मुझे किस तरह से मिटाओगे, कहां जाके तीर चलाओगे

  • राकेश श्रीमाल
जीवन

कोरोना के इस विराम-समय में जीवन को पार्श्व में देखने और कमबख्त नासमझी में उटपटांग समझने का एक अलग, लगभग विरला रोमांचक सुख होता है, आज वहीं थोड़ा सा भटकते हैं। कोलकाता मेरा तीसरा मेट्रोपोलिटन शहर है, जहां मैं मुम्बई में एक दशक और दिल्ली में कुछ वर्ष रहने के उपरांत रह रहा हूं। इसी बीच लंबे समय तक वर्धा में भी रहा और उस अति छोटे जिले में प्राय: निष्क्रिय ही रहा। अलबत्ता इंदौर मेरी सांसों में आज भी धड़कता है, जिसकी सुगबुगाहट मैं जागते-सोते हुए महसूस करता रहता हूं। इंदौर मेरे लिए उस्ताद अमीर खां, मामा साहेब मजूमदार, रामजी वर्मा, मकबूल फिदा हुसैन या वसन्त पोतदार का ही शहर नहीं है, ना मालूम कितने और कैसे-कैसे चरित्रों का भी संस्मरणों में बसा शहर है, जिन्हें इस फिलवक्त याद करते हुए भी सहज सिहरन होने लगती है। दोस्ती-यारी का क,ख, ग भी मैंने इंदौर से सीखा और निश्चित ही पत्रकारिता और इकतरफा प्रेम करना भी।
 मेरी मित्रता भी अपेक्षाकृत उम्रदराज लोगो से अधिक हुई, जिनमें मनोहर गोधने, ध्वलकान्त, भालू मोंढे, वसंत पोतदार, इंदौर म्यूजियम के संचालक रामसेवक गर्ग, मिर्जा इस्माइल बैग और सबसे अधिक रामजी वर्मा से हुई। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि रामजी वर्मा ने मुझे कला की समझ और कलाकार की तरह जीवन जीने में परिष्कृत करने में एक अभिभावक की भूमिका निभाई। उन्होंने जो भी और जिस तरह से मुझे प्रेरित किया, वह इन दिनों लगभग नदारद है, विशेषकर एकेडमिक जगत में। रामजी वर्मा सीधे-सीधे कुछ नहीं बोलते थे। उन्हें आपको ही समझना होता था। मैं इंदौर के अपने उन दिनों में कला-जीवन के प्रति बेहद अनपढ़ और अंगूठा छाप था। मुझे पता ही नहीं चला कि अक्सर मेरी सारी शामें उनके साथ ही बीतने लगी थीं। वह समय मेरे जीवन के एक ऐसे बदलाव की तरह आया, जिसमें मेरा बचपन का अतीत, पारिवारिक परिवेश और बंधी हुई खान-पान की संस्कृति बदलने लगी। कला अभिव्यक्ति के लिए उन्मुक्त होना क्या होता है, यह मैंने रामजी वर्मा से ही सीखा। मैं उन्हें उनके बेटों की तरह ही पापाजी बोलना सीख गया था। उस समय की इंदौर की छावनी में उनके घर की बहू तेरी यादें आज भी मेरे जीवन में जस की तस बची हुई हैं।
रामजी वर्मा अत्यंत खामोश रहते हुए उस दौर के कला-परिदृश्य में जो बदलाव ला रहे थे, उस पर अनुसंधान करने की बात सोचना तक इस समय में इसलिए गैर लाजिमी लगती है कि यह बहुत तात्कालिक और हड़बड़ी का समय है। इस समय में प्रति क्षण ब्रेकिंग न्यूज का निर्माण होता है और दूसरे ही पल उसे मार भी दिया जाता है। लेकिन मुझे इस समय भी अमीर खां को सुनना इसलिए पसन्द है कि उनकी गायकी हमेशा-हमेशा के लिए ब्रेकिंग के विपरीत स्थाई महत्व रखती है। इसे मैं अपने जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही समझता हूं कि मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया। इसी कोलकाता में, जहां इन दिनों मेरा ठिकाना है, वहीं 13 फरवरी 1974 को महज 61 वर्ष की उम्र में उनका एक कार दुर्घटना में निधन हो गया और कोलकाता के गोबरा कब्रिस्तान में उन्हें दफना दिया गया। यह शायद हमेशा विवादित ही रहेगा कि उन्हें जानबूझकर चलती कार से बाहर फेंक दिया गया था। यह सोचकर मुझे आज भी सिहरन सी उठती है कि वे इंदौर के थे, यानी मेरे ही शहर के। अपनत्व और अपने शहर से लगाव वाला मामला थोड़ी देर के लिए खारिज भी कर दिया जाए, तो यह कहा जा सकता है कि उन्हें एक मासूम रसिक की तरह कहीं से भी अपना कहा जा सकता है। उस्ताद विलायत खां के बेटे उस्ताद शुजात खां की बहुत सारी सांगीतिक तालीम उनके साथ रात-रात भर उन्हें एक के बाद एक पैग भरकर देने से हुई है, जिसमें वे रात के तीसरे पहर, यानी साढ़े तीन-चार बजे के दरमियां उन्हें कुछ सीखा देते थे।
मुझे नहीं पता कि रामजी वर्मा या उस्ताद अमीर खां के बारे में इंदौर की समकालीन पीढ़ी कितना जानती-समझती है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि वर्षो से सर्वश्रेष्ठ शहर की तरह नामित होते इसे शहर की असल विरासत को किस तरह सहेजा-संभाला जा रहा है। वर्तमान पीढ़ी इस मामले में इतनी लापरवाह है कि उसे अपने ही भले-पूरे सांस्कृतिक विरासत से कोई लेना-देना नहीं रहा है। इस पीढ़ी को या तो अपने रोजगार से मतलब है या शायद हर महीने भरने वाली अपनी ईएमआई से। कोरोना के इस क्रूर समय ने तो इंसान से इंसानियत की चोरी कर ली है। इतना बेबस समय देखना हमारी नियति बन गई है। लेकिन इतिहास कहीं हमेशा सिरफिरों के दिमाग में अपने अस्थिपंजरों के साथ उपस्थित रहता है। उसे इस दिक-काल से किंचित भी व्यतीत नहीं किया जा सकता है। इंदौर के वे व्यक्तित्व, जिन्होंने उस शहर को अधिक रचनात्मक परिवेश प्रदान किया है, वे हमेशा हम से कहीं अधिक सृजन के स्नायुतंत्र में स्पंदित होते रहेंगे। एक भरी-पूरी पीढ़ी के स्वार्थी होने के वाबजूद कुछ तो बचे रहेंगे, जो उनकी स्मृति में अपनी इस भयावह दिनचर्या में उनके साथ जीते रहेंगे। मैं उसी दिनमान में रहना पसंद करता हूं, जो कि अब एक लत ही बन गई है।
इंदौर की बात चली है तो इस शहर के चटोरे होने का भी थोड़ा जिक्र कर लिया जाए। उस्ताद अमीर खां उस दौर में इंदौर में मुंबई बाजार में और नरसिंह बाजार के इंडिया होटल में घंटों बैठे रहते थे। इंडिया होटल के तब के मालिक रामनाथ का कहना था कि अमीर खां खुद बहुत कम चाय पीते थे लेकिन हर मिलने वाले को चाय जरूर पिलाते थे। अमीर खां को हरी सब्जियां खाने का बहुत शौक था। उन्हें मेथी की सब्जी खाने का शौक था, जिसे उन्हें खुद बनाने में सुकून मिलता था। वे मटन बहुत कम खाते थे। बकरीद जैसे पर्व में भी वे बकरी की कीमत के हिसाब से जरूरतमंदों को पैसा बांट देते थे। भुट्टे का किस्स खाना उन्हें बेहद पसंद था, जिसे वे खुद बनाते थे। एक बार संगीत सम्राट उस्ताद रजब अली खां को अपने निवास पर खाने की दावत दी। उस्ताद रजब अली खां मामा कृष्णराव मजूमदार के साथ आए। दावत के बाद रजब अली खां ने  अमीर खा को कहा कि भाई खाना खिलाया है तो गाना भी सुनाना पड़ेगा। महफिल सजी और अमीर खां गाने लगे। गाते समय वे रजब अली खां को देखते रहे। जबकि अमीर खां ने रजब अली खां साहब से गंडाबन्ध शागिर्दी हासिल नहीं की थी, लेकिन वे उन्हें अपना गुरु मानते थे। कई सारी स्मृतियां इंदौर को लेकर है। वक्त-बेवक्त जिसे लिखता भी रहूंगा। अगर मेरे जीवन, मेरी सोच और मेरे असहनीय जीवन व्यवहार में अगर रक्तचाप की तरह कुछ रहता है, तो वह इंदौर ही है। मैं आज की तारीख के इंदौर को देखना बिलकुल पसन्द नहीं करता, मुझे उस इंदौर से बहुत इकतरफा किसी पागल की तरह प्रेम है, जो मेरी स्मृति में हमेशा के लिए अपना स्थापत्य बसा चुका है।
लेखक-वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं।

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