- बीते चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में मतदान ने बढ़ाई है चिंता
भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। सूबे में एक समय तीसरी ताकत बन कर उभरने वाली बहुजन समाज पार्टी अब खुद के अस्तित्व की लड़ाई लड़ती दिखने लगी है। इसकी वजह है पार्टी का लगातार खराब प्रदर्शन और उसके समर्थक मतदाताओं का कांग्रेस के पक्ष में मतदान करना। यही वजह है कि अब बसपा के परंपरागत मतदाताओं पर भाजपा की नजर लग गई है। दरअसल भाजपा चाहती है कि बसपा के लिए मतदान करने वाले लोग भाजपा के साथ आ जाएं। इसकी वजह है प्रदेश में अगले साल होने वाले विस चुनाव में भाजपा के लिए अनुसूचित जाति वर्ग का साथ जितना जरुरी है उतना ही एससी का भी है। दरअसल प्रदेश में बीते चुनाव के पहले तक एससी वर्ग का साथ बसपा को मिलता रहा है, जिसकी वजह से ही प्रदेश में एक समय मिलने वाले मतों का आंकड़ा दो अंको तक पहुंच गया था , लेकिन उप्र में पार्टी कमजोर हुई तो उसका प्रभाव मप्र में भी पड़ा और उसका मत प्रतिशत कम होकर आधा यानि कि पांच प्रतिशत तक सिमट गया है। इसमें खास बात यह रही कि इस वर्ग का वोट भाजपा की जगह कांग्रेस के साथ चला गया , जिसकी वजह से ही बीते चुनाव में कांग्रेस इस वर्ग के लिए आरक्षित सीटों में से करीब आधी सीटें जीतने में सफल रही थी। फलस्वरुप डेढ़ दशक बाद कांग्रेस की प्रदेश की सत्ता में वापसी हो गई थी। उल्लेखनीय है कि बसपा ने वर्ष 1993 और 1998 के विधानसभा चुनावों में सर्वाधिक 11-11 सीटें जीतीं थीं। तब मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ एक राज्य हुआ करते थे। इसके बाद बसपा कभी इस स्थिति में नहीं पहुंच सकी। अलबत्ता ग्वालियर-चंबल और विंध्य क्षेत्र में पार्टी का खासा प्रभार बना रहा। पार्टी ने यहां भाजपा और कांग्रेस के खेल को बिगाड़ने का काम जरुर किया है।
यह जातियां बनी भाजपा के लिए चिंता
दरअसल प्रदेश में भाजपा के लिए वे जातियां चिंता की वजह बनी हुई हैं, जिन्हें बसपा की समर्थक माना जाता है। इनमें अहिरवार, चौधरी, साकेत और जाटव के अलावा पटेल भी शामिल हैं। प्रदेश में यह जातियां ही बसपा का परंपरागत वोट बैंक रही हैं। अब पार्टी के कमजोर होने पर इन जातियों द्वारा बसपा की जगह कांग्रेस का साथ देना शुरू कर दिया गया है। इस वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा ने अब तक जो भी प्रयास किए , वह असफल साबित हुए। इसमें भाजपा द्वारा इन जातियों के नेताओं को टिकट देना भी शामिल है , लेकिन वे भी नहीं जीत सके। प्रदेश में बसपा का प्रभाव खासतौर पर ग्वालियर-चंबल और विंध्य क्षेत्र में है। इसकी वजह है इन दोनों ही अंचलों में इन जातियों के मतदाताओं की अच्छी खासी संख्या है। यही वजह है कि अब भाजपा ने इन जातियों को साथ लाने के लिए छोटे-छोटे नेताओं को भाजपाई बनाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है।
दस सीटों का हुआ था कांग्रेस को फायदा
दरअसल प्रदेश में एससी वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 35 है। इन सीटों पर जिस दल की जीत होती है, उसके लिए सत्ता का रास्ता खुल जाता है। अब विधानसभा चुनाव में महज एक साल रहने की वजह से कांग्रेस व भाजपा दोनों ही इन जातियों में अपनी पैठ चाहती हैं। अगर बीते चुनावों पर नजर डालें तो 2013 में भाजपा ने इनमें से 28 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन इसके बाद 2018 के चुनाव में उसकी सीटें कम होकर 18 तक रह गईं। इसके उलट कांग्रेस की सीटों की संख्या बढ़कर 17 हो गई। दरअसल बसपा के पंरपरागत मतदाताओं ने बसपा से दूर होकर कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर दिया।
आधा दजर्न सीटों पर डाला प्रभाव
अगर बीते विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो भाजपा को 41.6 प्रतिशत और बसपा को 5.1 प्रतिशत वोट मिले थे। इसके दो साल बाद 28 विस सीटों पर हुए उपचुनाव में 49.46 प्रतिशत वोट पाकर भाजपा ने 19 सीटें जीत ली थी और बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था। बसपा को तब 5.75 प्रतिशत वोट मिले थे। भांडेर, जौरा, मल्हरा, मेहगांव और पोहरी जैसी सीटों पर उपचुनाव में कांग्रेस की हार की वजह बसपा रही। जौरा में बसपा-कांग्रेस के वोट प्रतिशत को मिला दें, तो यह भाजपा से 20 फीसदी अधिक हो जाता है लेकिन, वोट बंट जाने की वजह से भाजपा आसानी से जीत गई। बसपा के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2003, 2008 और 2013 के विस चुनावों में औसतन 69 सीट पर पार्टी का वोट शेयर 9 फीसदी से अधिक रहा है।