास से लेकर अनेक उल्लेखनीय घटनाक्रमों पर डॉ. यादव साधिकार बोलने के मामले में भी अलग पहचान कायम कर चुके हैं। डॉ. यादव के कहे के लिए सबसे बड़े विश्वास को उनके ‘‘एक्सप्रेशन’’ और मजबूत करते हैं। मिसाल के तौर पर साल 2024 में भोपाल गैस कांड की 40वीं बरसी को ही लीजिए। डॉ. यादव जब इस बारे में एक निजी टीवी चैनल से बात करते हैं तो त्रासदी के तुरंत बाद दिखे भोपाल के हालात से जुड़े निजी अनुभवों का दर्द उनके चेहरे पर साफ़ तैरता है। यह खालिस ‘‘मुख्यमंत्री का संदेश गैस पीडि़तों के नाम’’ वाला सियासी कर्मकांड हो सकता था, बशर्ते डॉ. यादव त्रासदी की सिहरन के सच्चे भावों के साथ यह संकल्प लेते नजर नहीं आते कि उनकी सरकार ऐसे किसी भी हादसे की पुनरावृत्ति होने नहीं देगी। उस वीडियो में आप यादव के कहे में जिस विश्वास को आकार लेते हुए देखते हैं, वह ऐसे और मामलों में विरले ही दिखाई देता है। हां, मोहन यादव इतना सब होने के बाद भी इस लिहाज से खालिस आम इंसान हैं कि उन्हें गुस्सा दिलाना बच्चों का खेल है। कुछ खास नहीं करना है। बस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और इनके कीर्ति स्तंभों के विरुद्ध कुछ कह दीजिए। फिर देखिए कि यादव कैसे आगबबूला होकर सटीक अंदाज में पलटवार करते हैं। उनके इस हमले की धार इतनी तीखी होती है कि शत्रु पक्ष का दक्ष से दक्ष योद्धा भी ढेर हो जाता है। मगर इसके बावजूद एक काम बच्चों का तो छोडि़ए, सयानों का भी खेल नहीं है। वह है मोहन यादव के क्रोध को अनियंत्रित या अमर्यादित स्वरूप प्रदान करने का। वो पूरी शालीनता के साथ हमला करते हैं, जो राजधर्म सहित युद्धधर्म की मान्यताओं के भी पूरी तरह अनुकूल ही रहता है।
दिखाई तो और भी बहुत कुछ देता है। उसके लिए विचार प्रक्रिया को एक खास कोण पर लाना होता है। उज्जैन में शिप्रा के तट पर खड़े होकर महसूस करना होता है कि विक्रमादित्य की पवित्र नगरी की इन्हीं पगडंडियों से निकलकर मुख्यमंत्री निवास तक पहुंचे डॉ. मोहन यादव में क्या बदलाव आया है? सवाल हवा में उछालिए और पल भर में उज्जयिनी की समूची फिजा एक सुर में कहती है, ‘कौन डॉ. मोहन यादव? आप तो हमारे मोहन भैया की बात कर रहे हो ना?’ एक साल में डॉ. यादव जिस सहज और सरल अंदाज में आगे बढ़े हैं, उसके चलते आने वाले समय में पूरे प्रदेश की फिजा उनके लिए ‘‘मोहन भैया’’ ही कहने लगे तो क्या इस पर कोई ताज्जुब होना चाहिए?