कवितायन

  • श्रुति कुशवाह
कवितायन
  • जब भी मिलूं खुद से आंखें नीची न हो

संसार की नदी में डूबते उतराते
समझ की इतनी काई लगी
अक्सर ही हाथ से फिसल जाती है सरलता

फिर भी मेरी कोशिश है
दोस्तों से जब मिलूँ
सारी दुनियादारी झटक दूँ
दिमाग में गणित की जगह हो संगीत
समझदारियाँ थोड़ी छुट्टी पाएँ
धूप नर्म हो छाँव शीतल

जिन्होंने कभी भी नेह दिया
उनके प्रति कृतज्ञ रहूँ
प्रेम का प्रतिदान संभव नहीं
लेकिन विनम्र तो हुआ ही जा सकता है
चतुराई कम हो सहिष्णुता ज्यादा
जेब में सबसे पहले जाए हाथ

वो जिन्होंने दुख दिये
उनके लिये थोड़ा और उदार रहूँ
थोड़ा अधिक सतर्क
मन की खरोंच भाषा में न झलके
कोई शब्द कांटे सा न चुभे
वाणी मधुर न हो तो चुप साध ले

जो भी मिले सहयात्री
अनुग्रह से भरा रहे हृदय
हर साथ ने समृद्ध ही किया
कोई मीठी स्मृति छोड़ गया
कोई पीड़ा की ज्वाला
उससे मैंने सर्द दिनों में हाथ तापे
हर साथ के लिये आभारी रहे मन

जब भी मिलूँ खुद से
आँखें नीची न हो
दिल पर पहाड़ नहीं जंगल खिले
गलतियाँ किससे नहीं होती
माफी माँगने का सामर्थ्य बचा रहे
माफ कर देने का हुनर भी
रो लेने की काबिलियत खत्म न हो

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