नोटा ने डराया प्रत्याशियों को

नोटा

– एक-एक वोट का आंकलन करने में जुटे नेता

विनोद उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में मतदाताओं के मौन और कम मतदान ने भाजपा-कांग्रेस के प्रत्याशियों की चिंता बढ़ा दी है। गौरतलब है कि प्रदेश की 29 सीटों पर 66.87 प्रतिशत मतदान हुआ है। पिछली बार प्रदेश में 71.16 प्रतिशत मतदान हुआ था। इसके अनुसार इस बार 4.29 प्रतिशत मतदान कम हुआ है। वहीं मतदाताओं ने दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों को अधिक महत्व नहीं दिया है। ऐसे में जिन सीटों पर कड़ा मुकाबला हुआ है, वहां के प्रत्याशियों का डर सता रहा है कि अगर मतदाताओं ने नोटा पर अधिक वोट दिया होगा तो उनकी जीत का गणित बिगड़ सकता है। प्रदेश की 29 सीटों में चौथे चरण में सिर्फ इंदौर सीट ऐसी रही, जहां पर नोटा को लेकर अभियान चलाया गया था। इसके चलते सियासी हवा भी बदल गई। हालांकि इसके अलावा कहीं दूसरी जगह यह अभियान खुले तौर पर सामने नहीं आया। बावजूद इसके जनता के बीच नोटा चर्चाओं में जरूर रहा है। गौरतलब है कि चुनाव दर चुनाव नोटा पर वोट देने का चलन बढ़ता जा रहा है। 2019 के लोकसभा चुनावों में देश में 1.06 प्रतिशत मतदाताओं ने किसी भी पार्टी को नहीं चुनते हुए नोटा का बटन दबाया था। हालांकि यह 2014 के लोकसभा चुनावों के 1.08 प्रतिशत से कम था। कई राज्यों में यह प्रतिशत 2 प्रतिशत से ज्यादा तो ज्यादातर राज्यों में लगभग 1 प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था। 2013 में शुरू हुआ नोटा दशक भर में सुसुप्त अवस्था में चला गया है। नोटा को लेकर निर्वाचन आयोग सहित राजनीतिक दल और जनता भी उत्सुकता इसलिये भी नहीं दिखा रहे हैं, क्योंकि चुनावी प्रक्रिया में यह महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में विफल रहा है। इसे असंतोष जाहिर करने का माध्यम बताकर प्रचारित करना भी एक बड़ा कारण है। बता दें कि जब देश में नोटा का विकल्प नहीं था तब कई जगह मतदाता, प्रत्याशी पसंद न आने पर मतदान नहीं करते थे। ऐसे में मतदान प्रतिशत गिर जाता था। इसे देखते हुए ही चुनाव आयोग ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने का फैसला किया।
नोटा नहीं गिना जाएगा
इंदौर में भाजपा ने जहां अपने प्रत्याशी के लिए दम लगाया तो कांग्रेस ने भी नोटा को लेकर प्रचार किया और बताया कि भाजपा के प्रत्याशी को हराने के लिए नोटा का बटन दबाया जाए, लेकिन नियमों के मुताबिक नोटा में कितने भी वोट पड़े, उसकी गणना का असर जीते हुए प्रत्याशी के अंतर पर नहीं पड़ेगा। उसकी जीत का आंकड़ा नजदीकी उम्मीदवार को मिले वोट के आधार पर ही निकाला जाएगा। कांगे्रस हर विधानसभा से नोटा के अधिक से अधिक वोट आने का दावा कर रही है। कांग्रेस की कोशिश अंतिम समय तक यही रही कि वह भाजपा प्रत्याशी की लीड कम कर सके।  चुनाव परिणाम आने के पहले ही लोगों ने जीते हुए प्रत्याशी के रूप में शंकर लालवानी को मान लिया और अब केवल जीत के अंतर का इंतजार है। जीत के अंतर में नोटा के वोट जरूर कट सकते हैं, क्योंकि ये किसी के खाते में नहीं जाते और न ही इन वोटों से किसी प्रत्याशी को मिले मत की तुलना की जाती है। लालवानी को अगर सबसे ज्यादा वोट मिलते भी हैं तो इसकी तुलना उनसे दूसरे नंबर पर रहे निर्दलीय या किसी अन्य पार्टी के  प्रत्याशी को मिले मत के आधार पर की जाएगी। इंदौर में लालवानी सहित 14 उम्मीदवार अपना भाग्य आजमा रहे हैं। इनमें 5 राजनीतिक दलों के उम्मीदवार हैं और बाकी 9 उम्मीदवार निर्दलीय खड़े हुए हैं। भाजपा के चुनाव मामलों के विशेषज्ञ मनोहर मेहता के अनुसार काउंटिंग तो 14 प्रत्याशी और एक नोटा को मिलाकर ही होगी, लेकिन जब जीत और हार का गणित निकाला जाएगा, तब नोटा के वोट अलग कर दिए जाएंगे। मान लीजिए कुल 100 प्रतिशत मतदान हुआ है और उसमें से 20 प्रतिशत मत नोटा को मिले हैं, तो इन्हें गणना में शामिल नहीं किया जाएगा। यानी जो 80 प्रतिशत वोट बचे हैं, उसमें से ही काउंटिंग होगी और जिस प्रत्याशी को जितने वोट मिले हैं, उसी आधार पर चुनाव परिणाम की घोषणा की जाएगी। जो प्रत्याशी जीतेगा, उसकी जीत में नोटा के वोटों की संख्या न जोड़ते हुए नजदीकी प्रतिद्वंद्वी को मिले वोटों के आधार पर जीत का अंतर निकाला जाएगा।
प्रत्याशियों के प्रति नाराजगी
प्रत्याशियों को मतदाताओं ने कितना पसंद किया, हालांकि यह तो अब 4 जून को होने वाली मतगणना से पता चलेगा। बावजूद इसके साथ ही चुनावों में गायब मुद्दे और थोपे गये प्रत्याशियों के प्रति नाराजगी दिखाकर नकारने वाले मतदाताओं का आंकड़ा भी स्पष्ट हो जाएगा। यह बात दूसरी है कि 2019 के चुनावों में मतदाओं ने नोटा का साथ नहीं दिया था। 71 प्रतिशत वोटिंग के बाद भी नोटा का विकल्प मात्र 0.66 प्रतिशत ने ही चुना था। लोकसभा के हालिया चुनावों में मतदान का प्रतिशत 70 आंकड़े को नहीं छू पाया। जनता से सीधे जुड़े मुद्दों के अभाव ही नहीं राजनीतिक दलों द्वारा उतारे गए प्रत्याशियों के प्रति नाराजगी भी इसके पीछे बड़ी वजह माना जा रहा है। चार चरणों में महज 66.77 प्रतिशत लोग ही मतदान करने पहुंचे। जिसमें इन में कोई नहीं (नोटा) का विकल्प चुनने वालों की संख्या अधिक आंकी गई है। बीते लोकसभा चुनावों में आरक्षित सीटों पर नोटा को पसंद करने वाले लोगों की संख्या ज्यादा रही है। जनजातीय क्षेत्रों में शहडोल, मंडला, रतलाम, बैतूल, धार, खरगोन के अलावा छिदवाड़ा और होशंगाबाद में कुल मतदान में नोटा एक प्रतिशत से अधिक था। सबसे ज्यादा रतलाम 1.91 और 1.65 प्रतिशत मंडला में नोटा दबाने वाले मतदाता रहे हैं। नोटा का सबसे कम 0.11 प्रतिशत मुरैना लोकसभा सीट पर रहा है।

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