विधानसभा हारे… लड़ेंगे लोकसभा

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  • कांग्रेस के कई नेताओं ने पेश की दावेदारी

विनोद उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम। कांग्रेस नए नेतृत्व के साथ लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गई है। कांग्रेस की कोशिश है की लोकसभा चुनाव में वह प्रत्याशियों की घोषणा सबसे पहले कर दे। पार्टी की इस रणनीति के तहत दावेदारों ने  अपना-अपना दावा पेश करना शुरू कर दिया है। इसमें विधानसभा चुनाव में हारे नेता भी दावेदारी कर रहे हैं। उधर कांग्रेस सूत्रों का कहना है की कुछ लोकसभा सीटों पर पार्टी विधानसभा चुनाव हारे जनाधार वाले नेताओं को टिकट देने के मूड में है।
गौरतलब है कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश में कांग्रेस ने 30 वर्ष बाद नए नेताओं के हाथ में बागडोर सौंपी है। अब इनके नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा। इतना ही नहीं पार्टी ने जो 29 लोकसभा समन्वयक बनाए हैं, उनमें भी अधिकतर जयवर्धन सिंह, तरुण भनोत, प्रियव्रत सिंह, विनय सक्सेना, विपिन वानखेड़े, नितेंद्र सिंह जैसे युवा चेहरे हैं। सूत्रों का कहना है कि लोकसभा चुनाव में भी पार्टी अधिकतर सीटों पर नए चेहरों को उम्मीदवार बना सकती है। इसके लिए सर्वे भी प्रारंभ हो गए हैं। प्रदेश कांग्रेस की जो नई टीम बन रही है, उसमें भी नए चेहरे आगे लाने की तैयारी है। इसमें युवा कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के अनुभवी नेताओं को आगे बढ़ाया जाएगा।
करीब 24 फीसदी वोट का अंतर पाटना होगा
मप्र में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला रहता है। पिछले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा ने 58.5 फीसदी वोट शेयर के साथ सूबे की 29 में से 28 सीटें जीती थीं। वहीं, कांग्रेस 34.8 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट ही जीत सकी थी। कांग्रेस और भाजपा के बीच करीब 24 फीसदी वोट का अंतर है। कांग्रेस के सामने वोट शेयर के लिहाज से ये बड़ा गेप भरने की चुनौती तो होगी ही, हर लोकसभा चुनाव में वोट शेयर गिरने का ट्रेंड बदलने का चैलेंज भी होगा। मध्य प्रदेश में पिछले 32 साल का चुनावी अतीत देखें तो कांग्रेस वोट शेयर के लिहाज से भाजपा के मुकाबले पिछड़ रही है। साल 1991 में कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा के मुकाबले अधिक रहा था। तब कांग्रेस को 45 फीसदी वोट मिला था। भाजपा कांग्रेस के मुकाबले करीब तीन फीसदी कम 42 फीसदी वोट तक ही पहुंच सकी थी। यह गिरावट तब भी जारी रही जब सूबे में कांग्रेस की सरकार रही। 1996, 1998, 1999 और 2019 लोकसभा चुनाव के समय सूबे की सत्ता पर कांग्रेस ही काबिज थी, लेकिन फिर भी भाजपा वोट शेयर के मामले में कहीं आगे रही थी। पिछले चार चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2004 में कांग्रेस 34 फीसदी वोट शेयर के साथ चार सीटें ही जीत सकी थी। तब भाजपा को करीब 48 फीसदी वोट शेयर के साथ 25 सीटों पर जीत मिली थी। 2009 के चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर और सीटें, दोनों में इजाफा जरूर हुआ लेकिन, फिर भी भाजपा कहीं आगे रही। 2009 में कांग्रेस को 40 फीसदी वोट शेयर के साथ 12 सीटों पर जीत मिली थी तो वहीं भाजपा 43 फीसदी वोट के साथ 17 सीटों पर विजयी रही थी। 2014 में भाजपा के वोट शेयर का आंकड़ा 50 फीसदी के लैंडमार्क को भी पार कर गया था। साल 2014 के चुनाव में भाजपा ने करीब 54 फीसदी वोट शेयर के साथ 29 में से 27 सीटें जीत ली थीं और कांग्रेस 34 फीसदी वोट शेयर के साथ महज दो सीट पर सिमट गई- छिंदवाड़ा और गुना। 2014 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर केवल दो ही उम्मीदवार जीत सके थे- कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया। 2019 के चुनाव में भाजपा ने 58 फीसदी वोट शेयर के साथ 28 सीटें जीत लीं और कांग्रेस 34.5 फीसदी वोट शेयर के बावजूद महज एक सीट पर सिमट गई थी। तब केवल छिंदवाड़ा सीट ही कांग्रेस बचा सकी थी।
हारे नेताओं को लोकसभा का सहारा
लोकसभा चुनाव की तैयारी को लेकर कांग्रेस में भोपाल से लेकर दिल्ली तक बैठकों का दौर जारी है। उम्मीदवार चयन को लेकर मंथन जारी है। विधानसभा के हारे नेताओं को अब लोकसभा का सहारा है। कांग्रेस के विधानसभा चुनाव हार चुके नेता लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए दावेदारी पेश करने लगे हैं। दूसरी तरफ विधानसभा की तर्ज पर भाजपा समय से पहले अपने उम्मीदवार घोषित कर सकती है। वहीं भाजपा को उन सीटों पर भी उम्मीदवारों की तलाश है, जो सांसद अब विधायक बन चुके हैं। साथ ही दो सांसद ऐसे हैं, जो विधानसभा चुनाव हार गए, लिहाजा उनके टिकट पर भी तलवार लटक रही है। इस बार विधानसभा चुनाव हारे बड़े नेताओं को लोकसभा में उम्मीदवार बनाने की रणनीति पर काम किया जा रहा है। कांग्रेस इस बार लोकसभा की कम से कम चार से पांच सीटें जीतने के लिए काम कर रही है। यही कारण है कि पार्टी उन नेताओं को लोकसभा में उम्मीदवार बना सकती है जो विधानसभा चुनाव हारे हैं। इनमें जिन नामों की चर्चा चल रही है उनमें जबलपुर से तरुण भनोट, ग्वालियर से प्रवीण पाठक के नाम प्रमुख हैं। माना ये भी जा रहा है कि इंदौर से यदि पार्टी को कोई दमदार उम्मीदवार नहीं मिला तो जीतू पटवारी वहां से चुनाव लड़ सकते हैं। पीसी शर्मा को भोपाल और प्रियव्रत सिंह को राजगढ़ से चुनाव लड़ाया जा सकता है। इस रणनीति को अंजाम देने के लिए कांग्रेस हर लोकसभा में वोट शेयर बढ़ाने पर काम कर रही है।
नए नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी कांग्रेस
विधानसभा चुनाव की अपेक्षा कांग्रेस लोकसभा चुनाव को लेकर अधिक सक्रिय दिख रही है। इसकी वजह है युवा नेतृत्व। 1993 से अब तक कांग्रेस का नेतृत्व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और कमल नाथ कर रहे थे। विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। अब मप्र में कांग्रेस 30 वर्ष बाद नए नेतृत्व की अगुवाई में चुनाव लड़ेगी। विधानसभा में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने नए नेतृत्व को आगे बढ़ा दिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी हैं, तो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार और उप नेता हेमंत कटारे हैं। पार्टी की तैयारी लोकसभा चुनाव में भी आधी से अधिक सीटों पर नए चेहरों को मौका देने की है। मध्य प्रदेश में 1993 से अब तक भले हो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कोई भी रहा हो पर विधानसभा हो या फिर लोकसभा चुनाव दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की हो महत्वपूर्ण भूमिका रही है। टिकट वितरण से लेकर चुनाव प्रबंधन और कार्य योजना इनके हिसाब से ही बनती रही। इसके कारण नया नेतृत्व भी आगे नहीं आ पाया। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछड़ा वर्ग से आने वाले अरुण यादव को आगे बढ़ाया था। उन्होंने प्रदेशभर का दौरा करके टीम बनाकर विधानसभा चुनाव की तैयारी की लेकिन विधानसभा चुनाव के पहले कमल नाथ को दिल्ली से भेजकर प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंप दी गई।

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