- पार्टी प्रत्याशियों तक को छोड़ा पीछे
- विनोद उपाध्याय
जिन नेताओं को पार्टियों ने पिछले विधानसभा चुनाव में जीत के काबिल नहीं समझा था, इस बार उनको टिकट देकर मैदान में उतारा है। पार्टियों के इस गणित से हर कोई हैरान है। दरअसल, 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस ने कई नेताओं को टिकट नहीं दिया। उनमें से कुछ ने दमदारी दिखाते हुए बगावत की और निर्दलीय या अन्य छोटी पार्टियों के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर गए। इनमें से कईयों ने पार्टी के प्रत्याशी से अधिक वोट लाकर अपनी दमदारी दिखाई। इसलिए इस बार के चुनाव में दमदार बागियों को टिकट देकर पार्टियों ने मैदान में उतारा है। गौरतलब है कि हर पार्टी का टिकट का एक ही फॉर्मूला होता है जीत की संभावना। कहते हैं कि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। न कोई स्थाई दुश्मन और न ही कोई स्थाई दोस्त। मौका परास्ती, दगा, अब सियासत का मानो चरित्र बन गई है। राजनीतिक दल भी नेताओं को अपने मतलब के हिसाब से इस्तेमाल करते हैं। मूल्य आधारित राजनीति, शुचिता, सिद्धांत और आदर्शवाद अब केवल भाषणों में सिमट कर रह गए है। राजनीतिक दलों के इस चरित्र को नेता भी समझ रहे हैं। यही वजह है कि चुनाव दर चुनाव बगावत बढ़ रही है और बागी चुनाव मैदान में दम से उतर रहे हैं। बागी चुनाव में जीत भले ही न पाएं पर उन्हें मिलने वालों मतों से स्थापित राजनीतिक दलों में उनके सियासी कद में न सिर्फ इजाफा होता है बल्कि, पार्टियां अपना प्रत्याशी बनाकर गले लगा लेती हैं। पिछले चुनावों को देखें तो पिछली बार भाजपा और कांग्रेस से बागी होकर चुनाव लड़े नेता अब इन दलों के झंडे से चुनाव लड़ रहे हैं। बागियों ने इस बार भाजपा-कांग्रेस का गणित बिगाड़ रखा है। दो दर्जन से अधिक सीटों पर बागी चुनाव मैदान में हैं। इनमें से कई बागी जानते हैं कि वे चुनाव नहीं जीत पाएंगे पर वे निर्णायक मत हासिल कर अपने मूल राजनीतिक दल को अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। तय है कि जिस दल से प्रत्याशी बागी होता है, चुनाव में नुकसान उसके प्रत्याशी को ही ज्यादा होता है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के आला नेताओं की समझाईश के बाद भी कई बागी नहीं माने और मैदान में डटे हुए हैं। राजनीतिक दलों के जीत हर कीमत के फार्मूले को नेता भी अच्छी तरह से समझ चुके है। यही वजह है कि पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा भी लगातार कम हो रही है। टिकट न मिलने पर वे एक मिनट में पार्टी को अलविदा कह दूसरे दल का साथ थाम लेते है। राजनीतिक दल भी जीत की संभावना देख उन्हें टिकट तत्काल दे देते हैं। सेंवढ़ा से राधेलाल बघेल बसपा से विधायक बने, जीत की संभावना देख भाजपा ने अपने सिटिंग एमएलए प्रदीप अग्रवाल का टिकट काटकर टिकट दिया पर वे हार गए। इस बार फिर प्रदीप पर पार्टी ने भरोसा जताया। इसी तरह कांग्रेस से चुनाव लड़ने वाले ऐदल सिंह कंसाना अब भाजपा से भाजपा के अजब सिंह अब कांग्रेस से चुनाव लड़ रहे है। ग्वालियर- चंबल में तो ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जो समय के साथ पार्टियां बदलते रहते हैं। पृथ्वीपुर से भाजपा से चुनाव लड़ रहे शिशुपाल सिंह पिछला चुनाव सपा से लड़े थे। दूसरे नंबर पर रहने के कारण उपचुनाव में भाजपा ने उन्हें अपने पाले में ले लिया, वे उपचुनाव जीते और इस बार फिर भाजपा से मैदान में हैं।
पिछली बार बागी, इस बार वफादार
दरअसल सियासत में पिछली नजीरे ही ऐसी हैं, कि बगावत कर दम दिखाने वाले नेता को राजनीतिक दल अगली बार गले लगाकर टिकट दे देते हैं। इस बार भी चुनाव में कुछ ऐसे ही नजारे देखने को मिले। पिछली बार दम दिखाने वाले कई बागी को हाथ का साथ मिला तो कई कमल के साथ मुस्करा रहे हैं। यानी पिछली बार के बागी इस बार वफादार बन गए हैं। इनमें महेश्वर से भाजपा प्रत्याशी राजकुमार मैव शामिल है। पिछले चुनाव में भाजपा ने भूपेन्द्र आर्य को प्रत्याशी बनाया था। टिकट न मिलने से नाराज राजकुमार मैव ने निर्दलीय रूप से मैदान में उतरने का तय किया। वे 47 हजार से अधिक वोट लेकर दूसरे नंबर पर रहे। जिससे कांग्रेस की विजय लक्ष्मी साधौ चुनाव जीत गईं। भाजपा तीसरे नंबर पर रही। इस बार मेव भाजपा से प्रत्याशी है। भिंड में नरेन्द्र सिंह कुशवाह भाजपा से पूर्व विधायक रहे। भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार हो गए। 30 हजार से अधिक वोट लेकर अपनी ताकत दिखाई। इस बार भाजपा ने फिर टिकट से नवाजा। जावद में समंदर पटेल, पिछली बार भी टिकट के दावेदार थे। टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय रूप से मैदान में उतर गए, 33 हजार से अधिक मत लेकर अपने जनाधार को बताया। इस बार भाजपा से टिकट मिलने की उम्मीद नहीं लगी तो कांग्रेस ज्वाइन की। कांग्रेस ने टिकट देकर चुनाव मैदान में भी उतारा। भिंड में अमरीश शर्मा, पिछली बार भी भाजपा से टिकट के दावेदार थे पर पार्टी ने उन पर भरोसा न करते हुए रसाल सिंह पर भरोसा किया। अमरीश समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे और 31 हजार से अधिक मत लेकर अपनी ताकत का मुजाहिरा किया। इस बार भाजपा ने रसाल का टिकट काटा, अमरीश को दिया। सुसनेर में विक्रम सिंह राणा, पिछली बार भी टिकट के दावेदार थे, पर टिकट नहीं मिला। निर्दलीय रूप से मैदान में उतरे और कांग्रेस के महेन्द्र बापू को 27 हजार से अधिक मतों से हराया। इस बार भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में। भगवानपुरा में केदार डाबर, पिछली बार कांग्रेस से टिकट के दावेदार थे पर टिकट नहीं मिला। निर्दलीय चुनाव मैदान में उत्तरे और कांग्रेस के जमना सोलंकी को हराकर जीत दर्ज की। इस बार कांग्रेस से प्रत्याशी हैं। बिजावर में राजेश शुक्ला, 2018 में कांग्रेस से टिकट के दावेदार थे, पर पार्टी ने टिकट काट दिया। समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और बड़े अंतर से जीत दर्ज की। फिर भाजपा से जुड़ गए। इस बार भाजपा से प्रत्याशी।