इसी माह से शुरु किए जाएंगे आयोजन
गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में अब महज दस माह का समय ही रह गया है, ऐसे में भाजपा व कांग्रेस के अलावा अन्य छोटे क्षेत्रीय दल भी राजनैतिक बिसात बिछाने में जुट गए हैं। चूकि प्रदेश में दो दलीय राजनैतिक व्यवस्था ही अब तक रही है, यही वजह है कि कांग्रेस व भाजपा पर सभी की निगाहें लगी रहती हैं। ऐसे में आदिवासी वर्ग को साधने में जुटी भाजपा व कांग्रेस को इस वर्ग के दो राजनैतिक दलों से बड़ा झटका लग सकता है। इस वजह से अब दोनों ही दलों ने दलित वर्ग पर फोकस करने की रणनीति तैयार की है। यही वजह है कि अब नए साल के पहले ही महीने में जहां कांग्रेस ने बड़ा दलित सम्मेलन करने की योजना तैयार की है, तो वहीं भाजपा ने विधानसभा वार ऐसे ही सम्मेलन करने की तैयारी शुरू कर दी है। अपने इस चुनावी प्लान पर दोनों दलों ने जमीनी स्तर पर काम भी शुरू कर दिया है।
कांग्रेस अनुसूचित जाति विभाग को इस सम्मेलन के आयोजन का जिम्मा सौंपा गया है। दरअसल कांग्रेस जातीय समीकरण पर इस बार भी फोकस कर रही है। बीते चुनाव में भी इस फैक्टर पर काम किया गया था, जिसका फायदा कांग्रेस को मिला था और उसकी डेढ़ दशक बाद प्रदेश की सत्ता में वापसी हो गई थी। यही वजह है कि इसी के सहारे 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी जीत सुनिश्चित करने की उम्मीद लगा रही है। दूसरी तरफ फरवरी से बीजेपी विधानसभा वार अनुसूचित जाति वर्ग के सम्मेलन करेगी।
बीजेपी आलाकमान ने साफ कर दिया है कि प्रदेश की हर छोटी-बड़ी गतिविधियों को इसे ध्यान में रखकर किया जाए। राज्य की राजनीतिक स्थिति पर गौर करें तो विधानसभा की 230 सीटों में से 35 सीटें अनुसूचित जाति वर्ग के लिए हैं तो वहीं 29 लोकसभा सीटों में से चार सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं और कुल आबादी में से लगभग 15 फीसदी इस वर्ग से आती है। लिहाजा किसी भी राजनीतिक दल के हिस्से में आया यह वोट बैंक सत्ता का रास्ता आसान बना सकता है, इसीलिए दोनों राजनीतिक दल इस वर्ग में अपनी पैठ को और मजबूत करना चाहते हैं। वर्ष 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने इस वोट बैंक पर गहरी सेंध लगाई थी, अब भाजपा एक बार फिर वर्ष 2023 के चुनाव में इस वोट बैंक को अपने खाते में रखना चाहती है। यही कारण है कि दोनों राजनीतिक दलों में खींचतान तेज हो गई है। गौरतलब है कि 2018 के चुनाव में कांग्रेस को दलित वर्ग का भरपूर सहयोग मिला था, यही वजह है कि विशेषकर ग्वालियर चंबल अंचल में कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हुए विधानसभा की 34 सीटों में से 26 सीटों पर जीत दर्ज कर ली थी। कांग्रेस इस बार भी यही प्रदर्शन दोहराना चाहती है, लेकिन भाजपा भी अपना प्रदर्शन सुधारना चाहती है, ऐसे में दोनों दलों में अंदर खाने दलित वोट बैंक को साधने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। जिसके पीछे के सियासी मायने हम आपको बताने जा रहे हैं। दरअसल, ग्वालियर-चंबल अंचल में विधानसभा की 34 सीटें आती हैं, जिनमें से 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 34 में से 26 सीटें जीत ले गयी थी। खास बात यह है कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 7 सीटों में 6 सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया था, जबकि भाजपा को केवल 1 ही सीट मिली थी। हालांकि उस वक्त कांग्रेस के स्टार प्रचारक ज्योतिरादित्य सिंधिया का इसमें बड़ा योगदान था जो अब भाजपा में हैं। सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद यहां के समीकरण बदल गए। उपचुनाव के बाद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 7 सीटों में 5 सीटों पर भाजपा और 3 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। लेकिन फिर भी ग्वालियर चंबल की 34 सीटों में से कई सीटों पर दलित वोटबैंक सबसे अहम माना जाता है। ऐसे में इस इलाके के जातीय समीकरण अभी से भाजपा को बेचैन किए हुए हैं, जिसके चलते पार्टी यहां कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है।
भाजपा की नजर
ग्वालियर-चंबल अंचल की 34 सीटों पर लाखों की संख्या में दलित मतदाता है, 2018 में हुई 2 अप्रैल की जातिगत हिंसा के बाद दलित मतदाता भाजपा से छिटक गया था जिसका खामियाजा, 2018 में सरकार गंवा कर भुगतना पड़ा था, इससे पहले यह वोटर भाजपा से जुड़ा रहा, लेकिन 2 अप्रैल की हिंसा के बाद दलित मतदाताओं की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ी।
इसे लेकर भाजपा ने अब दलित मतदाताओं को साधने की तैयारी कर ली है, भाजपा दलित वर्ग के महापुरुषों की जयंती और पुण्य तिथि के बहाने इस वर्ग को अपने साथ लाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। भाजपा का संगठन और आरएसएस भी दलित वर्ग को साधने के लिए विशेष रणनीति तैयार कर रहा है। भाजपा का दावा है कि इस बार 2023 के इलेक्शन में दलित वर्ग किसी के बहकावे में नहीं आएगा वह विकास के लिए बीजेपी को वोट करेगा, यह वर्ग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान की जन हितेषी नीतियों पर भरोसा करेगा।
कांग्रेस भी तैयार
वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस भी अपने दलित चेहरों को आगे रखकर दलित वोट बैंक को सहेजने में जुटी हुई है, कांग्रेस का दावा है कि भाजपा दलित पिछड़ा आदिवासी और माइनॉरिटी की विरोधी है। कांग्रेस अनुसूचित जाति वर्ग और आदिवासी वर्ग के साथ साथ पिछड़े वर्ग के लोगों के बीच सम्म्ोलन कर उसे अपने साथ जोड़ने पर फोकस कर रही है।
मप्र में दलित वोटों का गणित
प्रदेश में अनुसूचित जाति वर्ग का बड़ा वोटबैंक है जो राज्य की 230 विधानसभा सीटों पर सीधा असर करता है। प्रदेश की 35 सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं, लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में इन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस में बराबर का मुकाबला रहा था। 35 अनुसूचित जाति वर्ग की 17 सीटों पर कांग्रेस और 18 सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव को देखा जाए तो 2018 के नतीजे भाजपा के लिए नुकसानदायक रहे थे। क्योंकि 2013 की तुलना में अनुसूचित जाति वर्ग की 10 सीटों का नुकसान भाजपा को हुआ था। जबकि कांग्रेस को फायदा। इसलिए दलित वर्ग को खुश रखना दोनों ही दल के लिए बेहद जरूरी है।
जयस व गोगापा की मुसीबत
बीजेपी ने जयस के प्रभाव को करने के लिए भी अपनी पार्टी के आदिवासी नेताओं को सक्रिय किया है। वहीं कांग्रेस को अब भी भरोसा है कि चुनाव तक जयस का साथ मिल जाएगा। इसके उलट इस आदिवासी संगठन जयस ने आदिवासियों के प्रभाव वाली 80 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है। इससे कांग्रेस ही नहीं बीजेपी को भी बड़ा झटका लगा, जिसके चलते दोनों दल जयस को काउंटर करने की रणनीति बना रहे हैं। जयस का प्रभाव मालवा न निमाड़ इलाके में है, तो वहीं महाकौशल में गोगापा भी बेहद प्रभावशाली है। वह भी चुनावी तैयारी में है। अगर यह दोनों दल चुनावी मैदान में साथ आ गए तो बड़ा चुनावी सियासी फेरबदल हो सकता है। उधर 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता की चाबी आदिवासियों के वोटों से ही मिली थी। 47 सीटों में से कांग्रेस को 30 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार यह कठिन दिख रहा है। यह खुद कांग्रेस भी जानती है। पीएम मोदी को प्रदेश में लाकर और जनजातीय गौरव दिवस मनाकर बीजेपी ने कांग्रेस के लिए कड़ी टक्कर देने का काम किया और इसका असर कुछ हद तक नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में देखने को भी मिला है।