- प्रवीण कक्कड़
आओ होलिका दहन में हम बुरी प्रवृत्तियों को जलाकर भस्म कर दें और अपने निर्मल मन में खुशियों के रंग भर लें। अंतर्मन में खुशियों के रंग बिखेरिये । जैसे ही आप ऐसा करेंगे तो बाहरी दुनिया भी रंगीन हो जाएगी। यही होली की सच्ची भावना है। उत्सव धर्मिता का यह सर्वथा नया आयाम है। प्रेम का यह सबसे परिष्कृत रूप है। द्वैत से अद्वैत की ओर जाने की यात्रा का यह पहला चरण भी है। अपने अंतर्मन को रंगने का यह सबसे उत्तम अवसर भी है। थोड़ा अभ्यास कीजिए।? थोड़ा प्रयास कीजिए। सुनियोजित नहीं तो अनायास कीजिए। आप अंतर्मन को प्रेम के रंगों से सराबोर कर देंगे। तब होली के रंग जितने अंतर में बिखरेंगे उतने ही बाहर भी बिखर जाएंगे। रंगों के पर्व पर आप अंदर और बाहर रंगों से भर उठें यही शुभकामना है।
होली दहन कैसे शुरू हुआ यह कहानी पौराणिक है और जन जन को ज्ञात है कि हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। उसने अपने पिता के बार-बार समझाने के बाद भी भगवान विष्णु की भक्ति नहीं छोड़ी। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए किंतु वह सफल नहीं हुआ। अंत में, उसने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठे, क्योंकि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था इसलिए होलिका प्रहलाद को लेकर चिता मे जा बैठी परंतु भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद सुरक्षित रहे और होलिका जल कर भस्म हो गई। तब से होलिका-दहन का प्रचलन हुआ। जीवन भी ऐसा ही है। जीवन में हमेशा छल और कपट की होलिका का दहन होकर ही रहता है। जब छल इतना बढ़ जाए कि एक पिता अपने पुत्र को और एक बुआ अपने भतीजे को अग्नि में भस्म करने के लिए प्रवृत्त हो उठे तो होलिका दहन घटित हो ही जाता है। इसलिए होलिका दहन हमें बताता है कि अंत में झूठ, कपट और दुष्ट चरित्र की होलिका का दहन होना अवश्यंभावी है। होली को गिले-शिकवे भुलाने का त्यौहार भी कहा जाता है, इस दिन एक-दूसरे को रंग लगाकर जैसे हम पुराने मनमुटाव भूल जाने की परम्परा है, वैसे ही हमें अपने मन के साथ भी करना चाहिए, इसमें अगर घृणा, द्वेष, ईष्र्या जैसे भाव हों तो उन्हें होलिका में दहन कर दीजिए और अपने मन को निर्मल कर लीजिए। जब अंतर्मन सफेद वस्त्र की भांति साफ हो जाता है तो इस कैनवास पर हर रंग चढ़ता भी है और खिलता भी है। एक बात याद रखिए जिसने अपने मन में प्रेम, सौहाद्र, करुणा और दया के रंग भर लिए उसकी दुनिया कभी बदरंग नहीं हो सकती। हम सब अपने जीवन में कभी न कभी यह अनुभव करते हैं कि जो व्यक्ति निश्चल है, कपट रहित है, सच्चरित्र है, दोष रहित है, न्याय प्रिय है, वह जीवन का आनंद हमसे कहीं अधिक ले रहा है। निश्चलता, मासूमियत, सत्यनिष्ठा, सच्चरित्रता, न्याय प्रियता जैसे गुण रूपी रंगों से जो सराबोर है असली होली तो उसी की है। वह अपने रंग में सबको रंगता है और दूसरों के रंग में भी रंग जाता है। उसे दूसरे की प्रगति से ईष्र्या नहीं है इसलिए दूसरे की प्रगति और संपन्नता उसे संतोष देती है। वह दूसरे के सुख में अपने सुख का अनुभव करता है। वह दूसरे के उन्नयन में अपनी प्रगति देखता है। और इन सब का आनंद भोगता है।
भारत के प्रसिद्ध होली उत्सव
भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के निमाड़-मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। होली के कुछ दिन पहले से ही आदिवासियों का पर्व भगोरिया भी शुरू हो जाता है, जिसमें मेलों की धूम और ढोल-मांदल की थाप नजर आती है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है।
(लेखक पूर्व पुलिस अधिकारी हैं)