- रत्नाकर त्रिपाठी
मैं उस समय तथा सोच के अंत में विस्मयादिबोधक चिन्ह बन गया हूं, जिस वक्त में और खयाल से कहा गया कि ‘मुगले-आजम’ बॉलीवुड की महानतम फिल्मों में से एक है। मेरी समस्या यह कि कई साल पहले आज ही रिलीज की ‘जा सकी’ इस फिल्म में ‘अद्भुत’ ‘अकल्पनीय’ वाले तत्व को तलाश पाना मुश्किल है।
इस फिल्म की तारीफ उस कहानी वाली विवशता की तरह है, जिसमें राजा को नंगा कहना खुद को बेवकूफ साबित करने जैसा था। मैं स्वयं को इस अर्थ में भाग्यशाली मानता हूं कि ‘मुगले-आजम’ को देखने से पहले मैंने इसके आॅडियो को सुना। मेरे उस समय के साथी इस बात को शायद अब भी याद रखते होंगे कि आॅडियो के जरिये यह फिल्म मुझे कंठस्थ थी। लेकिन ये मेरा व्यक्तिगत दुर्भाग्य रहा कि भोपाल की अब खत्म हो गयीं लिली टॉकीज और पंचशील टॉकीज में मुझे यह फिल्म देखना पड़ी। जो संवाद याद रखने वाले थे, उनका फिल्मांकन देखकर मैंने सिर पीट लिया।
पृथ्वीराज कपूर, दुर्गा खोटे, सप्रू, अजीत और दिलीप कुमार के अभिनय की श्रेष्ठता से मुझे कभी इंकार नहीं रहा, लेकिन इस चित्र में ये सारे महान अभिनेता/अभिनेत्री किसी खंभे में ही परिवर्तित कर दिए गए। इन सबका एक-एक संवाद अद्भुत था और उसके साथ अभिनय का न्याय कहीं भी नहीं दिखा। शायद के आसिफ फिल्म की भव्यता और संवाद लेखन की रौ में ही इतना बह गए कि उन्होंने यह विस्मृत करा कर दिया कि निर्देशक का कर्तव्य अभिनय के उल्लेखनीय पक्ष को सामने लाने का भी है।अनारकली बनी मधुबाला की बात से पहले फिल्म की ‘बहार’ बनीं निगार का एक साक्षात्कार याद आता है। उन्होंने कहा था कि फिल्म में मधुबाला को अपनी सुंदरता का इतना घमंड हो गया था कि वह निगार सहित अन्य ‘मेहमान कलाकारों’ का अपमान करने से भी नहीं चूकती थीं।
दरअसल यही तमाम शीर्ष लोगों का वह फैक्टर रहा, जिसने इस चित्र को ‘विचित्र’ तरीके वाली लोकप्रियता में तब्दील कर दिया। ‘ये हमें देखकर कौन छिप गया बहार’ से लेकर ‘अनारकली भी हमारी बारयाबी से महरूम है’ और ‘आप सिर्फ शहंशाह हैं’ जैसे महान संवाद कैमरे के पीछे खड़े होकर ‘ओके, वेलडन’ वाली आत्ममुग्धता की भेंट चढ़ा दिए गए।
‘प्यार किया तो डरना क्या’ में आंखें चौड़ी करके खुद को गुस्से में दिखाने में व्यस्त ‘अकबर’ और उनका का ‘मजा लेने की कोशिश करते ‘सलीम’ तथा अपने सौंदर्य की दम पर बेतरतीब नृत्य को महान बनाने की कोशिश में जुटी ‘अनारकली’ क्या ये सब किसी कालजयी फिल्म के संवाहक हो सकते हैं? मेरे हिसाब से विडंबना यह कि इस चित्र को जीवित कर देने वाले मार दिए गए। जब मुराद कहते हैं, ‘मैं हिन्दुस्तान हूं, हिमालया मेरी सरहदों का निगेहबान है’ तब आप उतरते जाते हैं एक सचमुच महान फिल्म का साक्षात्कार करने के लिए। जब संगतराश कहते हैं, ‘मैं किसी कमअक्ल की बख्शीशों का मजाक उड़ा रहा हूं’ तब आपको लगता है कि, ‘हां, यह फिल्म है।’ जब निगार कहती हैं, ‘अनार की कली’ तब लगता है कि अद्भुत रंजिश से भरी जलन का अभिनय है।
लेकिन ये चित्र इनसे अलग हटकर एक औसत चित्र ही है। ये सालों-साल बाद बना वह चित्र, है, जैसे किसी घर में मुद्दत बाद संतान आयी हो और उसे सर्वश्रेष्ठ कहने की मजबूरी हो जाए। यदि ‘नीचा नगर’ ‘ पहला आदमी’ ‘प्यासा’ ‘कागज के फूल’ ‘खामोशी; ‘मधुमती’ और ‘गाइड’ जैसी रचनाओं से आगे आपको ‘मुगले-आजम’ दिखती है तो फिर हमारी सोच के बीच बहुत बड़ा अंतर है। मैं नंगे राजा को नंगा ही कहूंगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)