आर्य पर दांव लगाना भारी पड़ा भाजपा को

आर्य
  • खुद भी हारे और पड़ोसी सीटों पर भी नहीं दिखा सके असर

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। इस बार आए विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित परिणामों के बीच कई नामचीन और बड़े चेहरों को हार का सामना करना पड़ा है। जिसकी वजह से ऐसे नामों की हार चर्चा का विषय बनी हुई है। इस बार हारने वालों में ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस और भाजपा के कई बड़े चेहरे शामिल हैं। ऐसे में भिण्ड जिले की चर्चा होना लाजमी है। इसकी वजह है, इस जिले की सीटों पर चुनाव लड़े एक वर्तमान और तीन पूर्व कैबिनेट मंत्री का चुनाव हार जाना। इन हारने वाले चेहरों में दो भाजपा और दो कांग्रेस के हैं। जिले की लहार व अटेर के बाद गोहद विधानसभा सीट राजनीति की दृष्टि से हाईप्रोफाइल मानी जाती है।  अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने के कारण गोहद विधानसभा से कमल की लहर में भी भारतीय जनता पार्टी अनुसूचित मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पूर्व कैबिनेट मंत्री लालसिंह आर्य की हार भी प्रदेश भर में सुर्खियों में है। इस हार की वजह से भाजपा को भी बड़ा झटका लगा है। दरअसल आर्य पिछले चुनाव में भी हार गए थे। उन्हें ही पिछले चुनाव में भाजपा को अंचल में मिली हार की वजह माना गया था। इसके बाद भी संगठन ने उन्हें न केवल महत्वपूर्ण जिम्मा दिया, बल्कि इस बार भी टिकट थमा दिया था। जनता उनके मंत्री पद के कार्यकाल को अब तक भूली नहीं है। पूर्व कैबिनेट मंत्री आर्य गोहद से दूसरी बार हारे हैं। यह अलग बात है कि हार के अंतर को इस बार जरुर कम करने में वे सफल रहे हैं। पार्टी को वे पड़ौसी सीटों पर भी फायदा पहुंचाने में असफल रहे हैं।  
हार में दुर्भाग्य किसका, गोहद का या लाल का, यह भविष्य तय करेगा
जिले के चार दिग्गज नेताओं में शामिल लालसिंह आर्य भिण्ड के जैन महाविद्यालय की छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने से उनका राजनीति का रास्ता खुला और वे विधायक और मंत्री बनने के साथ ही अनुसूचित जाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर पहुंचे हैं। आर्य का भाजपा की लहर के बाद भी हारना उनकी जनता के बीच कमजोर पकड़ को बताती है। भारतीय जनता पार्टी के देशव्यापी अनुसूचित जाति के चेहरे की हार केवल लालसिंह के लिए आत्म मंथन का विषय नहीं है, बल्कि संगठन को भी चिंतन करने की जरूरत है।
क्या सिंधिया समर्थक भी हैं हार की बजह
कांग्रेस की सरकार पलटने में केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता और 2023 के विधानसभा चुनाव में सिंधिया समर्थक खरे भी उतरे। इसमें भी कोई दो राय नहीं है लेकिन सिंधिया के प्रभाव वाली गोहद विधानसभा सीट पर हुई हार उनके समर्थकों की विश्वसनीयता पर प्रश्न जरूर लगाती है। संगठन को इसकी अपने स्तर पर भी पड़ताल करानी चाहिए।
विपक्ष पड़ा लालसिंह पर भारी
गोहद विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के खिलाफ सभी विरोधी दलों का अघोषित रूप से बना गठजोड़ भाजपा प्रत्याशी लालसिंह आर्य पर भारी पड़ गया। यहां बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य दल चुनाव मैदान में तो उतरे। पर वे वोट न के बराबर ले पाए। यहां बसपा का विधायक भी एक बार चुना जा चुका है , फिर भी बसपा के न के बराबर वोट आए हैं। इस सीट पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) भी चुनाव मैदान में उतरकर सम्मान जनक मत हासिल करती रही है। इस बार माकपा मैदान से बाहर रही और उसने कांग्रेस का समर्थन किया है। परिणाम स्वरूप भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशी के बीच सीधा मुकाबला हुआ। बेशक पहले से भाजपा को अधिक मत मिले, लेकिन फिर भी चुनाव हार गई। यहां कुल 146832 मत पड़े। जिसमें कांग्रेस को 69941 एवं भाजपा को 69334 मत मिले, जबकि शेष मत अन्य 14 प्रत्याशियों को मिले हैं।
यह है गोहद की राजनीतिक पृष्ठभूमि
वर्ष 1967 में गोहद विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हुई। तभी से इस सीट पर जनसंघ के बाद भाजपा का दबदवा रहा। 1980 में भाजपा का गठन हुआ और श्रीराम जाटव भाजपा के पहले विधायक चुने गए। गुजरे 51 वर्ष में इस सीट से कोई भी नेता तीन बार विधायक नहीं चुना गया और न कोई कैबिनेट मंत्री रहा। आर्य इस सीट से 1998 और 2003 में लगातार विधायक चुने गए। 2008 में वह महज 1553 मतों से कांग्रेस के माखनलाल जाटव (अब स्वर्गीय) से हार गए थे, लेकिन 2013 में चुनाव जीतकर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। 2018 में विरोध के चलते आर्य की करारी हार हुई। 2020 में हुए उप चुनाव में कांग्रेस छोडक़र भाजपा में आए रणवीर जाटव को टिकट मिला जो चुनाव हार गए। 2023 के विधानसभा चुनाव को भाजपा की केन्द्रीय टीम ने अपने हाथ में लिया और पहली सूची में ही लालसिंह आर्य का टिकट घोषित कर दिया। जिसके चलते कांग्रेस को अपने निवर्तमान विधायक मेवाराम जाटव का टिकट काटकर नए चेहरे केशव देशाई को चुनाव मैदान में उतारना पड़ा।

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