- गौरव चौहान
इस बार के विधानसभा चुनावों में ग्वालियर-चंबल अंचल पर सब की नजर है। 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में महाराज की वजह से कांग्रेस जीती हुई बाजी हार गई थी। इस बार दोनों ही पार्टी मैदान फतह करने की चाहत में इस क्षेत्र में डटी हुई हैं। लेकिन दोनों पार्टियां एक ही समस्या गुटबाजी और भितरघात से जूझ रही हैं। अंचल में दोनों पार्टियों के सामने स्थिति यह है कि एक को मनाते हैं तो दूसरा रूठ जाता है। ऐसे में दोनों पार्टियां का चुनावी गणित गड़बड़ा रहा है। ग्वालियर-चंबल में भाजपा के दो बड़े नेता नरेंद्र सिंह तोमर और सिंधिया हैं। दोनों केंद्र में मंत्री हैं। इनके बीच जितना एका नजर आता है, उतना है नहीं। प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को इनके बीच सामंजस्य बैठाने तक की हिदायतें देनी पड़ीं। शाह तक जिस तरह शिकवा- शिकायतें की जा रही हैं, उससे दिग्गजों को अपने समर्थकों को हद में रखने की नसीहत दी गई। भाजपा जानती है कि कार्यकर्ताओं की नाराजगी के बीच बड़े नेताओं और समर्थकों की गुटबाजी जीत की उम्मीदों पर पानी फेर सकती है। यही वजह है कि पार्टी नेतृत्व प्रदेश पर जितना ध्यान दे रहा है, उससे कहीं ज्यादा नजर ग्वालियर- चंबल पर नजर रखी जा रही है। गौरतलब है कि ग्वालियर-चंबल में 8 जिलों की कुल 34 सीटें आती हैं, जिनमें से 2018 में 26 कांग्रेस के खाते में गई थीं। भाजपा यहां सिर्फ 7 सीटें ही जीत पाई। एक सीट बसपा को भी मिली थी। अकेले चंबल क्षेत्र में कांग्रेस ने 13 में से 10 सीटें जीती थीं, लेकिन कांग्रेस ने ये कमाल तब किया था, जब सिंधिया ने पार्टी छोड़ी नहीं थी। अब सिंधिया भाजपा में हैं। ऐसे में कांग्रेस के सामने पिछला रिकॉर्ड दोहराने की चुनौती है। वहीं ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में भाजपा तब भी बिखरी हुई थी और आज भी हालात में ज्यादा अंतर नहीं आया है। फर्क ये है कि उस समय चुनाव के बाद दलबदल का खेल हुआ था। 2023 चुनावों में पहले ही ये खेल शुरु हो गया है। सत्ताधारी भाजपा के कई नेता-विधायक पार्टी छोडक़र कांग्रेस में जा रहे हैं। ताजा मामला शिवपुरी के कोलारस का है। जहां भाजपा विधायक वीरेंद्र रघुवंशी ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने पार्टी के ऊपर नजरअंदाज करने का आरोप लगाया। ये तो एक बानगी भर है। हालांकि, अभी वो मार्च 2020 जैसी अफरातफरी नहीं है, जब सिंधिया के समर्थन में रोज कोई न कोई नेता भाजपा में शामिल हो रहा था, लेकिन ये अफरातफरी उससे कम भी नहीं है।
34 सीटों पर जो जीता वही सिकंदर
मप्र की राजनीति में माना जाता है कि ग्वालियर-चंबल की 34 सीटें सत्ता के लिए निर्णायक होती हैं। इसलिए भाजपा-कांग्रेस का सबसे अधिक फोकस इस अंचल पर है। प्रदेश के राजनीतिक इतिहास का बड़ा बदलाव लाने वाले ग्वालियर-चंबल से विधानसभा चुनाव में जितनी उम्मीद भाजपा लगाए बैठी है, उतनी ही अपेक्षाएं कांग्रेस को हैं। उम्मीदों के सामने कई चुनौतियां भी हैं, जो जीत में बाधा बन सकती हैं। बाधाओं ने भाजपा-कांग्रेस को चिंता में डाल रखा है। भाजपा निचले स्तर पर कार्यकर्ताओं की नाराजगी से जूझ रही है तो ऊपरी स्तर पर दिग्गजों के बीच अंदरूनी मतभेद उभरकर सामने आने लगे हैं। कांग्रेस की मुश्किल दावेदारों के बीच जिताऊ उम्मीदवार को तलाशने की है। सिंधिया के समर्थन में कांग्रेस छोड़ एकसाथ भाजपा का दामन थामने वाले 19 विधायकों सहित 22 विधायकों ने कांग्रेस सरकार को कुर्सी से उतरने को मजबूर कर दिया था। उपचुनाव में क्षेत्र की 16 सीटों में से सात पर कांग्रेस जीती। मंत्री पद छोडऩे वाले प्रद्युम्न सिंह जीते तो इमरती देवी, गिर्राज दंडोतिया को हार का सामना करना पड़ा। भाजपा कांग्रेस दिग्गजों के गढ़ ढहाने की रणनीति बना रही है। पिछोर में केपी सिंह छह बार से विधायक हैं। भाजपा ने यहां प्रीतम लोधी को उतारा है। जीतने पर पिछोर को जिला बनाने की घोषणा की है। लहार में नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंद सिंह का प्रभाव है। हाल ही में जन आशीर्वाद यात्रा के जरिए भाजपा ने चुनावी आगाज किया है।
बागी नेता बने चुनौती
क्षेत्र में भाजपा के पुराने नेता-विधायक अपनी उपेक्षा से नाराज चल रहे हैं। उनका कहना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों की वजह से उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। पुराने नेताओं के समर्थक भी पार्टी से संतुष्ट नहीं है। हालांकि भाजपा मामले को संभालने के लिए बड़े नेताओं के साथ तेजी से क्षेत्र में सक्रिय हुई है। दूसरी तरफ, कांग्रेस, भाजपा और महाराज की छाया से बचकर पार्टी में आ रहे छोटे-बड़े नेताओं के साथ सावधानी से क्षेत्र में काम कर रही है। भाजपा इस क्षेत्र में धर्म के माध्यम से भी अपने वोटबैंक को साध रही है। दतिया जिले में पीतांबरा माई का लोक, तो वही भिंड के दंदरौआ धाम में हनुमान लोक बनाने का ऐलान सीएम शिवराज सिंह चौहान पहले ही कर चुके हैं। ददरौआ धाम को 250 बीघा में विकसित किया जा रहा है। जल्द ही यहां हनुमान लोक बनाया जाएगा। न्यास की ओर से इसका प्रस्ताव भेजा जा चुका है। कांग्रेस इसका विरोध करते हुए कहती है कि उनकी पार्टी का भी भगवान पर विश्वास है, लेकिन धर्म को राजनीति में नहीं लाना चाहिए।
एससी वोटबैंक निर्णायक भूमिका में
ग्वालियर-चंबल अंचल में जीत का सीधा समीकरण जातिगत आधार पर निकाला जाता है। यही कारण है, कि इस क्षेत्र की कुछ विधानसभा में बसपा भी अपनी धमक दिखा चुकी है। ठाकुरों के साथ लोधी, कुशवाह, जाटव, रावत मतदाता जीत तय करते हैं, इसी को ध्यान में रख कांग्रेस अपना उम्मीदवार मैदान में उतारती थी। अब उसके सामने सबसे बड़ी परेशानी यह है कि भाजपा भी इसी समीकरण से अपना लक्ष्य साधने में जुटी है। हाल में घोषित 39 सीटों के उम्मीदवारों में अंचल के चार सबलगढ़, सुमावली, पिछोर और गोहद सीट पर जातिगत आधार पर ही नाम तय किए हैं। ग्वालियर-चंबल अंचल में एससी वर्ग के मतदाता दोनों पार्टी का खेल बनाने और बिगाडऩे की स्थिति में हैं। 2018 से पहले वे भाजपा से नाराज थे। कांग्रेस सरकार बनने के बाद कमलनाथ से भी नाराज हो गए। कमलनाथ ने उस समय कहा था कि एट्रोसिटी एक्ट के दौरान हुए आंदोलन जिन लोगों पर आपराधिक केस लगे हैं, सबको वापस लिया जाएगा। सरकार बनने के बाद भी उन्हें वापस नहीं लिया गया। इस एक्ट और उस दौरान हुए आंदोलन की वजह से भाजपा की सीटें इस क्षेत्र में इतनी कम हुई थीं। एससी वर्ग की अधिकता की वजह से ही मायावती की बसपा पार्टी यहां चुनाव जीतती आ रही थी। पहले ये वर्ग बसपा का हुआ करता था। 2018 में ये कांग्रेस के साथ चला गया। एससी वर्ग को अपने पाले में करने के प्रयास के चलते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सागर में संत रविदास मंदिर की आधारशिला रखी। संत रविदास के सबसे ज्यादा अनुयायी इसी क्षेत्र में हैं। भाजपा को एससी वर्ग का साथ मिलने की आस है।
कांग्रेस को फिर से ज्यादा सीटें जीतने का भरोसा
इस अंचल में कांग्रेस जीत के लिए आश्वस्त नजर आ रही है। ग्वालियर चंबल में कांग्रेस के पास अभी 34 में से 17 सीटें हैं। कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष अशोक सिंह कहते हैं कि इस बार यह आंकड़ा 27 के पार पहुंचेगा। उन्होंने कहा कि भाजपा के कमजोर होने की वजह से ही अमित शाह को क्षेत्र में आना पड़ रहा है।
इतिहास बनाकर चुनाव हारी भाजपा
यह क्षेत्र भाजपा के लिए इसलिए भी चुनौती है, क्योंकि उसके नेताओं के दूसरी पार्टी में जाने से उसका गणित बिगड़ा हुआ है। पार्टी में गुटबाजी है। पुराने और नए कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय नहीं है। इसी के चलते ग्वालियर के नगर निगम चुनाव में भाजपा 50 साल बाद महापौर का चुनाव हार गई थी। कमलनाथ सरकार गिरने के बाद यहां 28 सीटों पर उप चुनाव हुए थे, जिसमें से भाजपा को 19 और कांग्रेस को 9 सीटें मिली थीं।