- प्रवीण कक्कड़
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरा, गुरु साक्षात परम ब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नम:
संसार में वैसे तो महत्वपूर्ण दिवसों की कमी नहीं है, लेकिन गुरु पूर्णिमा का महत्व उनमें सबसे अलग है। इस दिन हम अपने गुरु का स्मरण करते हैं, उनका सम्मान करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। यह तो हम सब जानते हैं कि गुरु का प्रचलित अर्थ अध्यापक, शिक्षक, टीचर या इसी तरह के दूसरे शब्द हैं। लेकिन गुरु शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई? गुरु शब्द में दो हिस्से हैं गु और रु। गु का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है प्रकाश। अर्थात जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वही गुरु है। इस तरह देखें तो उपनिषद का वाक्य “तमसो मा ज्योतिर्गमय” कहीं ना कहीं गुरु के लिए ही कहा गया है।
इसलिए आज भी हम अपने समाज में देखते हैं तो बहुत से लोग आपको ऐसे मिल जाएंगे जो अध्यापकों के प्रति कृतज्ञ होते हैं और व्यावहारिक अर्थ में उन्हें अपना गुरु भी मानते हैं। लेकिन असल में वे किसी ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति को अपना गुरु मानते हैं जिससे उन्होंने दीक्षा ली हो। भारतीय परंपरा में गुरु दीक्षा का बहुत महत्व है। इस परंपरा का अनुभव करने वाले जानते हैं कि जब गुरु दीक्षा देता है तो संबंधित व्यक्ति के कान में कोई मंत्र देता है। सामान्यत: गुरु अपने शिष्य से कोई ना कोई एक चीज का त्याग करने का आग्रह भी करता है।
आजकल तो लोग खाने या पीने की कोई चीज छोड़ देते हैं लेकिन असल में इसका मूल मकसद किसी बुराई को त्यागने से होता है। हमारा गुरु हमसे ऐसे त्याग की अपेक्षा करता है जो संसार के कल्याण में हो। एक बात और ध्यान रखिए कि आजकल गुरु बड़ी जल्दी से गुरु दीक्षा और गुरु मंत्र दे देते हैं, लेकिन पुराने समय में शिष्य लंबे समय तक गुरुकुल में रहते थे। भिक्षा मांग कर खाते थे। अपने गुरु से विद्या सीखते थे और गुरु की सेवा करते थे। जब यह शिक्षा पूर्ण हो जाती थी तो गुरुजी परीक्षा लेते थे। और परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के बाद ही उससे गुरु दक्षिणा स्वीकार करते थे। उस जमाने में मासिक फीस भरने का चलन नहीं था। प्राचीन भारत के गुरुकुल में राज पुत्र और गरीब के बेटे दोनों को एक समान व्यवस्था में अध्ययन करना होता था। यह भारतीय परंपरा का पुराना समाजवाद है। खैर आपको भी लगता होगा कि कहां इस गुरु पूर्णिमा पर पुराने जमाने की बातों का सिलसिला शुरू कर दिया गया। कुछ बातें नए जमाने की भी होनी चाहिए।
तो नए जमाने की बात करें। आजकल गुरुकुल तो नहीं होते हॉस्टल जरूर होते हैं। बहुत से शिक्षक सिर्फ गुरु दक्षिणा के उद्देश्य से पढ़ाते हैं लेकिन आज भी ऐसे शिक्षक मौजूद हैं जो बच्चे को किताबी शिक्षा देने के साथ ही उसके समग्र व्यक्तित्व का विकास करने पर ध्यान देते हैं। जो बच्चे के मनोभावों को पकड़ते हैं, उसकी प्रतिभा को पहचानते हैं और उसे सही दिशा में गढ़ने की कोशिश करते हैं। अगर आपको मेरी बात पर सहज विश्वास ना हो रहा हो तो जरा याद करिए की पहली कक्षा से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन तक आपको कितने शिक्षकों ने पढ़ाया है। क्या आपको वह सारे शिक्षक याद हैं? जवाब होगा, नहीं। लेकिन कुछ शिक्षक ऐसे होंगे जो आपको याद हैं। कुछ शिक्षक ऐसे होंगे जिनसे आप वर्षों से नहीं मिले लेकिन इस गुरु पूर्णिमा पर उन्हें फोन करेंगे, या सोशल मीडिया पर उन्हें प्रणाम निवेदन करेंगे। कई शिक्षक ऐसे होंगे, जिनका जिक्र आते ही आपका मन श्रद्धा से झुक जाता होगा। वर्तमान समय में यह जो अंतिम चरण का शिक्षक है असल में वही आपका गुरु है।
असल में यह वही गुरु है जिसका वर्णन कबीर दास जी ने इस तरह किया है:
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ गढ़ काढ़े खोट अंतर हाथ सहाय दे, बाहर मारे चोट
कबीर दास जी ने इतना ही नहीं कहा। भक्ति आंदोलन से देखें तो उसने कहा गया “बिन गुरु मिले न ज्ञान”। कबीर दास जी के गुरु रामानंद जी थे, सूरदास जी के गुरु वल्लभाचार्य थे, स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस थे और बाकी संतो के गुरु की आप को खोजने पर मिल जाएंगे। असल में गुरु के महत्व पर इतना ज्यादा जोर इसलिए दिया गया है कि व्यक्ति ज्ञान तो कुछ भी प्राप्त कर सकता है लेकिन उसमें भटकाव की बहुत संभावना है। ज्ञान एकदम मौलिक चीज नहीं है बल्कि उसमें आपसे पहले की सभ्यता ने जो जो चीजें अर्जित की हैं वह सब शामिल हैं। गुरु का काम होता है कि वह अपने शिष्य को पूर्व अर्जित संपूर्ण ज्ञान से परिचित करा दे और उसके अंदर एक ऐसी दृष्टि विकसित करे जिससे वह अतीत के ज्ञान का उपयोग भविष्य की राह खोजने में कर सके। यही नहीं वह पूर्व संचित ज्ञान में अपने हिस्से का थोड़ा सा अनुभव भी जोड़ सके। अगर गुरु हमें पुराना ज्ञान नहीं देगा तो हमारा जीवन पुराने ज्ञान को समझने में ही निकल जाएगा और हम कोई नया काम नहीं कर पाएंगे। इस प्रक्रिया में पथभ्रष्ट होने की संभावना बहुत ज्यादा है। इसलिए गुरु और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आजकल आप लोग अध्यापक की डांट से बहुत जल्दी नाराज हो जाते हैं। कई बार तो छोटे-छोटे बच्चे यह कहते हैं कि टीचर ने उनकी इंसल्ट कर दी। हमारे जमाने में तो माता-पिता अध्यापक से कह देते थे कि मास्टर जी हड्डी हड्डी हमारी और खाल खाल तुम्हारी। यानी अध्यापक महोदय आप बच्चे की इतनी पिटाई कर सकते हैं कि उसकी हड्डी ना टूटे, चमड़ी पर जितनी चाहे चोट पहुंच जाए। जाहिर है बदलती दुनिया में इस तरह के शारीरिक दंड की व्यवस्था अब समाप्त हो चुकी है। लेकिन दंड की व्यवस्था समाप्त होने का अर्थ यह नहीं है कि गुरु का सम्मान करने की व्यवस्था भी समाप्त हो जाए।
इस तरह देखें तो गुरु हमारे जीवन में पहले भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं और आगे भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे।
गुरु पूर्णिमा की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
(लेखक पूर्व पुलिस अधिकारी हैं)