
- लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू की जांच पर आंच
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू एजेंसियां काम कर रही हैं। लेकिन दोनों एजेंसियों की जांच पर समय-समय पर आंच आती रहती हैं। यानी इनकी कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहते हैं। इसकी वजह यह है कि भ्रष्टाचार की जद में आए छोटे अधिकारियों-कर्मचारियों पर तक झट से कार्रवाई हो जाती है, लेकिन बड़ों यानी आईएएस, आईपीएस और आईएफएस पर मेहरबानी दिखाई जाती है। इसका परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि नौकरशाहों के खिलाफ 20 वर्ष पुराने केस में भी अभियोजन नहीं मिल पा रहा है। इस कारण भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी रिटायर भी होते जा रहे हैं। जानकारों का कहना है कि जो सिस्टम भ्रष्टों को जेल पहुंचाने के लिए बना है, वही बड़े साहबों का सुरक्षा कवच भी है। मप्र में आईएएस अफसरों के खिलाफ 31, आईपीएस के खिलाफ 3 और आईएफएस पर 2 मामले लोकायुक्त पुलिस में दर्ज हैं। एक आईएएस पर तो 26 केस 10-12 साल से दर्ज हैं, लेकिन 25 में अभियोजन की स्वीकृति तक नहीं दी गई। हैरानी की बात है कि ये अफसर अब रिटायर हो चुके हैं। ऐसे ही पांच आईएएस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, उनकी जांच जारी है। इनमें से तीन रिटायर हो चुके हैं, जबकि एक अन्य की मौत हो चुकी है। ईओडब्ल्यू में भी चार आईएएस के खिलाफ केस चलाने की स्वीकृति मांगी गई है। यहीं 15 साल पुराने मामले अटके पड़े हैं। मप्र में बड़े साहबों के मामले सालों अटके रहते हैं, जबकि राजस्थान में सिस्टम इससे ठीक उलट है। वहां ऐसे केस की जांच और कार्रवाई एसीबी करती है। वहां कई आईएएस-आईपीएस ट्रैप हो चुके हैं और जेल जा चुके हैं।
नियम 3 माह का, वर्षों बाद भी स्वीकृति नहीं
भ्रष्टाचार के मामलों में राज्य शासन के नियमानुसार चार माह में अभियोजन की स्वीकृति देनी होती थी। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दृष्टि से यह अवधि घटाकर तीन माह कर दी है, जो सभी राज्यों में लागू है। कुछ विशेष परिस्थितियों में अधिकतम चार माह तक की यह अवधि हो सकती है। उज्जैन की दताना-मताना हवाई पट्टी को निजी कंपनी को लीज पर देने के बाद कंपनी से नाइट पार्किंग शुल्क वसूली में आर्थिक अनियमितता की शिकायत हुई थी।
इसके आरोप में जिले में पदस्थ रहे तत्कालीन कलेक्टर भी घिर गए थे। मामले में चार आईएएस अधिकारियों सहित पीडब्ल्यूडी के इंजीनियरों और कंपनी के अधिकारियों के विरुद्ध प्रकरण कायम कर दो वर्ष पहले अभियोजन स्वीकृति मांगी गई थी, पर अभी तक नहीं मिली। इसमें तीन सेवानिवृत्त आईएएस अजातशत्रु श्रीवास्तव, कवींद्र कियावत, बीएम शर्मा और प्रमुख सचिव संस्कृति शिवशेखर शुक्ला का नाम है। कटनी की पूर्व कलेक्टर अंजू सिंह बघेल (अब सेवानिवृत्त) के विरुद्ध एक आदिवासी की जमीन की बिक्री में अनियमितता के आरोप में ईओडब्ल्यू ने वर्ष 2011 में प्रकरण कायम किया था। मामले में लगभग 13 वर्ष बाद 2024 में अभियोजन की अनुमति मिल पाई। वरिष्ठ अधिवक्ता अजय गुप्ता का कहना है कि स्वीकृति देने या नहीं देने का निर्णय तीन माह के भीतर करना चाहिए। उसका दबाकर रखना गलत है। इस निर्णय के लिए कुछ विशेष नहीं करना है। जांच अधिकारी की ओर से जो प्रतिवेदन आता है उस पर निर्णय करना होता है। अभियोजन स्वीकृति नहीं मिलने से आरोपित को लाभ मिलता जाता है।
30 मामलों में अभियोजन की स्वीकृति नहीं मिली
भ्रष्टाचार के विरुद्ध मामलों में जांच एजेंसियां और सरकार का रवैया बहुत ही ढीला रहा है। आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारियों के विरुद्ध लगभग 30 मामलों में अभियोजन चलाने की स्वीकृति ही नहीं मिली है। इन प्रकरणों में लगभग 35 वर्तमान व पूर्व आईएएस और राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शामिल हैं। कुछ मामले तो 15 से 20 वर्ष पुराने हैं। इनमें अकेले 25 मामले सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी रमेश थेटे के विरुद्ध अभियोजन स्वीकृति के लिए लंबित हैं। उज्जैन में अपर आयुक्त रहते सीलिंग की जमीन के आवंटन में गड़बड़ी के आरोप और पद के दुरुपयोग के मामले में उनके विरुद्ध वर्ष 2013 में 22 प्रकरण कायम किए गए थे। मामलों में राजस्व विभाग के अधिकारी कर्मचारियों को भी आरोपित बनाया गया था। वर्ष 2013 से इन प्रकरणों में अभियोजन चलाने की स्वीकृति मांगी जा रही है जो आज तक नहीं मिली है।
सरकार के दावे हवाहवाई
छोटे कर्मचारियों के मामले में विभाग अभियोजन की स्वीकृति देने में अधिक देर नहीं लगाते, पर बड़े अधिकारियों के मामले में स्वीकृति देने में हाथ-पैर फूल जाते हैं। हर विधानसभा सत्र में अभियोजन स्वीकृति में देरी का मामला विपक्ष उठाता है। सरकार त्वरित कार्यवाही का दावा करती है, पर सच्चाई यह है कि आज भी लोकायुक्त में दर्ज पौने तीन सौ से अधिक और ईओडब्ल्यू के 30 मामलों में 75 आरोपितों के विरुद्ध अभियोजन स्वीकृति संबंधित विभाग या केंद्र सरकार से नहीं मिली है। बता दें कि अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के मामले केंद्रीय कार्मिक व प्रशिक्षण विभाग से भी अनुमति की आवश्यकता होती है। इस दो तरह दोनों जांच एजेंसियों के अभियोजन स्वीकृति के 300 से अधिक प्रकरण संबंधित विभागों में लंबित हैं। इनमें एक प्रकरण में एक से लेकर अधिकतम 18 आरोपित तक हैं।