मध्यप्रदेश में दलबदल… कानून हुआ बेमानी

  • गौरव चौहान
दलबदल

1985 में जब दल-बदल कानून लागू हुआ तो आशा लगी थी कि दल बदल पर लगाम लगेगी। देश में कुछ हद तक तो दल बदल पर लगाम लगी, लेकिन मप्र में यह कानून बेमानी साबित हुआ है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि मप्र में पिछले 33 साल से दलबदल के आरोप में एक भी विधायक की सदस्यता नहीं गई। जबकि इस दौरान आधा दर्जन विधायकों के खिलाफ दलबदल कानून के तहत याचिका लगाई गई। जो तथ्यों के अभाव में विधानसभा अध्यक्षों की ओर से खारिज कर दीं गईं। मप्र विधानसभा में आखिरी बार 10 सितंबर 1991 को बालाघाट के लांजी विधायक दिलीप भटेरे की दलबदल कानून के तहत सदस्यता गई थी। इससे पहले 5 अगस्त 1991 को जनता दल के 5 विधायक मंगल पराग, संतोष अग्रवाल, लक्ष्मण सतपथी, अरुण मिश्रा और शिवकुमार सिंह की सदस्यता गई थी। अध्यक्ष बृजमोहन मिश्रा ने 26 दिन के भीतर की याचिका का निराकरण कर दिया था।
गौरतलब है कि दलबदल पहले गोवा, मणिपुर, झारखंड जैसे छोटे राज्यों में हो रहा था। लेकिन अब बड़े-बड़े राज्यों में चुनाव का मतलब खत्म होता जा रहा है। जनता किसी पार्टी को चुनती हैं, फिर उस पार्टी के लोगों को दूसरी पार्टी अपने पैसे के बूते या सत्ता का गलत इस्तेमाल कर अपनी तरफ आकर्षित कर लेती है और वो लोग उस पार्टी से टूटकर दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। ये जनादेश के साथ खिलवाड़ है। नियमानुसार दलबदल करने वाले किसी भी विधायक के खिलाफ विधानसभा का कोई भी सदस्य अध्यक्ष के समक्ष याचिका प्रस्तुत कर सकता है। याचिकाकर्ता को यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि उसने दूसरे दल की सदस्यता ली है। प्रमाण के तौर पर कम से कम 10 लोगों के शपथ पत्र, मीडिया कर्मियों के शपथ पत्र के साथ-साथ नए दल की सदस्यता रसीद पेश करनी होगी। प्रमाण नहीं देने पर 3 महीने के भीतर अध्यक्ष पिटीशन को खारिज कर सकते हैं। कांग्रेस विधायकों के मामले में यदि सत्र के दौरान दल व्हिप जारी करता है, तब दबलबदल करने वाला विधायक सरकार के खिलाफ वोट नहीं करते हैं या सदन से अनुपस्थित रहते हैं। तब इस प्रमाण के आधार पर भी सदस्यता जा सकती है।
मप्र में बढ़ा दलबदल
पिछले कुछ सालों का आकंलन करें तो मप्र में दलबदल करना परंपरा बन गई है। प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के तीन विधायक भाजपा में शामिल हो चुके है। इनमें से एक विधायक ने इस्तीफा दे दिया, जबकि दो विधायकों को इस्तीफे के लिए अनुकूल समय का इंतजार है। ऐसे में पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत के ताजा बयान ने उन अटकलों को हवा दे दी है कि इस्तीफा दिए बिना भी, उनका पूरा कार्यकाल निकल जाएगा। क्योंकि मप्र में पिछले 33 साल से दल बदल के आरोप में एक भी विधायक की सदस्यता नहीं गई। जबकि इस दौरान आधा दर्जन विधायकों के खिलाफ दलबदल कानून के तहत याचिका लगाई गई। जो तथ्यों के अभाव में विधानसभा अध्यक्षों की ओर से खारिज कर दीं गईं। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में छिंदवाड़ा जिले के अमरवाड़ा विधायक कमलेश शाह इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए। जबकि तीसरे चरण में श्योपुर जिले के विजयपुर विधायक रामनिवास रावत और सागर के बीना से कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे भाजपा में शामिल हो चुकी हैं। निर्मला और रामनिवास ने अभी इस्तीफा नहीं दिया है। न ही कांग्रेस विधायक दल ने दल बदल कानून के तहत याचिका लगाई है।
हालांकि लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस सदस्यता रद्द करने के लिए याचिका करेगी। जिसमें कांग्रेस को दलबदल के प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे। नियमानुसार स्पीकर को 3 महीने में याचिका का निराकरण करना होगा। मप्र में दलबदल के बावजूद कईयों की विधायकी सुरक्षित रही। टीकमगढ़ से जतारा से कांग्रेस विधायक दिनेश अहिरवार, हरदा जिले के टिमरनी से निर्दलीय विधायक संजय शाह, खरगोन जिले के बड़वाह से कांग्रेस विधायक सचिन बिड़ला, सतना के मैहर से कांग्रेस विधायक नारायण त्रिपाठी ने भी दलबदल किया था। इनके खिलाफ याचिकाएं खारिज हो गईं थीं। 2004 में शिवपुरी के पोहरी से समानता दल के विधायक हरिबल्लभ शुक्ला के खिलाफ कांग्रेस के रामनिवास रावत ने दल बदल कानून के तहत याचिका लगाई थी। शुक्ला ने समानता दल से विधायक रहते भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था। विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने 752 दिन बाद याचिका को खारिज कर दिया था। इस वजह से दलबदलू विधायकों की सदस्यता को कोई खतरा नहीं पहुंचा।
रावत ने विधायकी बचाने के लिए खेली राजनीति
लोकसभा चुनाव के बाद ग्वालियर-चंबल अंचल की ही नहीं प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा सवाल चारों तरफ घूम रहा है। यह सवाल है कि क्या पूर्व मंत्री व विजयपुर विधायक रामनिवास रावत द्वारा चुनाव के मध्य में मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव के साथ चुनावी मंच साझा करने से उनकी विधानसभा की सदस्यता जाएगी या फिर बची रहेगी? घोषित रूप से कांग्रेस से नाता तोडक़र भाजपा से रिश्ता जोडऩे वाले रामनिवास रावत एक चतुर राजनीतिज्ञ साबित हुए हैं। क्योंकि दल-बदल कानून के दायरे में तभी आएंगे, जब वे कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे देते हैं। अगर पार्टी उन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में प्राथमिकता सदस्यता से निष्कासित करती है तो उनकी विधानसभा की सदस्यता बरकरार रहेगी और वो चाहते भी यही है कि पार्टी उनके खिलाफ कार्रवाई करे। खुले तौर पर सामने से कांग्रेस में छुरा घोंपने वाले रामनिवास रावत के खिलाफ पार्टी कोई कार्रवाई नहीं कर पा रही है। इतना अवश्य कह रही है कि अब हमारा रामनिवास रावत से कोई संबंध नहीं है। कांग्रेस दल-बदल कानून के प्रविधानों में उलझकर रह गई। फिलहाल रावत घोषित रूप से भाजपा में हैं और कागजों में कांग्रेस के सदस्य है। विशेषज्ञ एडवोकेट आशीष प्रताप सिंह के अनुसार पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी की चुनाव में खिलाफत कर रामनिवास रावत की विधानसभा की सदस्यता से एक ही शर्त पर जा सकती है, जब वे अपनी मूल पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दें। अगर पार्टी अनुशासनहीनता के आरोप में उन्हें पार्टी प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित करती है तो भी उनकी विधानसभा की सदस्यता की बरकरार रह सकती है।

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