- किसी के परिजन नहीं ले रहे रुचि, तो किसी को पार्टी से नहीं मिल रहा महत्व
- विनोद उपाध्याय
मप्र में राजा-रजवाड़ों की तरह राजनीति में भी विरासत की लंबी परंपरा रही है। लेकिन प्रदेश के कई कद्दावर राजनेताओं की राजनीतिक विरासत को उनके परिजन बढ़ा और संभाल नहीं पाए। खासकर बुंदेलखंड के कई राजनीतिक परिवारों की विरासत या तो पतन की ओर जा रही है या पतन हो गया है। कई दशकों तक पुरखे विधायक और सांसद बनकर जनता की आवाज बनते थे और उनकी आवाजें विधानसभा के साथ लोकसभा और राज्यसभा में भी गूंजती थीं। आज उनका सूर्य एक तरह से अस्त होता दिख रहा है। ऐसा इसलिए कि दिग्गज नेता खुद मुख्य धारा से गायब हो गए हैं। उनके कुल के चिराग और नजदीकी रिश्तेदार भी सियासत में दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे हैं। मप्र सहित देशभर में इस समय भले ही राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद का विरोध किया जा रहा है, लेकिन कई क्षेत्रों में आज भी राजनीतिक विरासत कुछ लोगों के हाथ में है। लेकिन अब खुद कई दिग्गज और उनके परिवार या तो राजनीति में विफल हो रहे हैं या दूर हो रहे हैं। बुंदेलखंड के छतरपुर जिले के सत्यव्रत चतुर्वेदी के पिता बाबूराम चतुर्वेदी आजादी के बाद राज्य सरकार में मंत्री रहते हुए सदन में बुंदेलखंड का प्रतिनिधित्व करते थे। माता विद्यावती चतुर्वेदी भी खजुराहो से दो बार सांसद थी, वे विधायक भी रही हैं। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से निकटता और भरोसा विद्यावती की सबसे बड़ी पूंजी रही है। इसके बाद सत्यव्रत चतुर्वेदी पांच बार चंदला से विधायक चुने गए और खजुराहो से लोकसभा सांसद निर्वाचित हुए। वे राज्यसभा में भी थे। अब सत्यव्रत सक्रिय राजनीति से अघोषित संन्यास ले चुके हैं। वे छतरपुर से सटे गांव रिक्शा पुरवा स्थित अपने फार्म हाउस पर मौजूदा समय गुजार रहे हैं। बताना होगा कि पिछले 2018 के विधानसभा चुनाव में सत्यव्रत अपने पुत्र नितिन के लिए कांग्रेस से टिकट मांगते रहे थे। पार्टी ने उनके बेटे को दरकिनार कर भाई आलोक चतुर्वेदी को टिकट देकर एक प्रकार से परिवार में दरार डालने की कोशिश की थी। भाई को टिकट मिला और वे छतरपुर सीट से कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। इसके विपरीत कांग्रेस से बगावत करते हुए सत्यव्रत ने नितिन को सपा के टिकट पर राजनगर से चुनाव लड़ा दिया था। चुनाव में नितिन को बुरी तरह से पराजय के सामना करना पड़ा था। ।
कई गुमनामी की अंधेरे में पहुंच गए
खजुराहों से दो बार सांसद और फिर विधायक बनकर प्रदेश सरकार में कृषि मंत्री रहे रामकृष्ण कुसमारिया एक प्रकार से गुमनामी की अंधेरे में पहुंच गए हैं। अब उनके परिवार का कोई भी सदस्य उनकी राजनीतिक विरासत को आगे नहीं बढ़ा पा रहा है। पिछले चुनाव में जब उन्हें टिकट नहीं मिला, तो उन्होंने बगावत कर दी थी। तब माना जा रहा था कि उनके बेटे को टिकट मिलेगा, लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाया था। छतरपुर से बुंदेलखंड के ख्याति प्राप्त साहित्यकार श्रीनिवास शुक्ला के पुत्र उमेश शुक्ला विधायक रहे हैं। वर्ष 2018 और मौजूदा चुनाव में भी उन्होंने टिकट के लिए दावेदारी की। बावजूद इसके वे सफल नहीं हो सके। इस बार भी प्रयास के बाद उन्हें और उनके बेटे में से किसी को भी टिकट नहीं मिल सका। बुंदेलखंड में पूर्व विधायक शंकर प्रताप सिंह बुंदेला उर्फ मुत्रा राजा का नाम अपने दौर में प्रभावी कांग्रेस नेताओं में रहा है। मौजूदा समय में मुन्ना राजा की राजनीतिक विरासत एक प्रकार से खत्म होने की कगार पर है। इस बार में राजनगर सीट से खुद या बेटे को टिकट दिलाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सफलता नहीं मिली। वहीं खाटी बुंदेलखंडी कहे जाने वाले दिवंगत नेता कपूरचंद्र घुवारा की राजनीतिक विरासत एक प्रकार से विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। बड़ा मलहरा से दो बार के विधायक और अपने बेबाक बयानों से हमेशा चर्चाओं में रहे घुवारा के तीन पुत्रों में से कोई भी सक्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं है। अपनी नातिन वसुंधरा बुंदेला के हत्याकांड में फंसने के बाद दिवंगत भैया राजा के परिवार का सियासी वजूद भी अंधकार की ओर है। शिवराज सिंह चौहान के दूसरे कार्यकाल में भैयाराजा की पत्नी आशारानी सिंह विधायक थी। भैया राजा के हत्याकांड में फंसने और उसके बाद जेल में निधन होने के कारण 2018 के चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिला था। मौजूदा चुनाव में भैया राजा के बेटे भुवन विक्रम सिंह बिजावर से दावेदारी कर रहे थे, लेकिन टिकट नहीं मिला। बिजावर आशारानी की परंपरागत सीट रही है, क्योंकि सुंदरलाल पटवा शासन में उनके पिता जुझार सिंह इस सीट से विधायक थे। बड़ा मलहरा से विधायक रहे अशोक चौरसिया के चार पुत्र और तीन पुत्री में से कोई उनकी विरासत नहीं संभाल पाया है। छतरपुर के पूर्व विधायक जगदंबिका प्रसाद निगम जैसे नेता का अनुसरण उनके परिवार का कोई सदस्य नहीं कर पाया है। पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल बोरा के मंत्रिमंडल में रहे विठ्ठल भाई पटेल की विरासत संभालने वाला भी अब कोई नहीं है। उनके परिवार में किसी ने भी राजनीति में रुचि नहीं दिखाई। कांग्रेस शासन काल में मंत्री रहे टीकमगढ़ से रामरतन चतुर्वेदी की राजनीतिक विरासत का सफर एक प्रकार से अस्त हो चुका है, रामरतन के परिवार में भी उनके किसी भी बेटे ने राजनीति में आने की इच्छा नहीं जताई है। लगभग यही हाल समाजवादी नेता और निवाड़ी से कई बार के पूर्व विधायक स्व लक्ष्मीनारायण नायक का भी है।