- लाजपत आहुजा
यह माना जाता है लिखने के मामले में दो वर्ग हैं । एक इस पक्ष में हैं कि जैसा बोला जाये ,वैसा लिखा जाये। दूसरे इसकी वकालत करते हैं कि जैसा लिखते हैं , वैसा बोला जाये। विनय उपाध्याय महाराज को जिस किसी ने सुना है और पढ़ा है , वह मानेंगे यह जाना-माना कलासमीक्षक पहली वाली प्रजाति का है। इसकी गवाही उनकी किताब सफ़ह पर आवाज़ देती है। यह बहुत सारी हस्तियों के साक्षात्कारों पर केन्द्रित है। साक्षात्कार और संस्मरण वैसे भी बहुत आनंद देते हैं फिर यह तो साहित्य और कला के सारे पक्षों के साथ दांये, बांयें और यहां तक कि मध्य को अपने में समेटे हैं। कई मुद्दे तो बहुत संवेदनशील हैं, जिसे विनय ने न काहू से दोस्ती न काहू से बैर वाले अंदाज में परोस दिया है। सफ़ह पर आवाज़ की बात छंद से शुरू करें तो यहां नीरज हैं जो खुले आम घोषणा कर रहे हैं कि – कविता कभी किताब में जीवित नहीं रही है, हमेशा छन्द में पहुंची है होंठ तक। समाज के पास वही पहुंचेगा जो होंठों पर बैठा होगा।श्री राम परिहार भी इसे आगे बढ़ाते हैं कि पहले कविता का गीतात्मक स्पर्श होता था। अब कविता ने छंद को छोड़ दिया है। कविता के लिये यह जरूरी है। दूसरी ओर अशोक बाजपेयी तो यह कहते कि हमने पढ़े कि पचास साल की कविता छंद मुक्त है। साथ ही वह यह भी कहते हैं कि सच यह है कि छंदमुक्त कविता में भी छंद है। हाँ,आसानी से पहचान में नहीं आता।
साहित्यकारों और उनकी राजनीति पर भी दिलचस्प आवाज़ें संग्रह में हैं।प्रभाकर श्रोत्रिय मानते हैं कि मध्यप्रदेश के नरेश मेहता जी का उचित मूल्यांकन इसलिये नहीं हुआ क्योंकि , उन्हें राइटिस्ट खाने में डाल दिया गया। इतनी बड़ी प्रतिभा रेयर है। विचारों से मार्क्सवादी शहरयार मानते हैं कि साहित्य राजनीति से परे है।वे कहते हैं कि यह क्या बात हुई कि कोई सम्मान मैं इसलिये न लूँ कि सरकार भाजपा की है। वे कहते हैं कि सरदार जाफरी ने एक बार कहीं कमल के फूल का जिक्र कर दिया तो वे जात बाहर हो गए। यह क्या बात हुई। शायर अली सरदार जाफरी ने फरमाया कि शब्द दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। यह कभी नहीं मरेगा। साथ ही यह भी कहते है अब भारत भवन में न जाइये। साहित्य में राजनीति लाने की टीस संतोष चौबे की भी दिखती है।अशोक बाजपेयी के साहित्यिक कार्यक्रमों में अभिजात्य के आरोपों के बीच चौबे जी के कार्यक्रमों में केवल अभिजात्य के साथ चकाचौंध भी है। वे इस मामले में शायद बाजपेयी जी से एक कदम आगे हैं क्योंकि यह आयोजन वे अपने अर्थसंकल्प से करते हैं।उन्हें यह अफसोस है कि मार्क्सवादियों का एक खेमा उनके कार्यक्रमों से परहेज करता है।अपने समर्थन में वह शहरयार का उल्लेख करते हैं। यह सब सीधे -सादे नहीं कहा पर सब अनाड़ी थोड़े ही हैं। जो दृष्टान्त मैंने दिये वे तो नमूने भर हैं। विनय उपाध्याय के इस मूल्यवान संग्रह में बहुत कुछ है। इसकी शेल्फ वैल्यू लंबी है। इसमें कला साहित्य की अज़ीम शख़्सियतों ने उनसे खुलकर बात की है। ऐसा कोई नाम शायद ही होगा कि जिसका नाम आप सोचें और वो नाम इसमें न हो।साक्षात्कारों में तिथि का उल्लेख नहीं है।शायद जानबूझकर नहीं किया गया। कारण कही हुई बातों का मूल्य /प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है।पाठक कह सकता है कि अगर वैसा होता तो शायद इनके बेहतर अर्थ समझ सकते थे।
खैर अनुजवत विनय उपाध्याय को इस इन्द्रधनुषी शाहकार के लिये बधाई,शुभेच्छाएं।