24 लाख वोटों का अंतर कैसे पाटेगी कांग्रेस

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मालवा-निमाड़ की सीटें बनी कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती

विनोद उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र की राजनीति में मालवा-निमाड़ का विशेष योगदान माना जाता है। लेकिन पिछले डेढ़ दशक से कांग्रेस इस क्षेत्र में लगातार कमजोर होती जा रही है। अब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने चुनौती है कि वह अपने प्रदर्शन को बेहतर करे। लेकिन वह मालवा-निमाड़ में 2019 के लोकसभा चुनाव के 23 लाख 78 हजार वोटों के अंतर को इस बार कैसे पाटेगी, यह सबसे बड़ा सवाल है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इस अंतर को कम जरूर किया है, पर अभी भी भाजपा और कांग्रेस के वोटों में नौ लाख से भी ज्यादा का अंतर बरकरार है। गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में इस अंचल की पूरी की पूरी आठ सीटें भाजपा के कब्जे में गई थीं। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इन सीटों की 64 विधानसभा सीटों में से 47 पर अपना कब्जा जमाया है। इन आठ लोकसभा सीटों में से सिर्फ धार और खरगोन में ही भाजपा को कांग्रेस से कम सीटें मिली हैं। लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण का आज शोर थमने और 7 मई को मतदान के बाद चौथे चरण की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। मालवा-निमाड़ में भी चुनावी हलचल तेज होगी और इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की धार में होने वाली सभा से होने जा रही है। सात मई को पीएम मोदी धार में जनसभा को संबोधित करेंगे। मालवा निमाड़ की आठ सीटों पर भाजपा का कब्जा है और उनकी पूरी कोशिश है कि यह कब्जा बरकरार रहे। बहरहाल बात कांग्रेस की करें, तो 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी लगातार कमजोर होती चली गई है, जबकि अथाह राम लहर के बीच भी कांग्रेस ने सूबे की पांच सीटों पर जीत का परचम फहराया था। उस वक्त के नए चेहरे दूसरी बार चमत्कार नहीं दिखा सके और भाजपा अंचल में मजबूत होती गई। गर्मी के तेज होते पारे के बीच होने वाले चुनाव में मालवा-निमाड़ के हालात और इतिहास क्या होंगे, इस पर सबकी नजर है।
राम लहर के बाद बदला परिदृश्य
साल 2009 में भाजपा राम लहर पर सवार थी। हर ओर नारा गूंज रहा था कि राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। तब पीएम इन वेटिंग भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी थे, जो अपनी रथ यात्राओं के जरिए राम मंदिर के मुद्दे को उठाने वाले है। मालवा-निमाड़ में आंदोलन का ज्यादा जोर था और भाजपा ने नए पुराने चेहरों को मैदान में उतारा। हर सीट पर रामजी का उद्द्योष गूंज रहा था और गांव गांव मंदिर आंदोलन के नारे सुनाई दे रहे थे। सडक़ों पर राम राज के गुबार उड़ते और भाजपा के झंडों से ज्यादा केसरिया पताकाएं, वंदन वार सज गए। उस चुनाव में इंदौर से सुमित्रा महाजन, मंदसौर में लक्ष्मीनारायण पांडे, उज्जैन सीट पर सत्यनारायण जटिया, देवास सीट पर थावरचंद गेहलोत, खंडवा में नंदकुमार सिंह चौहान, रतलाम झाबुआ में दिलीप सिंह भूरिया पार्टी का मजबूत चेहरा थे। आदिवासी बहुल सीट धार में मुकाम सिंह किराड़े और खरगोन में माकन सिंह सोलंकी नया चेहरा थे। पार्टी की तमाम कोशिशों और जनभावनाओं को उभारने के बाद भी अंचल में सिर्फ दो सीट पर भाजपा का कमल खिला। जटिया, गेहलोत, पांडे, नंदू भैया, भूरिया जैसे दिग्गजों को घर बैठना पड़ गया था। साल 2009 में कांग्रेस ने जो प्रदर्शन किया था, वैसा चमत्कार आने वाले चुनावों में नजर नहीं आया। जिन युवा चेहरों को पार्टी ने भविष्य की उम्मीद के साथ मैदान में उतारा था, वे अगले चुनाव में हारने के बाद मैदान में उतरने में ही कतराने लगे। यहां तक की कुछ ने तो क्षेत्र को भी लावारिस छोड़ दिया था। नतीजा पार्टी लगातार कमजोर होती चली गई और उसका लाभ भाजपा को मिला।
छह सीटों पर कमजोर हुई कांग्रेस
मालवा-निमाड़ की आठ लोकसभा सीटों में से छह पर कांग्रेस काफी मजबूत थी। लेकिन 2009 के बाद इन पर कांग्रेस लगातार कमजोर पड़ती चली गई। देवास सीट पर 2009 में सज्जन सिंह वर्मा ने थावरचंद गेहलोत को हरा कर सनसनी फैलाने का काम किया था। इस जीत को वे बरकरार नहीं रख पाए और 2014 और 2019 के चुनाव लगातार हार गए। अब उन्होंने लोकसभा चुनाव से दूरी बना ली। वहीं टीम राहुल गांधी का अहम हिस्सा रही मीनाक्षी नटराजन को पार्टी ने काफी उम्मीद के साथ मंदसौर सीट से चुनाव मैदान में उतारा था। लक्ष्मीनारायण पांडे जैसे कद्दावर नेता को हरा कर उन्होंने सनसनी मचा दी थी। नटराजन भी इस जीत को निरंतर रखने में असफल रही। भाजपा के गढ़ उज्जैन में कद्दावर नेता सत्यनारायण जटिया को हरा कर कांग्रेस के प्रेमचंद गुड्डू एक सितारे की तरह चमक उठे थे। पांच साल के कार्यकाल में ना सिर्फ कांग्रेस कमजोर हुई, बल्कि अगला चुनाव भी वे लंबे अंतर से हार गए। वर्ष 2009 में धार सीट पर गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी को दूसरी बार मौका मिला था। उन्होंने जीत का क्रम जारी रखते हुए भाजपा के मुकाम सिंह किराड़े को हरा दिया था। वर्ष 2014 में वे छत्तर सिंह दरबार से हार गए। फिर 2019 में पार्टी ने टिकट नहीं दिया। अब वे भाजपा के पाले में हैं। आदिवासी बहुल झाबुआ सीट पर कांतिलाल भूरिया और दिलीप सिंह भूरिया के बीच परंपरागत मुकाबला होता आया है। साल 2009 में कांतिलाल भूरिया ने जीत का परचम फहराया, मगर अगले दोनों चुनाव वे हार गए। भाजपा को पैर जमाने का मौका मिल गया। एक बार फिर भूरिया उम्मीद के साथ मैदान में है। खरगोन की परंपरागत सीट के आरक्षित होने के बाद अरुण यादव ने खंडवा की तरफ रुख किया था। नंदकुमार सिंह चौहान को पटखनी देकर यादव ने आलाकमान की नजर में नंबर बढ़ाने का काम किया, लेकिन अन्य नेताओं की तरह यादव भी जीत को बरकरार नहीं रख पाए।

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