- अजय बोकिल
अमीन सयानी यानी आवाज की दुनिया के सुपर स्टार। बचपन में जब अमीन सयानी का हर दिल अजीज कार्यक्रम ‘बिनाका गीतमाला’ सुनते तो लगता था कि यह आवाज किसी दूसरी दुनिया से आती है। ऐसी आवाज जो मानो रेडियो के लिए ही बनी है और रेडियो अमीन सयानी के लिए। कल के रेडियो उद्घोषक और आज के रेडियो जॉकी अमीन सयानी की जानदार आवाज और अदायगी के प्रति श्रोताओं की जबर्दस्त दीवानगी को शायद ही समझ पाएं। वो जमाना था, जब बड़े-बड़े फिल्म स्टार भी अमीन सयानी से मिलने को बेताब हुआ करते थे।
दरअसल अमीन सयानी ने आजाद भारत में मनोरंजन की दुनिया में रेडियो एक नया और मधुर व्याकरण रचा। शुष्क समाचार और धीर गंभीर सूचनाओं और शास्त्रीय संगीत से परे जाकर आम आदमी की जबान में आम आदमी से सहज और दिलकश संवाद की नींव अमीन सयानी ने अपनी युवावस्था में रखी। उसी नींव पर आज टी.वी चैनल्स और एफएम रेडियो की दुनिया खड़ी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि अमीन सयानी भारतीय रेडियो की दुनिया के ‘पितृ पुरूष’ थे।
अमीन सयानी को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाएगा कि उन्होंने बिनाका गीतमाला के रूप में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का पैमाना तय करने वाला कार्यक्रम 42 साल तक होस्ट किया, बल्कि इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने रेडियो की जनोन्मुखी, संवादात्मक और सहज सम्प्रेषणीय भाषा भी रची। अमीन सयानी जिस भाषा में उद्घोषणा करते थे, इसके माध्यम से रोचकता का संसार रचते थे, वह हिंदी और उर्दू का मीठा मिश्रण होता था। खास बात यह है कि अमीन सयानी ने अंग्रेजी उद्घोषक के रूप में करियर की शुरुआत की थी। लेकिन बाद में वो हिंदी उद्घोषणा की मील का पत्थर बन गए। अपनी सरल लेकिन प्रभावी शब्द संपदा के साथ हिंदी उर्दू के कठिन शब्दों का शुद्ध और नफासत भरा उच्चारण, स्वराघात, लय और प्रांजल सम्प्रेषणीयता अमीन सयानी की जुबान की ऐसी खूबियां थीं कि लोग उनकी सामान्य बातचीत पर भी मोहित हो जाते थे। बीती सदी में साठ और सत्तर के दशक में हर युवा उद्घोषक अमीन सयानी की नकल करने की कोशिश करता था और वैसा ही बनना चाहता था। अभी भी विविध भारती के नामी उद्घोषक युनूस खान की उद्घोषण शैली में इसकी झलक देखी जा सकती है। उन दिनों हिंदी उद्घोषणा जगत में तीन आवाजें मानक समझी जाती थीं। समाचार वाचन में आकाशवाणी के देवकी नंदन पांडे, हॉकी कमेंट्री में जसदेव सिंह तथा मनोरंजन के क्षेत्र में अमीन सयानी। इन सभी ने जनसंचार के क्षेत्र में रेडियो माध्यम की महत्ता और चुनौतियों को बखूबी समझा तथा उसे एक नई परिभाषा दी। इन तीनों में भी अमीन सयानी का नाम तो हर घर में पहुंच चुका था।
उन्होंने सार्वजनिक संबोधन में भी एक बुनियादी बदलाव किया था। तब तक किसी भी कार्यक्रम में वक्ता आम तौर पर ‘भाइयों और बहनों’ से बोलने की शुरुआत करते थे। लेकिन इससे लैंगिक विषमता की गंध आती थी। अमीन सयानी ने अपने कार्यक्रम में ‘बहनों और भाइयों’ कहना शुरू किया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ और स्त्री शक्ति की महत्ता को रेखांकित करता था। ये सुखद संयोग ही है कि 20 साल की उम्र में अमीन सयानी ने रेडियो सीलोन से भारतीय फिल्म संगीत, जो उस वक्त अपने सुनहरे दौर में कदम रख रहा था, को घर घर पहुंचाने और उत्कृष्टता की प्रतिस्पद्र्धा में लोकप्रियता को एक मानदंड के रूप में स्थापित करने का सफल प्रयास किया।
यही वो दौर था, जब देश की पुरानी पीढ़ी हिंदी फिल्मों के संगीत को बाजारू मानकर उसे खारिज या अनदेखा करने की कोशिश कर रही थी। देश के तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर ने तो आकाशवाणी से हिंदी फिल्म संगीत का प्रसारण यह कहकर बंद करवा दिया था कि इससे देश की युवा पीढ़ी बिगड़ रही है। जबकि हकीकत में उसी दौर में हिंदी सिने संगीत के स्वर्णिम काल का द्वार भी खुल रहा था। देश की नई पीढ़ी सुरों की उन्मुक्त दुनिया का आस्वाद ले रही थी। लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, गीता दत्त, आशा भोसले, तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार जैसे महान गायक अपनी कला से सुगम संगीत के नए प्रतिमान रच रहे थे। इन गायकों को महान बनाने का काम असाधारण रूप से प्रतिभाशाली कई संगीतकार कर रहे थे। युवा पीढ़ी इन गायकों की आवाज की दीवानी थी, लेकिन तत्कालीन सरकार की नजर में यह सब बेकार की बातें थीं। हालांकि बाद में इस गलती को आकाशवाणी से विविध भारती कार्यक्रम शुरू करके सुधारा गया। लेकिन इसमें निहित संकेत साफ था कि संगीत की स्वर लहरियां अभिजात्य शास्त्रीय संगीत की संकुचित दुनिया से बाहर निकल कर लोक विश्व में तैरने को बेताब थीं। मानो देश के साथ संगीत भी आजाद हो गया था। उधर रेडियो सीलोन (जो एक श्रीलंकाई कंपनी थी) ने आजादी के बाद बदलती लोक रूचि को ध्यान में रखकर बिनाका गीतमाला कार्यक्रम शुरू किया, जिसके उद्घोषक बने अमीन सयानी। अमीन साहब के सामने ऐसे कार्यक्रम का कोई तयशुदा मॉडल नहीं था।लिहाजा उन्होंने अपना खुद का मॉडल तैयार किया, शैली गढ़ी। हालांकि उन दिनों देश भर में रेडियो स्टेशनों की संख्या एक दर्जन से भी कम थी और रेडियो की पहुंच मुश्किल से 15 फीसदी आबादी तक रही होगी, लेकिन बिनाका गीतमाला सुनने के लिए लोग रेडियो खरीदने लगे। रेडियो के प्रसार के साथ ही बिनाका गीतमाला भी लोकप्रिय होता चला गया। हर हफ्ते बुधवार को रात आठ बजे प्रसारित होने वाले इस कार्यक्रम को सुनने वालों में शर्त बदी जाती कि इस हफ्ते कौन सा गाना नंबर एक पर रहने वाला है।‘पायदान, हिट परेड, सरताज जैसे शब्दों को अमीन साहब ने ही लोकप्रिय बनाया। कौन सा गीत कौन सी पायदान पर रहने वाला है, इसको लेकर देश भर में उत्सुकता रहती। लोग रात आठ बजे तक सारे काम छोडक़र रेडियो से कान लगाए रहते। 1954 में साल में नंबर एक पर रहने वाला पहला गीत था, फिल्म ‘अनारकली’ का स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का गाया ‘ ये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया।‘
(लेखक- ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हैं)