मिशन 29 का घमासान: मुद्दे गुम-मतदाता मौन
गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)। मप्र में चार चरणों में 29 लोकसभा सीटों पर चुनाव हो रहा है। पहले चरण की छह सीटों सीधी, शहडोल, जबलपुर, मंडला, बालाघाट और छिंदवाड़ा पर 67 फीसदी मतदान हुआ है। पिछली बार इन सीटों पर औसत 75 फीसदी वोटिंग हुई थी। इस लिहाज से करीब 8 फीसदी कम वोटिंग हुई है। सबसे कम 56.18 फीसदी वोटिंग सीधी में हुई, जबकि 2019 में यहां 69.50 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। शहडोल में भी 11 फीसदी कम वोटिंग हुई है। जबलपुर सीट में 60.52 प्रतिशत मतदान हुआ है, जबकि 2019 में यहां 69.43 प्रतिशत मतदान हुआ था। बालाघाट में 72.66 प्रतिशत मतदान हुआ है, 2019 की स्थिति में यहां 77.61 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। मंडला में 72.92 प्रतिशत वोटिंग हुई, 2019 में यहां मतदान 77.76 प्रतिशत हुआ था। सबसे ज्यादा 79.59 फीसदी वोटिंग छिंदवाड़ा में हुई। वोटिंग घटने से छिंदवाड़ा को लेकर सस्पेंस बरकरार है। वजह ये है कि यहां 2019 के मुकाबले लगभग 2.8 फीसदी वोटिंग कम हुई है। 2019 में यहां 82.39 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। कम मतदान की वजह गर्मी को दिया जा रहा है। लेकिन पिछली बार भी इसी तरह की गर्मी में चुनाव हुए थे। ऐसे में कम मतदान ने भाजपा और कांग्रेस के रणनीतिकारों को पसोपेस में डाल दिया है। राजनीतिक दलों और निर्वाचन आयोग की तरफ से पूरी ताकत लगाने के बाद भी मतदान प्रतिशत 2019 के चुनाव के मुकाबले काफी कम रहा। अब राजनीतिक दल इस बात से घबराए हुए हैं कि आखिर 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 2024 में हुए चुनाव में मतदान प्रतिशत 8 प्रतिशत कम वोटिंग क्यों हुई? भाजपा ने तो हर बूथ पर अपने कार्यकर्ताओं को अलर्ट पर रखा था। बाइक सवारों का दल बनाया गया था। मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने के लिए बाकायदा पीले चावल दिए गए थे। बावजूद इसके शाम तक हुई वोटिंग के बाद भी मतदान प्रतिशत घट गया। प्रदेश की 6 सीटों में 67.08 प्रतिशत मतदान हुआ है, जो कि पिछले 2019 के चुनाव की तुलना में करीब 8 कम है। चिंताजनक बात यह है कि मध्य प्रदेश की सभी छह लोकसभा सीटों में पिछले चुनाव के मुकाबले कम मतदान हुआ है।
भाजपा के लिए नाक का सवाल बनी छिंदवाड़ा लोकसभा सीट में कम मतदान होना पार्टी नेताओं को चौंका रहा है। छिंदवाड़ा में पूर्व में हुए चुनाव का आंकलन किया जाए तो पता चलता है कि जब-जब इस क्षेत्र में मतदान बढ़ा है तो भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन इस बार कम मतदान होने से भाजपा संशय में है। 2009 में 71.86 फीसदी मतदान हुआ था, कांग्रेस जीती थी। 2014 और 2019 के आम चुनाव मतदान प्रतिशत बढ़ा तो कांग्रेस की जीत का अंतर कम हुआ। 2014 में कांग्रेस के कमलनाथ 1 लाख 16 वोटों से जीते थे। लेकिन 2019 में कांग्रेस के नकुल नाथ ने महज 37 हजार वोट के अंतर से बड़ी मुश्किल से जीत पाए थे। इस बार चुनाव में 2.5 फीसदी वोटिंग कम हुई है। अगर पुराने आंकलन सही साबित होते हैं तो यह खबर भाजपा के लिए कतई अच्छी नहीं है। छिंदवाड़ा में इस बार 79.18 प्रतिशत मतदान हुआ जबकि 2019 में 82.42 प्रतिश्ता मतदान हुआ था। सीधी में 2019 के मुकाबले 14 फीसदी कम, शहडोल में भी 11 फीसदी कम वोटिंग हुई है। इसी प्रकार मंडला की बात की जाए तो यहां 5 फीसदी कम मतदान हुआ है। जबलपुर लोकसभा में लोकसभा में 9 फीसदी कम वोटिंग हुई। आदिवासी क्षेत्र सिहोरा में सबसे ज्यादा 65 प्रतिशत मतदान हुआ है। बालाघाट में भाजपा उम्मीदवार भारती पारधी का मुकाबला कांग्रेस सम्राट सिंह सरस्वार और बसपा के कंकर मुंजारे से है। यहां मतदान भले ही तीन से चार प्रतिशत कम हुआ हो लेकिन अभी भी भाजपा यहां संतुष्ट दिखाई दे रही है। राजनीतिज्ञों का कहना है कि कंकर मुंजारे ने कांग्रेस के वोट काटे होंगे ऐसा कहा जा सकता है। शहडोल लोकसभा की बात करें तो यहां 10 फीसदी कम वोटिंग हुई। इससे कांग्रेस में उत्साह दिख रहा है। संभावित है कि भाजपा की मौजूदा सांसद हिमाद्री सिंह की जीत का मार्जिन कम हो सकता है।
स्थानीय मुद्दे और समीकरण हावी
इस बार का आम चुनाव वादों और दावों की जगह गारंटी और भरोसे का है। हालांकि पहले चरण का मतदान संपन्न हो गया है, इसके बावजूद केंद्रीय मुद्दों और प्रभावी नारों के अभाव में चुनाव प्रचार में उफान नहीं दिख रहा। शांत मतदाता न तो गारंटी की ओर भरोसे से देख रहे हैं और न ही भरोसे पर गारंटी देने का संकेत दे रहे हैं। न तो किसी मुद्दा विशेष पर देश में बहस छिड़ी है और न ही कोई ऐसा नारा है, जो लोगों की जुबान पर चढ़ा हो। हालांकि भाजपा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन के साथ कई क्षेत्रीय दल अपने-अपने मुद्दों को केंद्र में लाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। विपक्षी गठबंधन केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरुपयोग, चुनावी बॉन्ड और केंद्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना के मुद्दे को तूल देने की कोशिश कर रहा है। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और अध्यक्ष जेपी नड्डा लगातार जनसभाएं कर रहे हैं। इनकी कोशिश केंद्रीय योजनाओं के कारण आए सकारात्मक बदलाव और हिंदुत्व से जुड़े राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद-370 का खात्मा, सीएए जैसी उपलब्धियों को मुद्दों के केंद्र में लाने की है। चुनाव प्रचार के उफान पर न आने का सबसे बड़ा कारण मुद्दों को लेकर विपक्ष में निरंतरता प्रदर्शित करने का अभाव है। खासतौर से विपक्षी गठबंधन बनने के बाद भी विपक्ष मैदान में खुलकर उतरने के बदले सीट बंटवारे की गुत्थी सुलझाने में ही उलझा है। भले ही यह गठबंधन दो बार एक मंच पर आने में सफल रहा है, मगर राहुल गांधी, प्रियंका गांधी या कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे मोदी, शाह, नड्डा की तुलना में बहुत कम जनसभाओं को संबोधित कर रहे हैं।
भाजपा का 370 सीटें जीतने का दावा
2019 का आमचुनाव इस चुनाव से बिल्कुल अलग था। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पूर्व ही सियासी मैदान भ्रष्टाचार बनाम राष्ट्रवाद का रूप ले चुका था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर चौकीदार चोर है, के नारे लगवा रहे थे, जबकि भाजपा पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ हुई एयर स्ट्राइक को मोदी है तो मुमकिन है नारा लगा रही थी। राफेल मामले में पीएम पर व्यक्तिगत हमले को भाजपा गरीब पर हमले से जोड़ रही थी। इन दोनों ही मुद्दों पर तब राष्ट्रव्यापी चर्चा शुरू हो चुकी थी। घर घर गारंटी अभियान की शुरुआत कर चुकी कांग्रेस पहली नौकरी पक्की, भर्ती भरोसा, पेपर लीक मुक्ति, गिग वर्कर सुरक्षा और युवा रोशनी गारंटी के रूप में अलग-अलग वर्गों को साधने की कोशिश की है। इसके अलावा पार्टी ने महिला, किसान, श्रमिक और हिस्सेदारी न्याय के तहत अलग-अलग वर्गों के लिए कई वादे किए हैं। हालांकि पार्टी का घोषणा-पत्र अब तक जारी नहीं हुआ है। एनडीए के लिए अबकी बार चार सौ पार, तो अपने लिए 370 सीटें जीतने का दावा कर रही भाजपा ने मतदाताओं को साधने के लिए ब्रांड मोदी को हथियार बनाया है। पार्टी युवाओं के विकास, महिलाओं के सशक्तीकरण, किसानों के कल्याण और हाशिये पर पड़े कमजोर लोगों के सशक्तीकरण के लिए मोदी गारंटी दे रही है। जबकि विकसित भारत के निर्माण और देश की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने की गारंटी दे रही है। किसी एक मुद्दे को केंद्र में लाने की सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबंधन की तमाम कोशिशें सिरे नहीं चढ़ी हैं। विपक्षी गठबंधन के नेता लालू प्रसाद की पीएम मोदी पर व्यक्तिगत टिप्पणी के खिलाफ भाजपा ने मोदी का परिवार अभियान चलाया। भाजपा इंदिरा सरकार के समय तमिलनाडु से सटे कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को दिए जाने के मुद्दे पर आक्रामक है। वहीं, विपक्षी गठबंधन कभी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग, कभी चुनावी बॉन्ड में भ्रष्टाचार, तो कभी केंद्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव मुद्दा विहीन रहा, तो हार-जीत तय करने में स्थानीय मुद्दे अहम भूमिका निभाएंगे। जो दल स्थानीय समीकरण साधेगा, चुनाव प्रबंधन बेहतर होगा, वह बाजी मार लेगा। विश्लेषक इसके लिए पांच राज्यों के हालिया विधानसभा चुनाव का उदाहरण देते हैं। कर्नाटक और तेलंगाना में भ्रष्टाचार मुद्दा था, जबकि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान करीब-करीब मुद्दाविहीन था। इस कारण कर्नाटक व तेलंगाना में सत्ता बदली, जबकि तीन राज्यों में भाजपा ने बेहतर प्रबंधन से बाजी मार ली।
मौन मतदाताओं ने बढ़ाई परेशानी
मतदाता जब चुप होता है तो उसके मन की थाह लगाना आसान नहीं होता। सोशल मीडिया के मंचों को छोड़ दें तो आज का मतदाता दशक-डेढ़ दशक के मतदाताओं की तुलना में कहीं ज्यादा सयाना हो चुका है। ज्यादातर मतदाताओं की राजनीतिक दलों को लेकर अपनी पसंद और नापसंद है। चूंकि उसके पास अब सूचनाओं और जानकारी के कई संसाधन मौजूद हैं, लिहाजा वह पहले के वोटरों की तुलना में जानकारियों से कहीं ज्यादा लैस है। आज तकरीबन सबके हाथ में मोबाइल के रूप में जादुई बक्सा आ गया है, जिसके जरिए मनोरंजन और सूचनाओं की अबाध बारिश हो रही है, इसलिए आज का मतदाता पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सूचनाओं से लैस है। हां, एक खतरा जरूर है कि सोशल मीडिया माध्यमों के जरिए फेक न्यूज और जानकारियां भी आ रही हैं, इसलिए कुछ मतदाताओं की सोच इसकी वजह से भी प्रभावित है। लेकिन मोटे तौर पर कह सकते हैं कि आज का मतदाता पहले की तुलना में कहीं ज्यादा जागरुक हो गया है, इसलिए वह कहीं ज्यादा सचेत भी है। वैसे जब भारत में साक्षरता कम थी, तब भी मतदाता बेहद जागरूक था। इसका उदाहरण है, 1967 का चुनाव। तब तक देश में विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते थे। तब मतपत्र पेटियों में डाला जाता था। विधानसभा और लोकसभा चुनाव की मतपेटियां साथ-साथ रखी जाती थीं। बेशक विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग मतपत्र होते थे। उस चुनाव में मतदाताओं ने उत्तर और पूर्वी भारत समेत आठ राज्यों की विधानसभा में कांग्रेस को हरा दिया था, जबकि लोकसभा के लिए कांग्रेस को ही समर्थन दिया था। तब से लेकर अब तक साक्षरता दर बढ़ चुकी है। आज अस्सी फीसद से ज्यादा लोग साक्षर हैं, सूचना और संचार के कई साधन है, लिहाजा वोटर भी ज्यादा सचेत है। तो क्या यह मान लिया जाये कि वोटरों में उत्साह की कमी या उनकी चुप्पी की वजह मतदान और राजनीति को लेकर उपजा मोहभंग है या फिर कुछ और। भारतीय मतदाता के स्वभाव की ऐतिहासिक परख करें तो मोहभंग की स्थिति नहीं है। आमतौर पर मतदाताओं में ऐसी सोच तब आती है, जब उसे लगता है कि राजनीतिक यथास्थिति बदलने नहीं जा रही। ऐसी सोच सरकार विरोधी और समर्थक दोनों तरह के मतदाताओं की हो जाती है। समर्थक मान चुका होता है कि उसकी पसंदीदा मौजूदा सरकार पर कोई खतरा नहीं है तो वह चुप्पी साधने और हालात पर पैनी निगाह बनाए रखने की कोशिश करता है। वहीं सरकार विरोधी मतदाता को लगने लगता है कि उसकी कोशिश से भी बदलाव नहीं होने जा रहा तो वह मुखर होकर सरकार समर्थकों से वैर मोलने से परहेज करने लगता है। कई बार मतदाताओं की चुप्पी के पीछे राजनीतिक दलों को सबक सिखाना भी होता है। तब समझदार मतदाता सोच रहा होता है कि वक्त पर सबक सिखाएंगे, तब तक चुप्पी साधे रखना है। सवाल यह है कि मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान मतदाताओं की प्रतिक्रियाहीनता के लिए पहली स्थिति जिम्मेदार है या फिर दूसरी स्थिति। मतदाताओं के मन को भांपने की कोशिश करने वाले जानकारों का मानना है कि चुप्पी के ज्यादातर मामलों में पहली ही स्थिति जिम्मेदार है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में ज्यादातर जगहों पर विपक्ष चुनाव लडऩे की बजाय रस्म निभाते दिख रहा है, इसलिए उसके समर्थक मतदाता ने चुप्पी साध ली है, वहीं सरकार समर्थक मतदाता मान कर ही चल रहा है कि मोदी के सामने कोई खड़ा नहीं है, इसलिए वह निश्चिंतता में चुप्पी साधे हुए है। लेकिन इस प्रक्रिया में खतरा भी है। विशेषकर सत्ता पक्ष के लिए ऐसे खतरे ज्यादा होते हैं। ऐसी चुप्पी के दौरान मतदाता मान लेता है कि वह जाए या ना जाए, उसकी पसंदीदा सरकार को वोट मिल ही रहे हैं। 2004 में ऐसी ही मानसिकता थी। ज्यादातर मतदाता अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का समर्थक था, लेकिन स्थानीय स्तर पर चुप था। हां, कुछ क्षेत्रों के मतदाता वाजपेयी की पार्टी और समर्थक वाले सांसदों से निराश जरूर थे, इसलिए उन्होंने वाजपेयी के बजाय स्थानीय सांसद को सबक सिखाने के अंदाज में मतदान किया। जिसका असर हुआ कि वाजपेयी की लोकप्रियता के बावजूद उनकी सरकार नहीं लौट पाई।
चुनाव प्रचार पर मेहनत कर रहे मोदी
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को शायद 2004 का वाकया याद है, इसीलिए उसने जानफूंक रखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो आखिरी दम तक अपनी कोशिश जारी रखते हैं। इसलिए 73 साल में भी वे जहां सरकारी कामकाज जितनी मुस्तैदी से निबटा रहे हैं, उतनी ही मेहनत चुनाव प्रचार पर कर रहे हैं। उनका साथ भाजपा के यूं तो सारे स्टार प्रचारक दे रहे हैं। लेकिन अमित शाह ने भी अपने तरकश को तमाम तरह के तीरों से सजा लिया है और लगातार चुनावी तीर से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं विपक्षी हमलों की मिसाइल को धाराशायी करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी कोशिशें विपक्षी नेताओं की तरफ से भी हो रही है। लेकिन उनका आक्रमण देखकर ऐसा नहीं लग रहा कि वे प्रधानमंत्री मोदी से सरकार छीनने की लड़ाई लड़ रहे हैं, बल्कि वे मोदी की ताकत को सीमित करना चाहते हैं। मतदाताओं की चुप्पी को मोदी और अमित शाह ने जहां अपने लिए मौके के रूप में लिया है, वहीं विपक्ष की ओर से ऐसा लगता है कि वह रस्म निभा रहा है। मतदाता भले ही मौन रहें, लेकिन वोटिंग केंद्र पर ईवीएम का बटन दबाते वक्त उनकी चुप्पी टूटनी ही चाहिए। चुनाव आयोग लोकतंत्र के हित में इस चुप्पी को तोडऩे के लिए लगातार अभियान चला रहा है, वहीं प्रधानमंत्री मोदी एक और कार्यकाल मांगने के लिए मतदाताओं के मन की गांठ खोलने में जुटे हैं। अमित शाह लगातार उनका साथ दे रहे हैं। जबकि विपक्षी मोर्चे की ओर से मोदी-शाह जैसी तेज कोशिश कम नजर आ रही है। किसकी कोशिश कितनी कामयाब रहेगी, इसका पता तो चार जून को नतीजों के साथ चलेगा। लेकिन इतना तय है कि मतदाता अगर चुप रह गया तो लोकतंत्र का सबसे ज्यादा नुकसान होगा।
8 फीसदी कम मतदान… रणनीतिकार हलाकान
मप्र की सभी 29 लोकसभा सीट जीतने के लिए भाजपा ने हर बूथ पर 370 वोट बढ़ाने का टारगेट तय किया है। लेकिन वोट बढऩा तो दूर की बात है, बल्कि वोट कम हो गया। पहले चरण में पिछली बार की अपेक्षा इस बार 8 फीसदी कम मतदान हुआ है। इस बीच भाजपा की चिंता प्रदेश के वे 7 हजार 526 पोलिंग बूथ हैं, जहां भाजपा पिछले 16 साल से लगातार हार रही है। इन बूथ के लिए पार्टी ने खास रणनीति बनाई है। इसमें कांग्रेस समर्थित सरपंच से लेकर कांग्रेस के अन्य कार्यकर्ताओं को टारगेट पर रखा गया है कि इन्हें भाजपा के पक्ष में वोट करने के लिए राजी किया जाए। पार्टी ने विधानसभा चुनाव के रिजल्ट के बाद से ही लोकसभा की सभी 29 सीटें जीतने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया था। इसी के तहत प्रदेश की सभी बूथ पर हुई वोटिंग के ट्रेंड पर रिपोर्ट तैयार की गई। इस रिपोर्ट में उन मतदान केंद्रों की विधानसभावार सूची भी है जहां 2008 में हुए परिसीमन के बाद से पार्टी बढ़त नहीं ले पाई। इनमें सीएम डॉ. मोहन यादव की उज्जैन दक्षिण सीट के 16 बूथ, पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान की बुधनी के 6, पूर्व गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा के 23 और विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर की दिमनी सीट के 44 बूथ भी शामिल हैं। भाजपा के प्रदेश महामंत्री भगवान दास सबनानी का कहना है कि ऐसे बूथों पर माइक्रो लेवल पर कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की गई है। हर बूथ पर अर्ध पन्ना प्रभारी बनाए गए हैं। इसके अलावा पार्टी ने उन सीटों का भी आकलन किया है जहां कांग्रेस छोडकऱ भाजपा में आने वाले नेताओं के प्रभाव का फायदा उठा सकती है। ऐसी 8 लोकसभा सीटें हैं। चार विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आधे से ज्यादा बूथों पर भाजपा पिछले 4-5 चुनावों से हारते आ रही है। भाजपा सूत्रों की मानें तो ये बूथ ऐसे हैं जहां 2008 के परिसीमन के बाद भाजपा जीत ही नहीं सकी। सिवनी जिले की लखनादौन विधानसभा में करीब 396 मतदान केंद्र हैं। इस विधानसभा में 169 पोलिंग बूथ ऐसे हैं, जहां भाजपा पिछले 5 चुनावों में कभी नहीं जीत सकी। लखनादौन विधानसभा में 2013 से लगातार कांग्रेस के योगेंद्र सिंह बाबा विधायक चुने जा रहे हैं। धार जिले की कुक्षी विधानसभा में करीब 270 मतदान केंद्र हैं। इस विधानसभा में 160 पोलिंग बूथ ऐसे हैं जो भाजपा पिछले 4-5 चुनावों में कभी नहीं जीत सकी। इस सीट पर कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह हनी बघेल 2013 से लगातार चुनाव जीत रहे हैं। डिंडोरी विधानसभा क्षेत्र में 300 से ज्यादा मतदान केन्द्र हैं। भाजपा पिछले 4-5 चुनावों में इस विधानसभा क्षेत्र के 144 बूथ नहीं जीत सकी। इस सीट पर कांग्रेस के ओमकार सिंह मरकाम लगातार चार बार से चुनाव जीत रहे हैं।
आदिवासी वोटर निर्णायक
प्रदेश में जिन आठ लोकसभा सीटों पर सबसे आखिर में मतदान होना है, वे मालवा-निमाड़ की हैं। 2019 में यह सभी भाजपा ने जीती थीं। इस बार भाजपा ने आठ में से दो सीट (धार और झाबुआ) में उम्मीदवार बदले है। कारण साफ है कि यहां विधानसभा चुनाव में जैसी जीत की उम्मीद थी, वैसी नहीं मिली। इंदौर और देवास-शाजापुर ही ऐसी लोकसभा सीट थी जहां 8 की 8 विधानसभा सीटें भाजपा जीती। धार, झाबुआ-रतलाम और खरगोन में तो पार्टी को संख्या के आधार पर पीछे या बराबरी पर रहना पड़ा था। इसीलिए अब इन तीनों सीटों पर ही भाजपा और संघ का जोर है। इन्हीं सीट पर आदिवासी वोटर बड़ी संख्या में हैं। पिछले दिनों इंदौर आए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इंदौर क्लस्टर में इन्हीं तीन सीट पर डिटेल में चर्चा की। उम्मीदवारों से व्यक्तिगत चर्चा की और विधानसभा चुनाव के आंकड़े देखकर चिंता भी जताई। क्लस्टर प्रभारी और उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा के साथ तीन अन्य मंत्रियों (विजय शाह, निर्मला भूरिया और नागर सिंह) को जिम्मेदारी भी दी। इन तीन सीटों पर जयस का भी प्रभाव है। खरगोन की सेंधवा और धार की मनावर सीट पर जयस समर्थित विधायक हैं। नड्डा यह भी पड़ताल करके आए थे कि इन सीटों के मतदाता रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों में रहते हैै। उन्हें वोटिंग के लिए कैसे बुलाया जाए। कांग्रेस को इन सीटों पर नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार, पूर्व मंत्री सचिन यादव, बाला बच्चन और कांग्रेस विधायकों पर ही भरोसा है। 2019 के चुनाव में इंदौर में भाजपा 5.47 लाख से, देवास-शाजापुर में 3.72 लाख, मंदसौर-नीमच में 3.76 लाख, उज्जैन में 3.63 लाख और खंडवा में 2.73 लाख से जीती थी। जबकि खरगोन-बड़वानी में 2.02 लाख, धार में 1.56 लाख और रतलाम- झाबुआ में मात्र 90,636 वोट से भाजपा प्रत्याशी जीते थे। इसलिए इन तीन सीटों पर भाजपा का खास फोकस है। यहां पिछले 10 लोकसभा चुनाव में 8 बार कांग्रेस से सांसद बने तो 2 बार भाजपा से। पहली बार कांग्रेस से ही भाजपा में आए दिलीप सिंह भूरिया तो दूसरी बार 2019 में जीएस डामोर यहां से जीते। इस बार उनका टिकट काटकर भाजपा ने अनीता नागरसिंह को मौका दिया है। विधानसभा चुनाव में यहां चार सीटों पर भाजपा, तीन कांग्रेस और एक पर भारतीय आदिवासी पार्टी ने जीत दर्ज की थी। यहां कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया को जिताने के लिए उनके विधायक बेटे विक्रांत भूरिया ने यूथ कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद भी छोड़ दिया है। भाजपा प्रत्याशी के लिए उनके पति मंत्री नागरसिंह चौहान जुटे है। पिछले 10 लोकसभा चुनाव में 6 बार कांग्रेस और 4 बार भाजपा जीती। 2023 के विधानसभा चुनाव में 8 में से पांच सीटें कांग्रेस और तीन पर भाजपा जीती। भाजपा ने यहां से पूर्व कांग्रेस सांसद गजेंद्र राजूखेड़ी को भाजपा में शामिल कर लिया है और सांसद छतरसिंह दरबार का टिकट काटकर पूर्व सांसद सावित्री ठाकुर को फिर टिकट दिया है। हालांकि ठाकुर का विरोध भी हो रहा है। यहां भाजपा का पूरा जोर धार, मनावर, महू विस क्षेत्र से ज्यादा से ज्यादा वोट लेने का है। महू में कांग्रेस से लड़े भाजपा नेता रामकिशोर शुक्ला की भी वापसी हो चुकी है। यहां भी आदिवासी वोटर निर्णायक हैं। पश्चिमी निमाड़ की इस प्रमुख सीट पर वैसे तो भाजपा का कब्जा रहा है। पिछले 10 चुनाव में 8 बार भाजपा का सांसद तो 2 बार कांग्रेस सांसद बना। दिग्गज नेता सुभाष यादव के बाद कांग्रेस ने यहां काफी कोशिशें की लेकिन अपना सांसद नहीं बना पाई। विधानसभा चुनाव में यहां से दिग्गज विजयलक्ष्मी साधौ, रवि जोशी हारे, बावजूद 8 विस सीट में से पांच सीटें कांग्रेस और तीन भाजपा ने जीती। भाजपा ने यहां वर्तमान सांसद गजेंद्र पटेल पर ही भरोसा जताया है। आदिवासी बहुल इस सीट पर पिछड़ा वर्ग और ब्राह्मण वोटर भी बड़ी संख्या में है।
बागी बिगाड़ेंगे भाजपा और कांग्रेस का गणित
लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के कई बागी नेता भी ताल ठोक रहे हैं। जातिगत समीकरणों से प्रभावित होने वाली चंबल और विंध्य क्षेत्र की 5 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बगावती नेताओं ने दोनों पार्टियों का गणित बिगाड़ दिया है। ये जीतने में भले कामयाब न हों, लेकिन जातिगत वोटों की गोलबंदी कर हार-जीत के मार्जिन को घटा या बढ़ा सकते हैं। भाजपा ने ग्वालियर ग्रामीण के पूर्व विधायक भारत सिंह कुशवाह को लोकसभा का टिकट दिया है, जिन्हें कांग्रेस के साहब सिंह गुर्जर ने 2023 के चुनाव में हराया था। कुशवाह के खिलाफ गुर्जर समाज गोलबंद हैं। कांग्रेस से ग्वालियर पूर्व सीट से हारे प्रवीण पाठक मैदान में हैं, जिन्हें नारायण सिंह कुशवाह ने चुनाव हराया था। कांग्रेस से दावेदारी में आगे रहे पूर्व सांसद रामसेवक गुर्जर टिकट कटने से खफा चल रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस से जुड़े एक प्रॉपर्टी कारोबारी कल्याण सिंह गुर्जर अचानक बसपा के टिकट पर मैदान में कूद गए हैं। सूत्रों के मुताबिक बसपा से गुर्जर को टिकट दिलाने के पीछे भाजपा की रणनीति है, ताकि कांग्रेस को एकमुश्त मिलने वाले गुर्जर वोटों में सेंध लगाई जा सके। भाजपा ने नरेंद्र सिंह तोमर के समर्थक दिमनी के पूर्व विधायक शिवमंगल सिंह तोमर को उतारा है। कांग्रेस ने सुमावली से भाजपा के पूर्व विधायक रहे सत्यपाल सिंह सिकरवार (नीटू) को टिकट दिया है। दोनों प्रत्याशी क्षत्रिय समाज से आते हैं। कांग्रेस के टिकट की दौड़ में शामिल रहे रमेश गर्ग ने बगावती रुख अपनाते हुए बसपा के टिकट पर ताल ठोक दी है। वे कांग्रेस के शहरी वोटर्स के साथ ही भाजपा के परंपरागत वैश्य वर्ग के मतों में सेंध लगा सकते हैं। भिंड सीट अजा के लिए आरक्षित है। भाजपा ने मौजूदा सांसद संध्या राय और कांग्रेस ने फूल सिंह बरैया को उतारा है। टिकट कटने से खफा कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता व 2019 में प्रत्याशी रहे देवाशीष जरारिया बसपा के टिकट पर चुनाव में कूद गए हैं। अनुसूचित जाति के मतदाताओं के वोट तीन भागों में बंट जाने से चुनाव में सवर्ण वोटर किंग मेकर की भूमिका में हैं। सतना से भाजपा सांसद गणेश सिंह पांचवी बार मैदान में हैं। वहीं कांग्रेस ने सतना विधायक सिद्धार्थ कुशवाह को उतारा है, जो गणेश सिंह को विधानसभा चुनाव में हरा चुके हैं। ब्राह्मण बहुल सीट पर दोनों पार्टियों ने ओबीसी उतारे हैं। वहीं मैहर से भाजपा के पूर्व विधायक नारायण त्रिपाठी बसपा के टिकट पर मैदान में कूद गए हैं।
जातिगत गोलबंदी
जातिगत गोलबंदी यहां चुनावों में आम बात है। सर्वाधिक आबादी ब्राह्मण और ओबीसी वर्ग की है। भाजपा ने मौजूदा विधायक रीति पाठक को विधानसभा भेजकर डॉ. राजेश मिश्रा को टिकट दिया है। कांग्रेस ने ओबीसी कुर्मी समाज से आने वाले पूर्व मंत्री कमलेश्वर पटेल को मैदान में उतारा है। यहां ठाकुर मतदाताओं के अलावा कोल और गोंड आदिवासी भी अच्छी खासी तादाद में हैं। भाजपा के पूर्व राज्यसभा सदस्य अजय प्रताप सिंह पार्टी छोडक़र गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, जो ठाकुर और आदिवासी वर्ग के वोटों में सेंध लगाकर कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही समीकरणों को प्रभावित कर रहे हैं। मप्र की 29 लोकसभा सीटों पर हो रहे चुनाव केवल प्रत्याशियों ही नहीं बल्कि मप्र सरकार के मंत्रियों, विधायकों और पदाधिकारियों का भविष्य तय करेंगे। भाजपा सूत्रों का कहना है कि संगठन स्तर पर सभी की सक्रियता की मॉनिटरिंग हो रही है। जिस क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी की जीत होगी, उस क्षेत्र से आने वाले मंत्री और विधायक की पौ-बारह हो जाएगी और जहां हार होगी, वहां के नेताओं पर गाज गिर सकती है। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों को जीताने के लिए केंद्रीय मंत्री, राज्य मंत्री और विधायक तक अपनी किस्मत लगाए बैठे हैं। पार्षद से लेकर संगठन के पदाधिकारी और कुछ नए चेहरों के भाग्य का फैसला भी इस चुनाव में होगा। सूत्रों का कहना है कि प्रदेश की सभी 29 सीटों पर फतह हासिल करने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने सूबे के संगठन और सरकार के मंत्रियों को साफ तौर पर संदेश दिया है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम उनके राजनैतिक भविष्य को तय करेंगे। छिंदवाड़ा में केन्द्रीय मंत्री अमित शाह ने भी इस बात को दोहराया है। जानकारों की मानें तो पार्टी चुनाव परिणाम के बाद ही सभी 29 सीटों का विश्लेषण करेगी। इसमें विशेष तौर पर यह देखा जाएगा कि नेता, पदाधिकारी, मंत्री या विधायकों की भूमिका कैसी रही। किन क्षेत्रों में पार्टी को कितना वोट मिला, जो पिछले चुनावों से ज्यादा है या कम। इसी तरह कांग्रेस से आए बड़े नेताओं से पार्टी को फायदा हुआ है या नुकसान। सूत्रों की मानें तो अमित शाह ने छिंदवाड़ा प्रवास पर यह साफ कर दिया है कि कहीं भी कमजोर स्थिति होती है, तो इसकी जिम्मेदारी वहां पर तैनात किए गए नेताओं और मंत्रियों पर होगी।