- प्रदेश में अभी से कवायद शुरु
- गौरव चौहान

प्रदेश में लगातार एक के बाद एक चुनाव हार रही कांग्रेस अब लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनावों में नए चेहरों पर दांव लगाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए अभी से कवायद शुरु कर दी गई है। हालांकि लोकसभा चुनाव के लिए अभी चार साल और विधानसभा चुनाव के लिए करीब साढ़े तीन साल का समय अभी है। इसमें भी भाजपा की राह पर चलते हुए कांग्रेेस पीढ़ी परिवर्तन भी करने जा रही है। इसके साथ ही कांग्रेस अब उन लोगों को भी पार्टी से जोडऩे की तैयारी कर रही है, जो सामाजिक रुप से न केवल प्रतिष्ठित माने जाते हैं , बल्कि बेहद लोकप्रिय भी हैं। इसके लिए सभी लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में रहने वाले ऐसे चेहरोंं की सूची तैयार करने का काम शुरु कर दिया गया है। दरअसल, अभी तक पार्टी अपने परंपरागत चेहरों या फिर उनकी पंसद के लोगों पर ही दाव लगाती आयी है। इसको लेकर हाल ही में दिल्ली में हुई पार्टी हाई कमान की बैठक में राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा भी सभी राज्यों के प्रभारियों से कह दिया गया है कि पदाधिकारी भी उन्हीं को बनाया जाए, जिनकी समाज में प्रतिष्ठा हो, लोगों के बीच उनकी पहचान हो। इसके बाद मध्य प्रदेश में भी पार्टी ने सभी 29 लोकसभा और लगभग पौने दो सौ विधानसभा सीटों, पर सर्वमान्य चेहरे की तलाश शुरू कर दी है। अब कांग्रेस सबसे पहले संगठन को मजबूत करेगी। यह प्रक्रिया राष्ट्रीय से लेकर प्रदेश और ग्राम पंचायत स्तर तक होगी। पीढ़ी परिवर्तन को लेकर कांग्रेस तब जागी है, जब भाजपा ने दो बार पीढ़ी परिवर्तन की प्रक्रिया पूरी कर चुकी है। ज्ञात हो कि प्रदेश में भाजपा 1985 से 1990 के दौर में पहली बार नई पीढ़ी को सामने लाई थी, तब से मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर से लेकर कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल जैसे मौजूदा नेता शामिल हैं। दूसरी बार हुए पीढ़ी परिवर्तन के बाद विष्णुदत्त शर्मा और डा. मोहन यादव जैसे चेहरे सामने लाए गए हैं। इस बीच कांग्रेस की वही पुरानी पीढ़ी ही मैदान में बनी हुई है। कांग्रेस की इस पीढ़ी को प्रदेश में साढ़े चार दशक का समय हो गया है। कमल नाथ और दिग्विजय सिंह से लेकर कांग्रेस के अधिकांश बड़े चेहरे तब से अब तक पार्टी के कर्ताधर्ता बने हुए हैं।
इसकी वजह से कांग्रेस को सबसे बढ़ा नुकसान उस पीढ़ी से हुआ है, जो इस बीच आयी थी। इसका ही नुकसान कांग्रेस को प्रदेश में हुए चुनावों में लगातार उठाना पड़ रहा है। इस बीच वाली पीढ़ी को अच्छे मौके नहीं मिलने की वजह से उसके बाद की पीढ़ी का न केवल पार्टी से मोहभंग हो गया , बल्कि बतौर उत्तराधिकारी वे या तो विरोधी दल भाजपा से जुड़ गए या फिर राजनीति से ही दूरी बना ली। इसके अलावा पीढ़ी परिवर्तन न होने से कांग्रेस को दूसरा बड़ा नुकसान यह हुआ कि सन 2000 के बाद पैदा हुई पीढ़ी, जो मतदाता भी बन गई, उसने प्रदेश में कांग्रेस की सरकार मात्र 15 महीने के लिए देखी। वह अनुभव भी उसका अच्छा नहीं रहा। इस दौरान कांग्रेस नए कार्यकर्ता भी तैयार नहीं कर पाई। सत्ता से दूर रहने के कारण उसका छात्र संगठन एनएसयूआई हो या युवा कांग्रेस, दोनों ही निष्क्रिय हो गए। यही वजह रही कि कांग्रेस में नए नेता नहीं उभर पाए। इस बीच गुटबाजी का भी ऐसा रोग लगा, जो लाइलाज होता चला गया। इसकी वजह से बड़े नेताओं ने अपने समर्थकों के अलावा किसी सामान्य कार्यकर्ता को आगे बढऩे का मौका ही नहीं दिया। दूसरी तरफ, भाजपा में आम परिवार से आए शिवराज और अब डा. मोहन यादव जैसे नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए।
दिल्ली में हुए मंथन के बाद समझ आ रहा है कि कांग्रेस ग्राम स्तर से लेकर देश की राजधानी तक नई पीढ़ी को जोडऩे का प्रयास करेगी। अब भले ही प्रदेश संगठन की कमान जीतू पटवारी और नेता प्रतिपक्ष की कमान उमंग सिंघार जैसे नेताओं के हाथों में आ गई है, लेकिन अभी भी पार्टी का संगठन चौथेपन में चल रहे नेताओं की छाया से मुक्त नहीं हो पा रहा है। अब देखना तो यह है कि कांग्रेस संगठन तैयार की गई रणनीति पर कितना अमल कर पाता है। फिलहाल भले ही संगठन की मजबूती पर जार देने के दावे कितने भी किए जा रहे हैं, लेकिन उस पर अमल होता अब तक मैदानी स्तर पर नहीं दिखाई दे रहा है।
गुटबाजी बड़ी समस्या
अगर प्रदेश में कांग्रेस को पुरानी स्थिति में लौटना है तो उसे गुटबाजी पर लगाम लगानी होगी। दरअसल कांग्रेस में प्रभावशाली बड़े नेताओं के अपने-अपने गुट हैं। यह गुट मैदानी स्तर तक हैं, जिसकी वजह से वे भाजपा की जगह कांग्रेस का अधिक नुकसान करते हैं। एक गुट दूसरे को आगे नहीं बढऩे देता हैं। फिर संगठन हो या कोई चुनाव। अगर गुटबाजी पर काबू पा लिया जाए तो कांग्रेस आधी मजबूत स्वत: हो जाएगी।
दिखना होगा भरोसा
मप्र में कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी दिक्कत उसके प्रदेश प्रभारी को लेकर बनी हुई है। हालत यह है कि एक प्रदेश प्रभारी बनता है। वह जब तक पार्टी नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं को पहचानता है और नए सिरे से योजना बनाकर काम शुरु करता है, तब तक उसको हटा दिया जाता है और नया प्रदेश प्रभारी नियुक्त कर दिया जाता है। अगर बीते कुछ सालों पर नजर डालें तो शायद ही ऐसा कोई प्रदेश प्रभारी रहा हो जो दो-तीन सालों तक प्रदेश में काम कर पया हो।