मप्र में भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन

शासन-प्रशासन
  • सीएम डॉ. मोहन यादव की जीरो टॉलरेंस नीति…

करीब ढाई महीने के शासनकाल में मप्र के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने सुशासन, जीरो टॉलरेंस और लोकप्रियता की ऐसी मिसाल कायम कर दी है, जिसके आगे देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री बौने लगने लगे हैं। इसी कड़ी में मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन बनाने के लिए जो कदम उठाया है उसकी सर्वत्र सराहना हो रही है।

विनोद कुमार उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)।
मप्र में सुशासन और जीरो टॉलरेंस नीति पर काम कर रहे मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की ठानी है। इसके लिए उन्होंने अधिकारियों की एक समिति बनाकर भ्रष्टों की कुंडली बनाने का निर्देश दिया है। सरकार ने अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ लंबित विभागीय जांच के मामलों का एक साल में निराकरण करने को कहा है। गौरतलब है कि प्रदेश में करीब 5 हजार अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय जांच और आर्थिक अनियमितताओं के मामले लंबित हैं। प्रदेश में कई ऐसे भी मामले सामने आए हैं जिनमें डिपार्टमेंटल इन्क्वायरी के मामले ही 3-5 साल से चल रहे हैं। रिटारयमेंट हो गया, लेकिन जांच ही पूरी नहीं हुई, जिससे पेंशन रुक गई। अब इन मामलों के निराकरण की टाइम लिमिट ज्यादा से ज्यादा एक साल और कम से कम 5 महीने होगी।
जानकारी के अनुसार सबसे अधिक लोक निर्माण विभाग, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय विभाग, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, नगरीय प्रशासन विभाग, राजस्व विभाग, कृषि विभाग, शिक्षा विभाग, आबकारी, स्वास्थ्य एवं अन्य विभाग के मामले लंबित है। वरिष्ठ अधिकारी एवं जन प्रतिनिधियों से जुड़े मामले भी लंबित हैं। समीक्षा बैठक में इन पर चर्चा होगी। मंत्रालय सूत्रों ने बताया कि जांच एजेंसियों के जांच प्रस्ताव के बाद भी विभागों ने अलग जांच कराई है। मुख्यमंत्री कार्यालय के निर्देश पर सामान्य प्रशासन विभाग ने भ्रष्टों से जुड़े प्रकरणों को अगली समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के सामने रखने की पूरी तैयारी कर ली है। भ्रष्टाचार से जुड़े ये ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें जांच एजेंसी लोकायुक्त और ईओडब्यू ने जांच पूरी कर ली और अभियोजन स्वीकृति के लिए शासन (संबंधित विभाग) से अनुमति मांगी हैं, लेकिन अनुमति के इंतजार में भ्रष्टों के प्रकरण न्यायालय में पेश ही नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे सभी प्रकरणों पर मुख्यमंत्री जल्द ही बड़ा निर्णय ले सकते हैं। भ्रष्टाचार से जुड़े प्रकरणों की पिछली समीक्षा बैठक तत्कालीन शिवराज सरकार के समय विधानसभा चुनाव से पहले हुई थी। तब मुख्यमंत्री ने अभियोजन के मामले तत्काल निपटाने के निर्देश दिए थे, लेकिन विभागों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। अब एक फिर मुख्यमंत्री भ्रष्टों के लंबित प्रकरणों की समीक्षा करने जा रहे हैं। ऐसे मामलों के एक समिति गठित हैं। जिसमें मुख्यमंत्री समेत मंत्री भी हैं। हालांकि अभी बैठक की तिथि निर्धाधित नहीं हुई है। सामान्य प्रशासन विभाग के सूत्रों के अनुसार मुख्यमंत्री कभी भी बैठक बुला सकते हैं। जिसमें भ्रष्टों को लेकर कड़ा निर्णय लिया जा सकता है। प्रदेश में सभी तरह के निर्माण कार्यों की तकनीकी जांच के लिए गठित संस्था मुख्य तकनीकी परीक्षक (सीटीए) सतर्कता को लेकर भी फैसला होना है। क्योंकि बुंदेलखंड पैकेज घोटाले की जांच के बाद सीटीए का मप्र में अस्तित्व भी खत्म सा हो गया है। लंबे समय से सीटीए की नियुक्ति नहीं की गई। सरकार ने सीटीए पर ध्यान ही देना बंद कर दिया है। हालांकि संस्था में सीमित अलमा पदस्थ है। सीटीए को बंद करने या फिर फिर से ताकतवर बनाने पर भी फैसला होना है।

भ्रष्टों अफसरों की खुलेंगी दबी फाइलें
भ्रष्टाचार में फंसे अधिकारियों-कर्मचारियों के अभियोजन के मामलों को अब खुद मुख्यमंत्री सचिवालय देखेगा। दरअसल, विगत दिनों मुख्यमंत्री ने भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने का संकेत देते हुए ऐसे अफसरों की सूची बनाने का निर्देश दिया था। उसके बाद राज्य सरकार भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों के मामले में सख्त कदम उठाने की तैयारी में है। मुख्यमंत्री कार्यालय के निर्देश पर सामान्य प्रशासन विभाग ने भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों से जुड़े प्रकरणों को अगली समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के सामने रखने की पूरी तैयारी कर ली है। भ्रष्टाचार से जुड़े ये ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें जांच एजेंसी लोकायुक्त और ईओडब्यू ने जांच पूरी कर ली है और अभियोजन स्वीकृति के लिए शासन (संबंधित विभाग) से अनुमति मांगी है। लेकिन अनुमति के इंतजार में इन भ्रष्ट अधिकारियों- कर्मचारियों के प्रकरण न्यायालय में पेश ही नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे सभी प्रकरणों पर मुख्यमंत्री जल्द ही बड़ा निर्णय ले सकते हैं। गौरतलब है की प्रदेश में भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू में एफआईआर दर्ज है, लेकिन इन अफसरों के खिलाफ पिछले कई सालों से अभियोजन की मंजूरी ही नहीं दी गई है। इससे सरकार की जमकर किरकिरी हो रही है। इसलिए इस मामले को मुख्यमंत्री ने गंभीरता से लिया है और अभियोजन के मामलों को देखने का निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री सचिवालय के इस कदम से जहां भ्रष्टाचार के मामले में फंसे अफसरों की चिंताएं बढ़ गई हैं, वहीं लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू के अफसरों को उम्मीद है की अब जल्द से जल्द अभियोजन की स्वीकृति मिल जाएगी। बता दें कि कांग्रेस ने सरकार पर अनियमितता के दोषियों को बचाने के लिए अभियोजन की स्वीकृति न देने का आरोप कई बार लगाया है। इसके बाद मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने इसकी समीक्षा की थी, इसके बाद जीएडी ने भ्रष्टों की सूची बनानी शुरू कर दी है। जानकारी के अनुसार लोक निर्माण विभाग, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय विभाग, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, नगरीय प्रशासन विभाग, राजस्व विभाग, कृषि विभाग, शिक्षा विभाग, आबकारी, स्वास्थ्य एवं अन्य विभाग के मामले लंबित है। वरिष्ठ अधिकारी एवं जन प्रतिनिधियों से जुड़े मामले भी लंबित हैं। समीक्षा बैठक में इन पर चर्चा होगी। मंत्रालय सूत्रों ने बताया कि जांच एजेंसियों के जांच प्रस्ताव के बाद भी विभागों ने अलग से जांच कराई है।
भ्रष्टाचार से जुड़े प्रकरणों की पिछली समीक्षा बैठक तत्कालीन शिवराज सरकार के समय विधानसभा चुनाव से पहले हुई थी। तब मुख्यमंत्री ने अभियोजन के मामले तत्काल निपटाने के निर्देश दिए थे, लेकिन विभागों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। अब एक बार फिर मुख्यमंत्री भ्रष्ट अधिकारियों- कर्मचारियों के लंबित प्रकरणों की समीक्षा करने जा रहे हैं। ऐसे मामलों के लिए एक समिति गठित की गई है। जिसमें मुख्यमंत्री समेत मंत्री भी हैं। हालांकि अभी बैठक की तिथि निर्धाधित नहीं हुई है। सामान्य प्रशासन विभाग के सूत्रों के अनुसार मुख्यमंत्री कभी भी बैठक बुला सकते हैं। जिसमें भ्रष्ट अधिकारियों- कर्मचारियों को लेकर कड़ा निर्णय लिया जा सकता है। मुख्य तकनीकी परीक्षक पर होगा फैसला: प्रदेश में सभी तरह के निर्माण कार्यों की तकनीकी जांच के लिए गठित संस्था मुख्य तकनीकी परीक्षक (सीटीए) सतर्कता को लेकर भी फैसला होना है। क्योंकि बुंदेलखंड पैकेज घोटाले की जांच के बाद सीटीए का मप्र में अस्तित्व खत्म सा हो गया है। लंबे समय से सीटीए की नियुक्ति नहीं हो पाई है। सरकार ने सीटीए पर ध्यान ही देना बंद कर दिया है। हालांकि सीटीए को बंद करने या फिर से ताकतवर बनाने पर भी फैसला होना है।

जांच के लिए डेडलाइन तय
प्रदेश में भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारियों की विभागीय जांच के लिए डेडलाइन तय की गई है। इस संबंध में सामान्य प्रशासन विभाग ने आदेश जारी किया है। जिसमें कहा कि निर्धारित समय सीमा के अंदर जांच पूरी नहीं हो रही है। रिटायरमेंट से पहले ही कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय जांच पूरी करनी होगी। आदेश के मुताबिक, 30 जून तक सभी डिपार्टमेंटल एचओडी, सेकेट्री, पीएस और एसीएस जांच करेंगे। अफसर भी भ्रष्टाचारियों को नहीं बचा सकेंगे। यह जांच ऑनलाइन पोर्टल पर ही चलेगी। साल 2024 दिसंबर तक रिटायर होने वाले भ्रष्टाचार में लिप्त कर्मचारियों की जानकारी मांगी है। आपको बता दें कि 150 दिन में विभागीय जांच पूरी करने का नियम है। फिर भी जांच नहीं हो रही है। जिसके बाद सामान्य प्रशासन विभाग ने अफसरों को नया नियम जारी किया है। सभी विभागों को पत्र लिखकर तय समय पर जांच पूरी करने का आदेश दिया है। विभागीय जांच के प्रकरणों में की जा रही हीला-हवाली और देरी पर सामान्य प्रशासन विभाग ने विभाग प्रमुखों से नाराजगी जताई है। विभाग प्रमुखों से कहा गया है कि जांच के लिए जो समय सीमा है, उसी अवधि में जांच का काम पूरा होना चाहिए। साथ ही जांच करने वाले अधिकारी की नियुक्ति का काम भी समय पर करना होगा। जीएडी ने इसी के साथ विभिन्न विभागों में चल रहे विभागीय जांच के मामलों की रिपोर्ट भी मांगी है। सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा विभागीय जांच प्रकरणों का समय अवधि में निराकरण किए जाने को लेकर जारी निर्देश में कहा गया है कि मध्य प्रदेश सिविल सेवा वर्गीकरण नियंत्रण तथा अपील नियम 1966 के नियम 14 के अधीन मुख्य शास्ति अधिरोपित किए जाने की प्रक्रिया एक वर्ष की समय अवधि में पूरी करने की व्यवस्था है। इसी तरह लघु शास्ति के मामले में 150 दिन यानी 5 माह में जांच आवश्यक रूप से पूर्ण किए जाने के निर्देश हैं। शासन के संज्ञान में आया है कि इस समय सीमा का पालन नहीं किया जा रहा है। इसलिए विभागीय जांच प्रकरणों के निराकरण को लेकर राज्य शासन फिर निर्देश जारी कर रहा है ताकि नियमों के आधार पर जारी निर्देशों एवं समय अवधि का पालन सुनिश्चित किया जाए।
जारी निर्देश में कहा गया है कि जिन शासकीय सेवकों की सेवानिवृत्ति में एक वर्ष से कम का समय बकाया है उनके विभागीय जांच के प्रकरण दिन-प्रतिदिन सुनवाई करके सेवा निवृत्ति के पूर्व अथवा 30 जून 2024 के पूर्व जो भी पहले हो, समाप्त किए जाएं। वर्ग 3 और वर्ग 4 के शासकीय सेवकों के विभागीय जांच प्रकरणों के निराकरण की समीक्षा विभाग अध्यक्ष द्वारा तथा वर्ग एक एवं वर्ग 2 के अधिकारियों के विभागीय जांच प्रकरणों के निराकरणों की समीक्षा संबंधित अपर मुख्य सचिव, प्रमुख व सचिव द्वारा की जाए। प्रमुख सचिव सामान्य प्रशासन मनीष रस्तोगी द्वारा जारी निर्देश में यह भी कहा गया है कि सभी विभाग विभागीय जांच पोर्टल पर अनिवार्य रूप से ऑन बोर्ड हो जाएं तथा समस्त विभागीय जांच की कार्यवाही पोर्टल के माध्यम से ही की जाएं। सेवानिवृत्ति और दिसंबर 2024 तक रिटायर होने वाले शासकीय सेवकों के लंबित विभागीय जांच के प्रकरणों की जानकारी तय फार्मेट में एक हफ्ते में भेजने के निर्देश दिए गए हैं। विभागीय जांच को लेकर जो फार्मेट तैयार करने को कहा गया है उसमें कहा गया है कि विभागीय जांच के प्रकरण क्रमांक की जानकारी देने के साथ-साथ अपचारी अधिकारी और कर्मचारियों का नाम और पदनाम बताना होगा। साथ ही सेवानिवृत्ति की तारीख और विभाग की जांच शुरू होने की तारीख के बारे में भी जानकारी देनी होगी। इसके अलावा जांचकर्ता अधिकारी का नाम, पदनाम और उसकी आगामी पेशी की तारीख़ तथा आगामी पेशी पर होने वाली संभावित कार्यवाही के बारे में भी बताना होगा। जांचकर्ता अधिकारी द्वारा प्रतिवेदन प्रस्तुत करने का समय और संभावित तारीख के बारे में भी जानकारी देने के लिए कहा गया है। इसके अलावा अंतिम आदेश पारित करने का संभावित दिनांक भी बताने के निर्देश जीएडी के प्रमुख सचिव ने जांचकर्ता अधिकारियों को जारी किए हैं। विभागीय जांच चालू किए जाने के पूर्व जहां प्रारंभिक जांच आवश्यक है वहां अधिकतम तीन माह की समय सीमा में प्रारंभिक जांच पूरी करने के लिए कहा गया है। इसके अनुसार सक्षम अधिकारी द्वारा फ़ाइल में विभागीय जांच करने में एक हफ्ते में लिया जाना जरूरी होगा। आरोप पत्र जारी करने के लिए अधिकतम एक माह का समय तय किया गया है। इसके अलावा आरोपी कर्मचारी-अधिकारी से आरोप पत्र का उत्तर प्राप्त करने के लिए 7 दिन से एक महीने की समय अवधि तय है। उत्तर मिलने के बाद परीक्षण कर जांचकर्ता और प्रस्तुतकर्ता अधिकारी के नियुक्त करने का मामले में 7 दिन से एक महीने का समय तय किया गया है। जांच अधिकारी द्वारा जांच प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए मुख्य शास्ति की प्रक्रिया के मामले में अधिकतम 6 माह और लघु शास्ति की प्रक्रिया के मामले में अधिकतम 3 माह की समय अवधि तय की गई है। जांच प्रतिवेदन का परीक्षण एवं शास्ति पारित करने के लिए मुख्य शास्ति की खातिर अधिकतम तीन सप्ताह और लघु शास्ति के मामले में दो सप्ताह की समय सीमा तय की गई है। आयोग की मंत्रणा जहां आवश्यक हो, उसे प्राप्त होने के बाद अंतिम आदेश पारित करने के लिए अधिकतम दो सप्ताह का समय निर्धारित किया गया है।

शिकायतों की भरमार
प्रदेश में भ्रष्टाचार की शिकायतों की भरमार है। लोकायुक्त ने पिछले पांच साल में 76 अफसर-कर्मचारियों के यहां पड़े छापों की यही हकीकत है। 62 मामलों में अभी तक जांच ही चल रही है। जिन 6 मामलों की जांच पूरी हो गई, उनमें सरकार ने कोर्ट में केस चलाने की मंजूरी नहीं दी। बाकी 8 मामले कोर्ट में है। पिछले चार महीने में एक भी अधिकारी-कर्मचारी के यहां लोकायुक्त ने छापा नहीं मारा है। विधानसभा चुनाव के पहले से छापे की कार्रवाई रुकी हुई है। अब लोकसभा चुनाव के बाद ही लोकायुक्त की टीम मैदान में उतरेगी। आरटीआई एक्टिविस्ट अजय दुबे कहते हैं कि मप्र लोकायुक्त और लोकायुक्त संगठन पर जितने करोड़ रुपए का बजट खर्च होता है, उतना पैसा भी भ्रष्ट सरकारी अफसरों से वसूल नहीं हो पाता क्योंकि सजा का प्रतिशत बेहद कम है। इसके लिए वर्षों से जमे लोकायुक्त अफसर जिम्मेदार हैं। लोकायुक्त संगठन में भी विजिलेंस अफसर होना चाहिए। 2011 में मप्र सरकार द्वारा बनाए राजसात कानून के तहत भी भ्रष्ट अफसरों की संपत्ति राजसात नहीं हो रही है। लोकायुक्त संगठन में लंबे समय तक सेवाएं दे चुके रिटायर्ड एसपीएस देवेश पाठक बताते हैं कि लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो आर्थिक अपराध के मामलों में जांच के बाद कार्रवाई करने के अधिकार रखती हैं। इनके द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (1) (डी) में भ्रष्ट लोकसेवकों के विरुद्ध जांच के बाद कार्यवाही की जाती है। इस एक्ट में आरोपी के दोष सिद्ध होने के बाद चार से सात साल तक की सजा और जुर्माना दोनों के प्रावधान हैं। विधानसभा चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होने के बाद से अब तक मध्यप्रदेश में लोकायुक्त संगठन ने एक भी अधिकारी-कर्मचारी के यहां छापा नहीं मारा है। इस बारे में लोकायुक्त संगठन से जुड़े अफसरों का कहना है कि चुनाव के दौरान इस तरह की कार्रवाई से बचने की कोशिश होती है ताकि कोई राजनीतिक रंग न दिया जा सके। अभी लोकसभा चुनाव के लिए आचार संहिता लगने वाली है। लोकसभा चुनाव के बाद ही बड़ी कार्रवाई हो पाएगी। लोकायुक्त के पूर्व डीजी अरुण गुर्टू ने बताया कि ट्रैप केस की विवेचना में ज्यादा समय नहीं लगता क्योंकि आरोपी रंगे हाथ पकड़ा जाता है। इसमें वीडियो और अन्य सबूत भी होते हैं, जिससे जांच जल्दी पूरी हो जाती है। दूसरी तरह के मामले अनुपातहीन संपत्ति से जुड़े होते हैं। इसमें देखना होता है कि जिसके यहां छापा पड़ा, उसकी संपत्ति कहां-कहां है? संपत्ति कब खरीदी और तब उसकी आमदनी के स्त्रोत क्या थे? यही कारण है कि ऐसे मामलों की जांच में अपेक्षाकृत ज्यादा समय लगता है।
जानकारी के अनुसार प्रदेश में स्थिति यह है कि 24 विभागों के 90 कर्मचारियों के खिलाफ ईओडब्ल्यू में एफआईआर दर्ज है, लेकिन सरकार ने इन अफसरों के खिलाफ पिछले कई सालों से अभियोजन की मंजूरी ही नहीं दी है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके खिलाफ 2017 में मामला दर्ज हुआ, मप्र में 2 बार सरकार बदल गई, लेकिन इन अफसरों का कुछ नहीं बिगड़ा। पिछले साल सीएम शिवराज सिंह चौहान अचानक एक्शन में आ गए थे। औचक निरीक्षण करने लगे थे, मैसेज ये दिया था कि भ्रष्टाचार और लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। आपको ये भी जानकर बड़ी हैरानी होगी कि मप्र में साल 2021 में सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार में पकड़े जाने के मामले साल 2020 के मुकाबले 65 फीसदी तक बढ़ गए, लेकिन पूरे साल की भ्रष्टाचारी सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा जबकि इनमें से 200 सरकारी अधिकारी और कर्मचारी तो रिश्वत लेते पकड़े गए थे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भ्रष्टाचारियों पर मेहरबानी की ऐसी ही एक और कहानी बयां करते हैं। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 वो कानून है जिसकी अलग-अलग धाराओं के तहत भ्रष्टाचारियों पर एफआईआर दर्ज की जाती है। चाहे वो सीबीआई हो या फिर प्रदेशों में लोकायुक्त और एंटी करप्शन ब्यूरो। यानी भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई के लिए पूरे देश में एक कानून है। इस कानून की धाराओं में मामला दर्ज होने के बाद होता क्या है ? लोकायुक्त संगठन को ऐसे 280 अधिकारी कर्मचारियों के खिलाफ जांच शुरू करने का इंतजार है। इजाजत नहीं मिलने की वजह से भ्रष्टाचार के 15 केस 9 साल से लंबित हैं। सबसे ज्यादा नगरीय आवास और विकास विभाग के लगभग 31 मामले लंबित हैं। सामान्य प्रशासन विभाग और पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के 29-29 मामले लंबित हैं। वहीं राजस्व विभाग के 25 और स्वास्थ विभाग के 17 मामले लंबित हैं। अभियोजन स्वीकृति समय पर नहीं मिलने के कारण चार्जशीट पेश करने में देर हो रही है। वैसे नियम के अनुसार अधिकतम 4 महीने में अभियोजन की स्वीकृति मिलनी चाहिए।

रिटायर्ड भ्रष्ट अफसरों की फिर खुलेगी फाइल
मध्य प्रदेश में रिटायर्ड भ्रष्ट अफसरों की फाइल एक बार फिर खुलने जा रही है। जीरो टॉलरेंस की नीति पर मोहन सरकार ने एक और बड़ा फैसला लेते हुए इसके लिए चार सदस्यीय टीम गठित कर दी है। सामान्य प्रशासन विभाग में चार सीनियर आईएएस अधिकारियों को कमेटी में शामिल किया गया है। विभागीय जांच पर फैसला लेने के साथ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए कमेटी सिफारिश करेगी। सामान्य प्रशासन विभाग की तरफ से गठित कमेटी में विभाग के अपर मुख्य सचिव विनोद कुमार, नर्मदा घाटी विकास विभाग के अपर प्रमुख सचिव डॉ. राजेश राजौरा, राजस्व विभाग के प्रमुख सचिव निकुंज श्रीवास्तव, विधि विभाग के सचिव उमेश पांडव को सदस्य बनाया गया है। यह समिति एक सप्ताह में मुख्य सचिव को अपना प्रतिवेदन पेश करेगी। मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति का दावा किया जाता है। निर्देश भी जारी किए गए कि भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनाएं और उन पर ईओडब्ल्यू की छापेमार कार्रवाई की जाए, लेकिन निर्देशों पर अमल नहीं किया जा रहा है। स्थिति ऐसी है कि ईओडब्ल्यू में बड़े भ्रष्टाचार से जुड़े 44 मामलों की फाइलें धूल खा रही हैं। हालात ऐसे हैं कि जांच एजेंसी इन मामलों में 1 से 5 साल पहले जांच पूरी कर सबूत जुटा चुकी है। इनमें 105 आरोपी हैं, जिनमें ज्यादातर क्लास वन और टू स्तर के अफसर हैं, लेकिन 26 विभाग इन आरोपियों के खिलाफ अभियोजन शुरू करने की स्वीकृति नहीं दे रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 18 मामले नगरीय विकास एवं आवास विभाग के हैं। 7 केस सामान्य प्रशासन विभाग के हैं। अभियोजन की स्वीकृति न मिलने से जांच एजेंसी अदालत में आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट फाइनल नहीं कर पा रही है। उधर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग में 17 आरोपियों के खिलाफ 5 साल से चार्जशीट अटकी हुई है।
मध्यप्रदेश सरकार ने कर्मचारियों के खिलाफ लंबित विभागीय जांच के मामलों का एक साल में निराकरण करने को कहा है। गौरतलब है कि प्रदेश में करीब 5 हजार अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय जांच और आर्थिक अनियमितताओं के मामले लंबित हैं। प्रदेश में कई ऐसे भी मामले सामने आए हैं जिनमें डिपार्टमेंटल इन्क्वायरी के मामले ही 3-5 साल से चल रहे हैं। रिटारयमेंट हो गया, लेकिन जांच ही पूरी नहीं हुई, जिससे पेंशन रुक गई। अब इन मामलों के निराकरण की टाइम लिमिट ज्यादा से ज्यादा एक साल और कम से कम 5 महीने होगी। प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के मामलों में जांच संभाग आयुक्त और शासन स्तर पर की जाएगी और तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी के मामलों में प्रकरणों के निराकरण की जिम्मेदारी विभागाध्यक्ष की होगी। अभी सरकार के सामने यह बात आई है कि सामान्य से प्रकरणों में भी जांच पूरी नहीं हो पाई है। इसका असर काम पर पड़ रहा है। कर्मचारियों के निलंबन और शोकॉज नोटिस दिए जाने की वजह से वे काम नहीं कर पा रहे हैं। कर्मचारियों की कमी से जूझने की वजह से यह निर्णय लिया गया है। 1966 में बने सिविल सेवा नियम के अनुसार विभागीय जांच और अन्य मामलों में दोषी पाए जाने पर समय सीमा के भीतर प्रकरणों का निराकरण किया जाना है। अब सामान्य प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव मनीष रस्तोगी द्वारा विभागों को जारी सकुर्लर में समय सीमा में जांच करने को कहा गया है। विभागीय जांच में शासन स्तर पर निपटारा न होने से कर्मचारियों को कोर्ट में जाना पड़ रहा है। विभिन्न अदालतों में कर्मचारियों के 1 लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं। इन मामलों पर समय-समय पर कोर्ट भी सरकार को हिदायत देता रहा है कि राज्य सरकार इनका अपने स्तर पर निराकरण करे।

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