गांधीजी ने सिविलाइजेशनल डिबेट पैदा की थी

  • मनोज श्रीवास्तव
गांधीजी

आज गांधी जी क्यों याद आये। सुबह सुबह कलियासोत डैम की पाल पर घूम रहे थे हम दोनों। वहां एक व्यक्ति है जो सप्ताहांत में आता है और बहुत मीठे गीत   तन्मय होकर अकेले एक स्थान पर गाता रहता है।
सो आज वो गा रहा था। हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। मुझे लगा कि यह गीत जिस तरह से एक सिविलाइजेशनल डिबेट का गीत है, गांधी जी का महत्त्व भी इसी बात में है कि उन्होंने भी वही सिविलाइजेशनल डिबेट पैदा की थी।
कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं
इन्सान को कम पहचानते हैं
ये पूरब है, पूरब वाले
हर जान की कीमत जानते हैं
शैलेंद्र इस गीत में ज्ञान और प्रत्यभिज्ञा में फर्क करते हैं। पश्चिम के पास नॉलिज होगी, पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन तो पूर्व के ही पास था। गांधी जी उसे ही सभ्यता कहते थे।
शैलेंद्र ने हालांकि ये जो लिखा कि
मतलब के लिए अंधे होकर
रोटी को नहीं पूजा हमने
वो गाँधी जी नहीं कहते। वे अन्नं वै प्राणा: मानते। वे तो पश्चिमी सभ्यता को रोटी को पूजने वाली नहीं, रोटी को छीनने वाली सभ्यता मानते थे। कहाँ प्रभु यीशु थे जो यूकारिस्ट के मनाते वक़्त हमें याद आते थे, जिनके द लास्ट सपर में उनकी रोटी का ३१ंल्ल२ २४ु२३ंल्ल३्रं३्रङ्मल्ल उनके रक्त में होता है और कहां उनका नाम लेकर निकली यह तथाकथित सभ्यता जो गरीबों के मुंह से निवाला छीन रही थी। इसका संघर्ष रोटी का नहीं था, दूसरों की रोटी छीनकर अपने खजाने को भरने का था। गाँधी जी होते तो शैलेंद्र की इन पंक्तियों का पुनर्लेखन यों करते :
मतलब के लिए अंधे होकर
पैसे को नहीं पूजा हमने
गांधी जी की हिंद-स्वराज को उन्हीं के अति प्रिय लोग एक तरह की प्रि-मॉडर्न पुस्तक मानते हैं। लेकिन इतने बरसों बाद क्या वे ये मानेंगे कि गाँधी एक उत्तर-आधुनिक समीक्षा कर रहे थे उस आधुनिकता की जो तत्कालीन भारत में पूरी तरह से आई भी नहीं थी?
लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं

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