- अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट के बाद बैकफुट पर आई भाजपा
भोपाल/हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में नगरीय निकाय चुनावों में महापौर और नपाध्यक्षों का चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से कराने पर अड़ी भाजपा अंतत: बैकफुट पर आ गई है चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का मन बना लिया है। यानी अब महापौर या नगरपालिका अध्यक्ष सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाएंगे। बताया जाता है पार्टी के अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट के बाद भाजपा और प्रदेश सरकार ने यह फैसला लिया है।
गौरतलब है कि निकाय में ओबीसी आरक्षण को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्य चुनाव आयोग ने चुनाव का बिगुल बजा दिया है। नए सिरे से वार्डों के आरक्षण की प्रक्रिया शुरू हो रही है। यह भी तय है कि चंद दिनों में ही चुनाव आयोग नगर सरकार की तारीखों का ऐलान भी कर देगा। आठ साल बाद ही सही पर अगले दो महीनों के भीतर प्रदेश में नगर सरकारें अस्तित्व में आ जाएंगी। नगर सरकार चुनाव तय होते ही अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने के संकेत एक बार फिर मिल गए हैं। कभी नगरीय निकाय महापौर और अध्यक्ष के चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से कराने की हिमायती भाजपा में इसे लेकर दो फाड़ हो गए हैं लिहाजा पार्टी बैकफुट पर है। राज्यपाल के यहां से अध्यादेश वापस बुला लिया गया है यह फिर से भेजा जाएगा अब इसमें असमंजस है।
अधिकांश विधायक अप्रत्यक्ष प्रणाली के पक्ष में
भाजपा सूत्रों के अनुसार पार्टी के अधिकांश विधायक प्रत्यक्ष की जगह अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव कराने में हैं। उनका कहना है कि प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव में उनका दखल अपने ही इलाके के अध्यक्षों पर कम रह जाता है। विधानसभा चुनाव में अभी समय कम है लिहाजा सामंजस्य बनाने में दिक्कत आएगी। वहीं अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव में पार्षद अध्यक्ष चुनेंगे लिहाजा विधायक का रोल महत्वपूर्ण हो जाएगा। उसकी विधानसभा की नगरपालिका और नगर परिषद में अध्यक्ष चुनने से पहले उसकी राय ली जाएगी। ऐसे में ये अध्यक्ष उससे बाहर नहीं जा पाएंगे। आरक्षण का मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर जा पहुंचा। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद दस मई को सुप्रीम कोर्ट इन चुनावों को का पहला फैसला आने के बाद भाजपा ने आनन- फानन में अध्यादेश लाने की तैयारी की और साफ किया कि नगरीय निकाय चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से होंगे। इसके लिए अध्यादेश राज्यपाल के पास पार्षद की मंजूरी के लिए भेज दिया गया। इसके बाद सरकार मोडिफिकेशन में गई और सुप्रीम कोर्ट द्वारा ओबीसी को आरक्षण देने संबंधी फैसला आने के बाद भाजपा सरकार ने यह अध्यादेश वापस बुला लिया। इसके बाद से ही पार्टी में इस मसले पर चचार्ओं का माहौल गर्म है। बताते हैं कि इस मसले पर पार्टी दो धड़ों में बंट गई है।
पार्टी और अदालत का दबाव
नगरीय निकाय चुनाव की तैयारी कमलनाथ सरकार के सत्ता में आने के बाद 2019 में शुरू हुई थी। तब कमलनाथ सरकार अपनी पार्टी के सियासी समीकरणों को देखते हुए तय किया था कि नगर निगम, पालिका और नगर परिषदों के चुनाव सीधे जनता से न कराकर पार्षदों से कराए जाएंगे यानी पार्षदों में से ही महापौर व अध्यक्ष चुना जाएगा। उसने इसे विधानसभा से पारित भी करा लिया था। जब भाजपा ने इसका खासा विरोध किया था। भाजपा शुरू से ही नगरीय निकाय के अध्यक्षों के चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से कराने हिमायती रही की हैं, उसने ही 2003 में सत्ता में आने के बाद इन चुनावों को प्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का फैसला किया था। यह बात अलहदा है कि कमलनाथ सरकार में चुनाव नहीं हो पाए और आरक्षण के पेंच के चलते भाजपा भी सरकार में आने के बाद तक इन चुनावों को नहीं करा पाई। दो साल हालांकि सत्ता में आने के बाद उसने कमलनाथ सरकार फैसले को पलटते हुए नगरीय निकाय चुनाव एक बार फिर प्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का फैसला करते हुए इस संबंध में अध्यादेश जारी कर दिया पर वह इसे छह महीने के भीतर विधानसभा में पारित नहीं करा पाई, लिहाजा यह अध्यादेश शून्य हो गया।
अप्रत्यक्ष चुनाव भाजपा के लिए फायदे का सौदा
महापौर प्रोटोकॉल में विधायक से ऊपर होता है। इसके अलावा भाजपा को महंगाई का भी डर कहीं न कहीं सता रहा है। अध्यक्ष के चुनावों में पार्टी का परम्परागत वोट ज्यादा मायने रखता है, पर पार्षदों के चुनाव में इमेज ज्यादा मायने रखती है, यही वजह है कि नगर सरकारों में निर्दलीय पार्षद भी बहुतायत जीतते हैं। भाजपा का मानना है कि अप्रत्यक्ष चुनाव उसके लिए फायदे का सौदा हैं। पार्टी सत्ता में है लिहाजा चुनाव में किसी भी शहर में उसके पार्षद कम भी जीतते हैं तो निर्दलीय पार्षदों को वह अपने साथ लेकर अपना अध्यक्ष बना सकती है, पर प्रत्यक्ष प्रणाली में यह संभव नहीं हो पाएगा। यही वजह है कि अपने ही फैसले से पार्टी पलट रही है। हालांकि इस मसले पर उसके नेता खुलकर कुछ नहीं कर रहे हैं पर अंदरखाने से जो खबरें आ रही हैं वे पार्टी की चिंता को बताती हैं।
23/05/2022
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