83 की असफलता पर बोले कबीर खान…..पैसा नहीं दिल जीत रही है मेरी फिल्म….

कबीर खान

नई दिल्ली/बिच्छू डॉट कॉम। 1983 विश्वविजय पर बनी फिल्म 83 के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को लेकर चारांे ओर कबीर खान की फिल्म को असफल ठहराया जा रहा है लेकिन अब इस मामले मंे खुद कबीर खान ने मोर्चा संभालते हुए कहा है मुझे फिल्म के कलेक्शन की परवाह नहीं क्योंकि मेरी फिल्म लोगों का दिल और भावना दोनों जीतने में सफल रही है। आईए आपको और बताते हैं कि कबीर खान का इस मुद्दे पर क्या कहना है।  1983 में भारतीय एक ऐसी घटना के चश्मदीद बने थे, जो किसी चमत्कार से कम नहीं थी। अभावों से जूझती भारतीय क्रिकेट टीम ने अपना पहला विश्व कप जीता था, वो भी वेस्ट इंडीज जैसी ताकतवर और सक्षम टीम को हराकर। जज्बे, जोश और जुनून की इस कहानी को कबीर खान ने पर्दे पर उतारा। रणवीर सिंह कप्तान कपिल देव बने और फिर कैमरे के सामने 1983 का विश्व कप दोबारा खेला गया। 24 दिसम्बर को रिलीज हुई फिल्म ने सिनेमाघरों में एक हफ्ता पूरा कर लिया है। वरिष्ठ पत्रकार मनोज वशिष्ठ ने फिल्म के निर्देशक कबीर खान से 83 की बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट समेत विभिन्न पहलुओं पर बात की। कबीर खान कहते हैं कि ओमिक्रोन के डर के जिस माहौल में हमने फिल्म रिलीज की है और जिस तरह हर रोज नये-नये प्रतिबंध आ रहे हैं, ऐसे में पब्लिक के रिएक्शन और बॉक्स ऑफिस में बहुत अंतर पड़ रहा है। इस फिल्म के लिए हमें जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं, मैं आसानी से कह सकता हूं कि मेरी किसी फिल्म को पहली बार मिल रही हैं। लोगों में यह जानने का उतावलापन है कि आखिर 83 में क्या हुआ था? इस सब को जज्ब करने में मुझे भी वक्त लग रहा है, मगर दुर्भाग्य से हम जिस दौर में हैं, कुछ कह नहीं सकते। उन्होंने कहा कि हमने इतनी प्लानिंग की, दो साल तक इंतजार किया। ऐसा लग रहा था कि पूरा पैनडेमिक चला जाएगा। सब कुछ खुलने लगा था, फिल्में भी अच्छा प्रदर्शन करने लगी थीं और फिर, जिस दिन 83 को रिलीज किया, उसी दिन दो राज्य नाइट कर्फ्यू में चले गये। दूसरे दिन तक चार और राज्यों में नाइट कर्फ्यू हो गया। अब दिल्ली में भी सिनेमाघर बंद हो गये। यह चीजें किसी के कंट्रोल में नहीं हैं। पूरी दुनिया ही पैनडेमिक से जूझ रही है। खुशी इस बात की है कि जो लोग थिएटर्स में देख पा रहे हैं, वो इस अनुभव का आनंद उठा रहे हैं। जबरदस्त फीडबैक आ रहा है। फिल्म को लेकर वर्ड ऑफ माउथ होने लगा है। आगे माहौल कैसा होगा, क्या होगा? पता नहीं, लेकिन कहते हैं ना, हर अच्छी फिल्म को दर्शक मिल ही जाते हैं, तो वो ऑडियंस इस फिल्म को मिलेगी ही मिलेगी। इस फिल्म के लिए हमें मीडिया की तरफ से भी जो सपोर्ट मिला है, वो अभूतपूर्व है.उन्होंने कहा कि एक फिल्ममेकर के तौर पर मैं इस बात में शिद्दत से यकीन करता हूं कि फिल्ममेकर को अपनी खुद की श्गट इंस्टिंक्ट से फिल्म बनानी चाहिए। दूसरे के बारे में सोचकर फिल्म बनाएंगे तो गड़बड़ हो जाएगी, क्योंकि आप उसे जानते नहीं हैं। आपको मालूम ही नहीं है कि वो कैसे रिएक्ट करने वाले हैं। अगर आप एक संतुलित और सम सोच रखने वो व्यक्ति हैं तो आपको पता होता है कि आपकी तरह सोचने वाले काफी लोग हैं। ज्यादातर लोग आपकी विजन से इत्तेफाक रखेंगे। यह सब सोचकर मिलेनियल्स के लिए कोई चेंज नहीं किया। बस यह था कि इस पीढ़ी को इस कहानी से परिचित करवाना है। कुछ ऐसे दर्शक, जो 40-45 के ऊपर हैं, उन्हें तो सब कुछ मालूम है। 50 साल के ऊपर के कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें  एक-एक बॉल याद होगी, लेकिन जो उस वक्त पैदा नहीं हुए थे, उन्हें यह बताना कि ऐसा भी कुछ हुआ था, उद्देश्य था, क्योंकि आज क्रिकेट का जो चरित्र है, वो उस वक्त से बहुत अलग है। उस वक्त का माहौल अलग था, मोटिवेशन अलग थे, लॉजिस्टिक्स और फाइनेंशियल सपोर्ट नहीं था। अभी तो क्या है कि टीम को सपोर्ट करने के लिए भी कई टीमें जाती हैं। उस वक्त सिर्फ एक आदमी पीआर मान सिंह, जो मैनेजर भी थे, सब कुछ थे। आप साचिए जरा, वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम के पास कोच तक नहीं था, उस स्तर का संघर्ष था। 15 पाउंड में खाना-पीना भी करना पड़ता था। कपड़े भी धोने पड़ते थे। मुझे लगता है कि जिस पीढ़ी ने यह सब नहीं देखा, उसके लिए यह एक दिलचस्प खोज की तरह है। कबीर ने बताया कि वो जो एक पूरा प्रोसेस था, बहुत अहम था। सारे कलाकार लिविंग लीजेंड्स का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हालांकि, मैंने सभी को साफ-साफ बोला था, रणवीर को भी बोला था, यह कोई लुक-अ-लाइक प्रतियोगिता नहीं है। उनकी तरह दिखकर उनकी नकल नहीं करनी है। बल्कि, उनका जो व्यक्तित्व है, उसे ग्रहण करना है। यह प्रोसेस बहुत लम्बा था। पहले प्लेयर और आखिरी प्लेयर की कास्टिंग में डेढ़ साल का अंतर था। डेढ़ साल हमारी कास्टिंग चली। 83 का पूरा क्रेडिट मैं अपने एक्टर्स को दूंगा, क्योंकि मैं बतौर डायरेक्टर उन्हें कंट्रोल कर सकता हूं, सिस्टम बना सकता हूं, ट्रेनिंग करवा सकते हैं, मैटेरियल उपलब्ध करवा सकते हैं, प्लेयर्स से मिलवा सकते हैं, लेकिन उस सबको यूज करना और एक्सप्लॉइट करना कलाकारों का काम है, जो इन लड़कों ने बखूबी किया। मीडिया में  रिपोर्ट होता था कि यह कपिल देव की बायोपिक है। हम हमेशा कहते थे कि यह जून 1983 के 25 दिनों की कहानी है। यह पूरी एक टीम की कहानी है, कैसे पूरी टीम ने जुड़कर वर्ल्ड कप जीता। हां, उसमें कपिल देव का बहुत योगदान था। वो कप्तान भी थे, और एक खिलाड़ी के तौर पर भी उनका योगदान बहुत बड़ा है। लेकिन अंततरू यह क्लासिक टीम फिल्म है।

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