खरगोन लोकसभा: आरक्षण बना सबसे बड़ा मुद्दा

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश के चौथे चरण में जिन लोकसभा क्षेत्रों में मतदान होना है, उनमें निमाड़ अंचल की खरगोन सीट भी शामिल है। यह वो अंचल है जहां से प्रदेश में सहकारिता क्षेत्र को बेहद मजबूती मिली है। आदिवासी बाहुल इस सीट पर इस बार आरक्षण सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभर रहा है। इस सीट पर एक बार फिर भाजपा ने मौजूदा सांसद गजेंद्र पटेल पर ही विश्वास जताया है, तो वहीं कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में पानसेमल से टिकट मांग रहे शासकीय नौकरी छोड़ राजनीति में आए पोरलाल खरते पर दांव लगाया है। खरते बारेला समुदाय से हैं। उनके समर्थक सामुदायिक बैठकों में इसे प्रचारित भी कर रहे हैं। भाजपा ने इसी तरह का प्रयोग 2009 के चुनाव में किया था। बारेला समुदाय के मक्खन सिंह सोलंकी को नए चेहरे के रूप में लोकसभा के मैदान में उतारा था, जो प्रयोग सफल रहा था। यह वो सीट है जहां से 2007 में उपचुनाव में पूर्व उप मुख्यमंत्री सुभाष यादव के बड़े बेटे अरुण यादव ने कांग्रेस से राजनीतिक जिंदगी की शुरुआत की थी। तब यादव ने  कृष्णमुरारी मोघे को एक लाख से अधिक मतों से पराजित किया था। इस सीट में कुल आठ विधानसभाएं आती हैं, जिनमें खरगोन जिले की कासरवाड़, महेश्वर, खरगोन और भगवानपुरा शामिल हैं, वहीं बड़वानी जिले की सेंधवा, राजपुर, पंसेमाल, बड़वानी आती हैं। इन विधानसभाओं में फिलहाल तीन पर भाजपा व 5 पर कांग्रेस विधायक हैं। दरअसल इस बार इस सीट पर कांग्रेस ने आरक्षण का नया दांव चला है, जो बड़ा मुद्दा बन गया है। इसकी वजह से ही आदिवासियों के लिए आरक्षित खरगोन लोकसभा सीट पर चुनाव आदिवासियों के ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द घूम रहा है। भाजपा की गारंटी और कांग्रेस के न्याय के बजाय अपना समाज, अपना प्रत्याशी का जोर चल रहा है। आरक्षण बचाए रखने, आरक्षण छीनने की हवा के साथ संविधान की सुरक्षा-संविधान में बदलाव के मुद्दे चर्चा में हैं। खरगोन और बड़वानी जिले में करीब 60 फीसदी मतदाता  बारेला और भिलाला समुदाय के हैं। इनके अलावा कुछ आबादी भील और कोरकू की है। भाजपा-कांग्रेस ने बारेला और भिलाला को साधने के लिए इसी समुदाय से प्रत्याशी उतारे हैं। दोनों पार्टियों के बड़े नेता अंदरूनी विरोध में हैं। लोगों में चर्चा है कि भाजपा के एक कद्दावर नेता मंत्रालय में जगह पाने को प्रत्याशी का असहयोग कर रहे हैं। कांग्रेस के बड़े आदिवासी नेता खरते के संसद पहुंचने की संभावना से असहज हैं।
यह है सीट का इतिहास
खरगोन लोकसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति  के लिए आरक्षित है। यहां पहला आम चुनाव 1962 में हुआ, जिसमें भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार ने जीत हासिल की थी। इसके 1967 के चुनाव में कांग्रेस और 1971 के चुनाव में फिर से भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी को जीत मिली। आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के उम्मीदवार रामेश्वर पाटीदार ने जीत हासिल की। इसके बाद 1980 और 1984 के चुनाव में खरगौन की जनता ने अपना प्रतिनिधि कांग्रेस प्रत्याशी को चुना। इसके बाद 1989 से 1998 तक इस सीट पर भाजपा के उम्मीदवार रामेश्वर पाटीदार ने जीत दर्ज की है। इस बीच वे लगातार चार बार (1989, 1991, 1996 और 1998) सांसद बने। 1999 के चुनाव में कांग्रेस से एक बार फिर इस सीट पर वापसी की और कांग्रेस प्रत्याशी ताराचंद पटेल यहां से सांसद बने। इसके बाद 2004 में भाजपा के कृष्ण मुरारी मोघे ने जीत दर्ज की। 2007 में लाभ के दोहरे पद के कारण मोघे को यह सीट छोडऩी पड़ी, जिसके बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी अरुण यादव ने जीत हासिल की थी। कांग्रेस यह जीत आगे बरकरार नहीं रख पाई और 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में एक बार फिर भाजपा के खाते में यह सीट चली गई। इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी प्रत्याशी माखन सिंह सोलंकी, 2014 में बीजेपी प्रत्याशी सुभाष पटेल और 2019 में बीजेपी प्रत्याशी गजेंद्र पटेल ने जीत दर्ज की।
शुरुआत दौर से कांग्रेस का रहा कब्जा
निमाड़ के चार जिलों को दो भागों में बांटा जाता है। एक पूर्वी तो दूसरा पश्चिमी निमाड़। पूर्वी निमाड़ में खंडवा-बुरहानपुर लोकसभा सीट आती है तो पश्चिमी निमाड़ में खरगोन-बड़वानी लोकसभा सीट आती है। वर्ष 1952 से शुरू हुए खरगोन (तब नाम निमाड़) संसदीय क्षेत्र के चुनाव में शुरुआती दौर में कांग्रेस का कब्जा रहा लेकिन 10 वर्ष बाद ही 1962 में जनसंघ ने कांग्रेस से यह सीट छीन ली। इस सीट पर 16 आम चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से पांच बार कांग्रेस ने जीत हासिल की है, जबकि 8 बार बीजेपी को जीत मिली है, इसके अलावा 2 चुनाव भारतीय जनसंघ और 1 बार लोकदल ने जीता है।
जातीय समीकरण
खरगोन लोकसभा के जातीय समीकरण की अगर बात की जाए ता यहां पर अनुसूचित जाति और जनजाति का खासा दबदबा है। 2019 लोकसभा के मुताबिक यहां लगभग 53.56 फीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति के लोगों की है और 9.02 फीसदी आबादी अनुसूचित जाति की है। इसके अलावा अन्य जातियों के मतदाता भी हैं, लेकिन वे प्रभावी नही हैं।  

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