33 साल से कांग्रेस की जीत में बसपा बन रही है रोड़ा
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। चंबल की राजनीति में बसपा कांग्रेस के लिए विलेन का काम करती है। यही कारण है की चंबल अंचल के मुरैना-श्योपुर लोकसभा सीट पर कांग्रेस पिछले 33 साल से जीत का स्वाद चखने के लिए तरस रही है। मिशन 2024 में भी कांग्रेस को यही डर सता रहा है। इसलिए पार्टी अभी तक प्रत्याशी की घोषणा नहीं कर पाई है। दरअसल, कांग्रेस और बसपा दोनों पार्टियां एक दूसरे के प्रत्याशी की घोषणा का इंतजार कर रही हैं। गौरतलब है की कांग्रेस ने 25 सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है। मुरैना, ग्वालियर और खंडवा सीट पर जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों के आधार पर प्रत्याशी का चयन किया जाना है। बेहतर प्रत्याशी की खोज में जुटी कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी बसपा को लेकर है। बीते डेढ़ दशक से ऐसा हो रहा है कि कांटे की टक्कर में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ रहा है। तीन चुनाव से ऐसा हुआ है, कि कांग्रेस की जीत में बसपा रोड़ा बन जाती है, इससे कैसे पार पाई जाए? इस मंथन में कांग्रेस जुटी हुई है। जबकि मप्र में सबसे ज्यादा वोट बैंक वाले इस क्षेत्र से बसपा की निगाहें कांग्रेस के प्रत्याशी पर ही टिकी हैं, इसी कारण यहां का प्रत्याशी घोषित नहीं किया है।
बना बनाया खेल बिगाड़ देती है बसपा
अगर मुरैना-श्योपुर लोकसभा सीट के पूर्व परिणामों का आंकलन करें तो यह तथ्य निकलकर आता है कि लगभग हर बार बसपा कांग्रेस के खेल को बिगाड़ देती है। साल 2019 के चुनाव में भाजपा ने नरेंद्र सिंह तोमर को टिकट दिया था, तो बसपा से भिंड के कद्दावर नेता रामलखन सिंह टिकट ले गए। इसी बीच कांग्रेस ने रामनिवास रावत को मैदान में उतारा। बसपा से क्षत्रिय नेता मैदान में उतरने से भाजपा के नरेंद्र सिंह तोमर को नुकसान होना तय माना जा रहा था और रातों-रात हुआ यह कि बसपा ने रामलखन सिंह का टिकट काटकर उत्तर प्रदेश व हरियाणा सरकार में मंत्री रहे करतार सिंह भड़ाना को टिकट दे दिया।
करतार सिंह भड़ाना को 1.29 लाख वोट मिले और भाजपा के तोमर 1.13 लाख से ज्यादा मतों से जीत गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अनूप मिश्रा को मुरैना-श्योपुर सीट से उतारा और कांग्रेस ने डा. गोविंद सिंह को प्रत्याशी बनाया। कांग्रेस को मिलने वाले क्षत्रिय वोट तब बंट गए जब बसपा ने वृंदावन सिंह सिकरवार को उम्मीदवार बना दिया। वृंदावन सिंह चंबल के क्षत्रिय समाज में खासा प्रभाव रखते हैं, यह चुनाव परिणाम में भी दिखा जब डा. गोविंद सिंह न सिर्फ जीवन का पहला चुनाव हारे, बल्कि इस चुनाव में कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही। 2009 के चुनाव में भाजपा से नरेंद्र सिंह तोमर और कांग्रेस के रामनिवास रावत आमने-सामने थे। इस चुनाव में कांग्रेस को ब्राह्मण वोट के साथ जीत मिलने की आस जगी, तभी बसपा से बलवीर सिंह डण्डोतिया को मैदान में उतार दिया और 1.10 लाख से ज्यादा ब्राह्मण वोट के साथ कुल 1.42 लाख मत बलवीर सिंह ले गए। नतीजा यह रहा, कि कांग्रेस को एक लाख से ज्यादा वोटों से हार झेलनी पड़ी।
कहां फंसा है पेंच
मुरैना संसदीय सीट से 2019 में भाजपा के दिग्गज नेता नरेंद्र सिंह तोमर लड़े और जीते थे। वे मोदी कैबिनेट का हिस्सा भी रहे, लेकिन पिछले साल अचानक उन्हें विधानसभा के मैदान में उतार दिया गया। वे जीत गए और फिर मध्यप्रदेश विधानसभा के स्पीकर बना दिये गए। इस बार भाजपा ने उन्हीं के समर्थक शिवमंगल सिंह तोमर को प्रत्याशी बनाया है। अब यहां भी पेच फंसा हुआ है। कांग्रेस पार्टी का एक धड़ा यहां से ठाकुर के मुकाबले ब्राह्मण लड़ाना चाहता है। इसको लेकर सबसे प्रबल नाम जिले के जौरा क्षेत्र से एमएलए पंकज उपाध्याय का है, लेकिन पार्टी अंचल के क्षत्रीय वोटों को साधने के फेर में ठाकुरों को भी एडजस्ट करना चाहती है। यही वजह है कि यहां से पूर्व विधायक सत्यपाल सिंह सिकरवार नीटू का नाम भी विचार में हैं। माना जा रहा है कि इनमें से ही कोई एक नाम तय हो सकता है। मुरैना और ग्वालियर सीट पर बीएसपी भी नजर गढ़ाए बैठी है। हालांकि यहां बीएसपी जीतने की स्थिति में नहीं है, लेकिन यह पार्टी किसी का भी गणित बिगाडऩे लायक वोट अपने पास रखती है। उसके नेता जातीय गणित पर निगाह रखे हुए हैं। मुरैना में यदि दोनों पार्टियों ने ठाकुर ब्राह्मण पर दांव लगाया तो बहुजन समाज पार्टी किसी ओबीसी को उतारकर मुकाबले को रोचक बना सकती है।
दोनों की लड़ाई में भाजपा फायदे में
अगर विधानसभा चुनावों के परिणाम को देखा जाए तो ग्वालियर-चंबल अंचल में कांग्रेस मजबूत स्थिति में नजर आती है। लेकिन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और बसपा की लड़ाई में भाजपा फायदे में रहती है। यही कारण है कि मुरैना-श्योपुर लोकसभा सीट पर बीते 33 साल और सात चुनावों से भाजपा का कब्जा है। इस सीट पर साल 1991 में कांग्रेस के बारेलाल जाटव ने जीत दर्ज की थी, उसके बाद से कांग्रेस का कोई भी कद्दावर मुरैना से संसद तक का सफर नहीं कर पाया। इस सूखे को खत्म करने में कांग्रेस के तरकश के तीरों को भाजपा के साथ-साथ बसपा भी फेल कर रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मुरैना-श्योपुर सीट पर बसपा का प्रत्याशी तब सामने आता है, जब कांग्रेस का उम्मीदवार मैदान में आ जाता है। अगर बसपा ने पहले प्रत्याशी घोषित कर दिया तो कांग्रेस का प्रत्याशी सामने आने के बाद बसपा अपना उम्मीदवार भी बदल देती है, जो कांग्रेस के वोट कटवा साबित होता है और भाजपा के लिए फायदेमंद। इस बार भी हालात ऐसे ही हैं। बसपा वेट एंड वाच की हालत में है और कांग्रेस का प्रत्याशी सामने आने के बाद ही हाथी अपने महावत के साथ चुनावी रण में उतरेगा। इस बार कांग्रेस इस मायाजाल को कैसे तोड़े, इसके लिए मुरैना के अलावा ग्वालियर, भिंड और भोपाल के कुछ नेताओं को मंथन-चिंतन एवं तोड़ निकालने पर लगा दिया है।