
- रत्नाकर त्रिपाठी
ये हद से हद एक देह का अंत है। इसे दिलीप कुमार साहब का अंत कहना क्रूरता होगी। आज सुबह से तो उनका नया जीवन शुरू हुआ है। अली सरदार जाफरी जी की महान रचना की पंक्ति, ‘…माजी की सुराही के दिल से, मुस्तकबिल के पैमाने में…’ में आज दिलीप साहब को पूरी तरह विराजमान किया जा सकता है। प्राण-प्रतिष्ठा वाली श्रद्धा के साथ। अब वह जर्रे-जर्रे में जीवित रहेंगे। अभिनय के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप वाले वैश्विक गुरुकुल की सूरत में हमारे साथ रहेंगे। वह अदाकारी की वर्णमाला में ‘अ’ से लेकर ‘ज्ञ’ तक अपने अलावा किसी और के आने की कतई भी गुंजाइश छोड़कर नहीं गए हैं। और प्रतिभा का ये विस्तार किसी विस्तारवादी दुराग्रह की वजह से नहीं है। उन्होंने इंडस्ट्री में किसी को अपने मुकाबिल आने से नहीं रोका। अनगिनत नाम उनके सामने आये। इनमें से कमोबेश सभी बाद में केवल नाम होकर रह गए और काम सहित नाम की संपदा दिलीप साहब के हिस्से ही आयी। वो एक खास कोण से आंखों का कभी खुलना और कभी अधमुंदा हो जाना। वो दृश्य की मांग के अनुरूप संवाद में उतार और चढ़ाव का अकल्पनीय संतुलन। वो पेशानी पर लाई गई लकीरों से ट्रेजडी का हर बार नए तरीके से श्रृंगार करना। वो आंखों की शरारत और होठों की पल भर में कायम होने वाली जुगलबंदी से हास्य रस की फुहार से भिगो देना। ये सब दिलीप साहब ने किया। किसी आदत की तरह। अभ्यास की भांति। एकाध बार नहीं, लगभग हमेशा। और ये ‘लगभग’ शब्द के इस्तेमाल की पीड़ा ही इंडस्ट्री के कई परजीवियों के लिए गुस्से से भर देती है। वे पैरासाइट जिन्होंने इस महान अदाकार की सम्पूर्ण प्रतिभा को पर्दे पर उतारने में आपराधिक लापरवाही बरती। जो दिलीप साहब के किरदारों को वैरायटी में ढालने में डरते रहे। पुरानी कई फिल्में देखिये। दिलीप साहब का वही टिपिकल आदर्श इंसान वाला किरदार ही दिखता है। जबकि वो तो हर किस्म का चरित्र पूरी जीवंतता के साथ निभाने का दम रखते थे। तो फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ कि मेहबूब खान की ‘अमर’ के पतित, बिमल रॉय की ‘देवदास’ के आवारा और शराबी, भीम सिंह की ‘आदमी’ के मनोरोगी, नितिन बोस की ‘गंगा-जमुना’ के प्रतिशोध में जलते डकैत और या फिर सुभाष घई की ‘विधाता’ के क्रूर माफिया सरगना जैसे चरित्र में दिलीप साहब को उतारने का जोखिम कम लोग ही उठा सके? ये रिस्क फैक्टर दिलीप साहब के लिए जी-भरकर उठाया जाना चाहिए था। ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस बात को देख सकतीं कि कैसे कोई इंसान खराब से खराब चरित्र को भी बेहतर से और भी बेहतर तरीके से सेल्युलॉइड पर उतार सकता है।
आप इसे बेशक कोरी भावुकता कह सकते हैं, लेकिन सच्चा वाकया है। भोपाल के रविंद्र भवन में बिमल रॉय साहब की फिल्मों का विशेष प्रदर्शन रखा गया था। जब ‘देवदास’ का शो खत्म हुआ तो अपने के पूर्व शिक्षक पर मेरी नजर पड़ी। उन्होंने मुझसे कहा कि वह प्रोजेक्टर रूम में जाना चाहते हैं। वहां पहुंचकर उन्होंने ऑपरेटर से निवेदन किया कि उन्हें ‘देवदास’ की रील को छूना है। उन्हें इसकी अनुमति मिल गयी। रील को स्पर्श हुए उन्होंने मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में एक पूरी सदी तैर रही थी। रूंधे गले से मुझसे बोले, “देखो। दिलीप साहब के अभिनय ने इस बेजान रील में भी धड़कन पैदा कर दी है।” मैं जीवन भर अपने आपको खुशकिस्मत मानूंगा कि उस लम्हे का मैं साक्षी बन सका था। साथ ही इस बदकिस्मती का दर्द भी मुझे हमेशा सताता रहेगा कि दिलीप साहब से जुड़े ऐसे और भी अनगिनत प्रसंगों का मैं साक्षी नहीं बन सका। मैं उन हरेक आंख की पुतलियों, हृदय की धड़कनों तथा रोम-रोम में समाये दिलीप कुमार का साक्षात्कार करना चाहता था। शायद ये परमेश्वर का एक दयालु निर्णय था। वह दिलीप साहब को एक अंतहीन पीड़ा से विरत रखना चाहता था। दिलीप कुमार ने ‘उरूजे-फिक्रों-फन’ के नए मापदंड स्थापित किये। लेकिन फिल्मों में उनकी सक्रियता और फिर अवकाश के बाद से लेकर आज तक कोई भी और अभिनेता अभिनय को लेकर उन जैसी श्रेष्ठता का संवाहक नहीं बन सका। यदि अवकाश लेने के बाद फुर्सत के दिनों में दिलीप साहब अभिनय की अपनी विरासत के लिए एक भी मुफीद पात्र नहीं देख पाते तो बहुत मुमकिन था कि वह गहरे सदमे में आ जाते। यह देखना उनके लिए गहन विषाद का विषय बन जाता कि उनके रहते और उनके विश्राम के बाद एक भी और दिलीप कुमार इस इंडस्ट्री को नहीं मिल सका। वे फिल्मों से प्यार करते थे। चलचित्र उनका जीवन था। उसके आंगन में पसरा भयावह सन्नाटा शायद दिलीप साहब को अनंत पीड़ा से भर सकता था। हो सकता है कि इस तथ्य को भांपकर ही किसी दिन चुपके से उन्होंने एक प्रार्थना की हो। परमेश्वर से ग़ालिब के अंदाज में ‘…छीन ले मुझसे हाफ़िज़ा मेरा’ वाली मुराद साझा कर ली हो। सर्वांग, सम्पूर्ण और सर्वकालिक अभिनय की अमिट मिसाल दिलीप साहब को हार्दिक श्रद्धांजलि।
लेखक-वरिष्ठ पत्रकार हैं।