सरसों पर ‘कटा’ का कहर

  • पीले सोने की लहलहा रही फसल को चट कर गया कीट
  • विनोद उपाध्याय
सरसों

करीब तीन दशक पहले डकैतों के लिए मशहूर चंबल घाटी में सरसों की फसल के पीले फूलों ने इन दिनों रौनक बिखेर दी है। सरसों के पीले फूलों से चारों ओर खड़ी फसल को देख ऐसा लगता है कि मानो इन दिनों चंबल ने पीली चादर ओढ़ ली हो। लेकिन सरसों पर ‘कटा’ कीट कहर बनकर टूटने लगा हैं। इससे किसानों की चिंता बढ़ गई है। कृषि विभाग के अनुसार रबी सीजन में सरसों के गढ़ ग्वालियर-चंबल से लेकर मध्य क्षेत्र, निमाड़, महाकौशल के आंशिक रकबे वाले जिलों तक कहर बनकर टूटे कीड़ों ‘कटा’ ने अन्नदाता की कमर तोड़ दी है। हालात इतने गंभीर हैं कि कई एकड़ में पहली बुवाई की सरसों की फसल नष्ट हो चुकी।  यह सरसों जाति की फसलों का सबसे बड़ा शत्रु है। प्रकोप नवंबर के आखिरी सप्ताह में शुरू होता है। फसल पर फूल बनने शुरू होते हैं तो इसका प्रकोप मार्च तक बना रहता है। गौरतलब है कि रबी की कई फसलेें ऐसी होती हैं ,जिन पर कीटों का सबसे अधिक खतरा रहता है। सरसों की फसल में ‘कटा’ का आक्रमण होने की संभावना ज्यादा रहती है। इस कीट की इल्लियां पत्तियों की नसों को छोडक़र  शेष पत्ती को खा जाती हैं, जिसके कारण भोजन निर्माण प्रक्रिया प्रभावित होती है और पौधा सूखने लगता है। इस बार प्रदेश में सरसों पर इस कीट का आक्रमण ऐसा हुआ है कि किसान परेशान हो गए हैं। कईयों की पूरी खेती बर्बाद हो गई है। ऐसे में किसानों को दूसरी बार बोवनी के लिए बीज, जुताई और पलेवा की व्यवस्था करनी पड़ रही है। इससे सरसों की बुवाई लेट हो चली है, तो रही-सही कसर खाद की किल्लत ने पूरी कर दी है।
दोबारा बुवाई ने बढ़ाया आर्थिक बोझ
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में नमी कम है। बुवाई के साथ सिंचाई पर ध्यान न दिया जाए तो इस तरह के कीट पत्तियां खाकर पौधे को नष्ट कर देते हैं। ग्वालियर-चंबल में मालवा, महाकोशल और मध्य क्षेत्र की तरह बड़े-बड़े रकबे वाले किसान नहीं हैं। यहां औसतन किसानों के पास 5 से 25 बीघा से ज्यादा भूमि नहीं है। किसानों को पहली सरसों की फसल नष्ट होने और दोबारा बुवाई करने के कारण बड़ा आर्थिक बोझ उठाना पड़ा है। मप्र में कभी ग्वालियर संभाग के ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर तो चंबल के श्योपुर, मुरैना और भिंड तक सरसों की खेती का साम्राज्य माना जाता था। पिछले दो दशकों के दरमियान सरसों की खेती का रकबा दूसरे जिलों तक फैल गया है। नर्मदापुरम संभाग के नर्मदापुरम, हरदा, महाकौशल के नरसिंहपुर, बीना तो निमाड़ के खंडवा में इसकी खेती होने लगी है। ग्वालियर जिले में मुरार और घांटीगांव मुख्य रूप से सरसों का क्षेत्र है, वहां भिण्ड जैसे ही हालात हैं। इस क्षेत्र के डबरा, भितरवार और घाटीगांव में धान होती है, जिसकी देर से कटाई होने से अब गेहूं की बुवाई वहां होगी। इसके लिए डीएपी, एनपीके और यूरिया भी नहीं मिल रही है। श्योपुर जिले में नहर से पानी मिल गया था, तो उसके कारण सरसों की फसल ‘कटा’ के प्रकोप से बच गई। शिवपुरी और दतिया जिले में रबी के सीजन में गेहूं और गन्ने की फसल ली जाती है, इसलिए वे इलाके भी कीट के प्रकोप से बच गए। भिण्ड में बारिश होने के कारण जल्दी बुवाई कर दी थी, इसका नुकसान ये हुआ कि पूरे बेल्ट में कीड़े (कटा) ने सरसों बर्बाद कर दी। अब दोबारा पलेवा करके बुवाई करनी पड़ रही है। मुरैना के अंतर्गत आने वाले सबलगढ़, जौरा, कैलारस, अम्बाह, पोरसा में कीड़े लगे थे, इनमें से जिन किसानों ने पलेवा करके पानी दे दिया, जिससे कुछ हद तक फसल बच गई। वहीं मुरैना के कुछ हिस्सों में बारिश हो गई तो भी राहत रही। चंबल की नहर के किनारे के सिकरवारी पट्टी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में नहर का पानी लेट हो जाने से अभी तक बुवाई नहीं हो पाई है।
किसानों को लाखों का नुकसान
‘कटा’ के कारण सरसों की फसल बर्बाद होने से किसानों को लाखों रुपए की चपत लगी है। 1 एकड़ में सरसों का डेढ़ किग्रा बीज लगता है, जिसकी कीमत 1000 से 1200 रुपए है। इस हिसाब से 25 एकड़ के लिए औसतन 50 हजार रुपए के बीज का नुकसान हुआ। फिर हर किसान के पास ट्रैक्टर नहीं है। किराए पर लिए गए ट्रैक्टर के लिए 300 रुपए प्रति बीघा की दर (एक एकड़ में 600 रुपए) बैठते हैं। इस तरह कुल 7 हजार 200 रुपए जुताई में लगते हैं। डीएपी हर दो बीघा पर एक कट्टा 50 किलो का डलता है, जिसकी सरकारी कीमत 1350 रुपए है। चूंकि अभी सरकारी में आपूर्ति न के बराबर है, अत:  प्राइवेट में इसे 1500 रुपए तक पर खरीदना पड़ रहा है। 10 कट्टे भी अगर 25 बीघा में लगे तो 13 हजार 500 रुपए हुए, हालांकि राहत की बात ये कि एक बार छिडक़ाव के बाद दूसरी बार की बुवाई में इसको नहीं डालेंगे तो काम चल जाएगा।  किसानों का कहना है कि कीट ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। जिन फसलों पर कीट का प्रकोप है, उसे बचाने के लिए हर सात से आठ दिन पर कीटनाशक का छिडक़ाव करना पड़ रहा है। परेशानी यह कि नियमित अंतराल पर कम से कम एक माह तक दवा का छिडक़ाव करना पड़ेगा। तभी, सरसों की उपज मिलने की उम्मीद है।

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