– अरुण दीक्षित
देश में ‘‘टू पार्टी सिस्टम’’ की बात बहुत समय से की जाती रही है। हालात को देखते हुए इसे समय की जरूरत भी कहा जा सकता है। लेकिन देश में जो राजनैतिक परिदृश्य है उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि ऐसा हो पाएगा! पर अपना एमपी ऐसा राज्य है जिसने खुद को दो राष्ट्रीय पार्टियों तक ही सीमित रखा है। हालांकि कई राज्यों में सीधी टक्कर दो दलों में ही होती रही है। लेकिन वे क्षेत्रीय दल हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी उतनी बड़ी पहचान नहीं है। जहां तक एमपी का सवाल है,राज्य के गठन से लेकर अब तक यहां कांग्रेस और बीजेपी में ही मुकाबला रहा है। एक बार संविद सरकार का प्रयोग हुआ लेकिन वह भी कांग्रेस की ही उपज था।
एमपी में आज तक कोई तीसरा दल अपनी जगह नहीं बना पाया है और न ही यूपी, बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक की तरह यहां मल्टी पार्टी व्यवस्था बन पाई है।
ऐसा नहीं है कि एमपी में इन दोनों दलों के अलावा कोई दल अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाया है। तीन दशक पहले तक समाजवादी और वामपंथी यहां काफी मजबूत स्थिति में थे। अविभाजित मध्यप्रदेश में सभी दलों की मौजूदगी थी। मामा बालेश्वर दयाल, पुरुषोत्तम कौशिक, यमुना प्रसाद शास्त्री और एच वी कामथ जैसे दिग्गज समाजवादियों का कार्यक्षेत्र एमपी ही था। होमी दाजी, शाकिर अली और रामलखन शर्मा जैसे वामपंथी नेताओं ने भी इस राज्य में अपने झंडे गाड़े थे। लेकिन इनके दल या फिर बाद के सालों में आस-पास के राज्यों में बने नए दल एमपी में अपनी जमीन तैयार नहीं कर पाए हैं। आपातकाल के बाद यहां भी जनता सरकार बनी थी। आज भी जनता दल के एक धड़े से जुड़े समाजवादी नेता शरद यादव एमपी के ही हैं। लेकिन सत्ता में हिस्सा बटाने की स्थिति में वे कभी नही रहे। बाद के सालों में यूपी के सियासी मैदान के अहम खिलाड़ी सपा और बसपा ने यहां पांव जमाने की भरपूर कोशिश की। उन्हें थोड़ी बहुत सफलता भी मिली। लेकिन बाद में उनके एमएलए या तो बिक गए या फिर बिखर गए ।
1993 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब कांग्रेस ने बड़ी उलटफेर की थी। बीजेपी की सुंदरलाल पटवा सरकार को बाबरी मस्जिद गिराए जाने की वजह से बर्खास्त किया गया था। इसलिए यह माना जा रहा था कि मध्यावधि चुनाव में जीत बीजेपी की ही होगी। लेकिन जीत कांग्रेस की हुई। दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने, उस समय बसपा तीसरी ताकत के रूप में उभरी थी।उसके एक दर्जन विधायक जीते थे। इनमें 2 छत्तीसगढ़ के थे।बाकी विंध्य और ग्वालियर चंबल संभाग से जीत कर आए थे। तब यह माना गया था कि बसपा एमपी में तीसरी ताकत बनेगी। लेकिन कुछ समय बाद उसके विधायक बिखर गए। कुछ कांग्रेस में चले गए। एक ने अलग पार्टी बना ली। 1996 के लोकसभा चुनाव में उसके दो सांसद,रीवा और सतना से जीते थे। सतना में तो बसपा के अनजाने प्रत्याशी ने दिग्गज नेता अर्जुन सिंह को हरा कर इतिहास रच दिया था। 1991 में लोकसभा में उसका खाता भी एमपी की रीवा सीट से ही खुला था। बाद के चुनावों बसपा लगातार बिखरती गई। आज भी उसके दो विधायक हैं। लेकिन दोनो सत्ता के साथ ही हैं।वह चाहे कांग्रेस की हो या बीजेपी की। 1998 के विधानसभा चुनाव में सपा के प्रत्याशी भी जीते थे। लेकिन वे भी अन्य दलों में चले गए। 2003 के विधानसभा चुनाव में यूपी में मुलायम की सरकार थी। इस वजह से कांग्रेस के कई नेताओं ने साइकिल की सवारी की लेकिन एकाध को छोड़ कोई भी विधानसभा नही पहुंचा।जो पहुंचे वे भी बाद के सालों में कांग्रेस या बीजेपी में चले गए। अभी भी सपा का एक विधायक है। लेकिन वह भी सत्ता के साथ है। जब तक कांग्रेस थी तब तक कांग्रेस के साथ था। बीजेपी आ गई तो अब उसके साथ है। एक सच यह भी है कि किसी भी दल ने पूरी ताकत से कोई भी चुनाव एमपी में नही लड़ा। शुरूआती जीत के बाद बसपा अन्य दलों के नेताओं का अड्डा और वोट काटू पार्टी बन कर रह गई। सपा तो उस स्थिति में भी नही है। ऐसा नहीं है कि एमपी की जनता ने प्रयोग नहीं किए हैं। एमपी देश का पहला राज्य है जिसने थर्ड जेंडर की शबनम मौसी को विधानसभा में भेजा था। शबनम ने 1998 में कांग्रेस के दिग्गज नेता बिसाहुलाल सिंह को हराया था। उस समय कटनी और सागर के महापौर भी थर्ड जेंडर के ही थे। कई नगर पालिकाओं में पार्षद भी इसी वर्ग के लोग बने थे। एमपी में तीसरी ताकत बनने की कोशिश अभी भी चल रही है। आम आदमी पार्टी पिछले कई साल से इसी जुगाड में लगी है। दिल्ली के बाद पंजाब की ऐतिहासिक जीत ने उसका हौसला बहुत बढ़ा दिया है। पिछले दिनों हुए पालिका चुनावों में उसका एक मेयर और कुछ पार्षद जीते भी हैं।
आप के साथ पहले नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े लोग बड़ी संख्या में जुड़े थे। अन्ना की वजह से भी कुछ लोग उसके साथ आए थे। लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उतरे उसके प्रत्याशी अपनी जमानत भी नही बचा पाए। देखना यह होगा कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में वह कितनी ताकत लगाती है। जनता उसका कितना साथ देती है। अब तक जो होता रहा है उसे देखते हुए यह लग रहा है कि एमपी की जनता थर्ड जेंडर को तो पसंद कर सकती है।पर थर्ड फ्रंट उसे पसंद नही है। करे भी क्यों! क्योंकि जिन्हें उसने मौका दिया वे पहला मौका पाते ही बिक गए।य् ाा फिर उन्हीं दो दलों की गोद में जाकर बैठ गए। इसलिए ताली बजाने वाला थर्ड जेंडर तो उसने चुना पर चुटकी पर नाचने वाले थर्ड फ्रंट को उसने नकार दिया। आखिर अपना एमपी गज्जब जो है।है कि नहीं! बोलिए..बताइए.!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)