- मनोज श्रीवास्तव
- स्मृति शेष- बिरजू महाराज
बिरजू महाराज ने नृत्य उस यूरोप-प्रधान युग में शुरू किया था जिसमें पुरुष नर्तक के विरुद्ध बहुत से पूर्वाग्रह थे। जिस यूरोपीय मंच पर सोलहवीं शती तक स्त्री और पुरुष साथ-साथ नहीं नाच सकते थे, वही यूरोपीय आंख बीसवीं सदी के भारत में पुरुष को अक्षिविक्षेप और भ्रूसंचालन करते देख वितृष्णा के पूर्वाग्रह विकसित किये हुए थी। उसे पुरुष की मंचोपस्थिति किसी पौरुषेय ऊर्जा के उत्स्फोट के लिये, किसी ेंूँङ्म ्िर२स्र’ं८ के लिये तो फिर भी किसी हद तक सही थी लेकिन बिरजू महाराज और उनके अवधी अग्रजों के हाव-भाव फूटी आंख न सुहाते थे। ऐसे में भी उन्होंने अपने नृत्य को जारी रखा, यह उनके भीतर की धुरी की दृढ़ता का प्रमाण बन गया। वह एक तरह का देह-द्रोह था जो उस समय चल रहे स्वातंत्र्य-संग्राम की अन्तरात्मा का ही अनुफलन माना जा सकता है। अवधी साहित्य के योग के लिये तो जानी जाती है लेकिन नृत्य के लिए भी उसका एक मानसाकार संभव हुआ था। वाजिद अली शाह को अंग्रेजों के प्रचार तंत्र ने जब एक कला-संरक्षक की जगह एक विलासी अय्याश की तरह चित्रित किया, तब ही स्पष्ट हो गया था कि भारतीय कलाओं को औपनिवेशन के सदमे उठाने ही पड़ेंगे। डलहौजी का ’ंस्र२ी ङ्मिू३१्रल्ली जितना अवध को हड़पने के लिये था, उतना कलाओं को निगल जाने के लिये भी था और अच्छन महाराज, शंभू महाराज, बिंदादीन महाराज, कालिकाप्रसाद जी, लच्छू महाराज की परंपरा भी उतनी ही दुष्प्रभावित हुई थी। यह महाराज वंश यदि किसी सम्राट की तरह की ध्वनि देता है तो साम्राज्यवाद को इसे भी मटियामेट करना ही था। इस पृष्ठभूमि में बिरजू महाराज के अवदान को समझना चाहिए। वे जब पैदा हुए तो भारत के स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक दौर शुरू हो गया था। उन्होंने आजाद भारत में नृत्य की आजादी का भी पहला पहला आस्वाद लिया। उनमें अकुंठ उन्मुक्ति का जो नृत्यानंद मिलता है, वह जो देह की पारंपरिकताओं को लांघता है, वह एक घरानावादी विश्लेषण में सीमित नहीं किया जाना चाहिए। हम जिस पुरुष देह को द्वंद्वात्मकताओं में देखने के आदी हो गये हैं, बिरजू महाराज ने उसे लय-विलय की सहजताएं दीं। नृत्य के साथ यह समस्या है। देहावसान उसे समय के शून्य में बहा ले जाता है। रिकार्डिंग एक बहुत ही दुर्बल सांत्वना है। जीवाश्म रह जाता है, जीव चला जाता है।
(लेखक-पूर्व आईएएस एवं विचारक हैं