- अवधेश बजाज कहिन
कि सी नवाचार को हाहाकार वाली रुकावटों से बचाते हुए अमली जामा पहनाना आसान नहीं होता है। इधर कुछ नया करने की कल्पना ही की जाती है और उधर जड़वादियों के दुराग्रह आड़े आने लगते हैं। फिर जब बात किसी के हक और हित के विपरीत तरीके से प्रभावित होने वाली हो तो अड़चन में विध्न संतोषी भावना का तड़का लग जाता है और बात को लेकर आगे बढ़ना नामुमकिन जान पड़ने लगता है। इसके अनंत उदाहरण हैं। प्रासंगिकता के लिहाज से मध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू होने का उदाहरण दिया जा रहा है।
भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की जा चुकी है। कहा जा सकता है कि एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान ने जो कहा, वह उन्होंने कर भी दिखाया है। करीब चालीस साल पहले ऐसा ही कहा तो अर्जुन सिंह ने भी था। सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए पांच लाख से अधिक की जनसंख्या वाले भोपाल, इंदौर, जबलपुर तथा ग्वालियर में यह सिस्टम लागू करने की घोषणा की थी। ये वह दौर था, जब राज्य में अफसरशाही के शाही तेवर अर्जुन सिंह के सामने पूरी तरह ढीले पड़ जाते थे। सभी जानते थे कि आईएएस लॉबी कभी भी इस सिस्टम को लागू होने देना नहीं चाहेगी। कलेक्टर कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी जिला-स्तरीय हुकूमत में पुलिस कमिश्नर को उनके आगे कर दिया जाए। सूट-बूट वाले प्रशासन तथा खाकी के बीच की यह खींचतान रोकना दिग्गज से दिग्गज खाकी वालों के लिए भी आसान नहीं था। ऐसा ही हुआ। अर्जुन सिंह की इस सिस्टम को लागू करने की घोषणा को भी वल्लभ भवन की भूल-भुलैया में जैसे कहीं दफन कर दिया गया। सिंह भले ही राजनीति के चाणक्य कहे जाते रहे, किन्तु इस मामले में वह भी अफसरशाही के आगे कमजोर ही साबित हुए। यही हश्र दिग्विजय सिंह द्वारा इस दिशा में की गयी कोशिशों का हुआ।
वही सिस्टम, वही मानसिकता वाले अफसर, वही कोशिशें और पुरानी असफलताओं के चुनौतीपूर्ण उदाहरण, तो फिर इन सबके बीच शिवराज कैसे सफल हो गए? ये यदि शोध का विषय नहीं है तो कम से कम इसे अध्ययन के विषय से कम तो नहीं ही आंका जा सकता है। बीते नवंबर में शिवराज ने पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की बात कही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुई डीजीपी-आईजी की कॉन्फ्रेंस में मध्यप्रदेश के डीजीपी विवेक जौहरी ने अनौपचारिक रूप से इस निर्णय की जानकारी प्रधानमंत्री को प्रेषित की। मोदी ने इसके लिए शिवराज की खुले हृदय से सराहना की।
इधर, अतीत के झरोखे खोलकर यह याद किया जाने लगा कि इस व्यवस्था को लागू करने में कितनी दुश्वारियां हैं और कैसे इनके चलते ही पहले भी इस प्रणाली को धरातल पर नहीं उतारा जा सका था। लेकिन सारे किंतु-परंतु को दरकिनार कर शिवराज ने यह प्रणाली लागू कर दी। यह आसान तो बिलकुल भी नहीं रहा होगा। अंग्रेजी शासनकाल वाली सोच में लिपटी आईएएस लॉबी ने एक बार फिर मामले को उलझाने की कोशिशों में कोई कसर नहीं उठा रखी होगी। ऐसी जटिल परिस्थितियों के बीच से गुजरते हुए शिवराज ने पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू कर यह यकीन कायम रखा है कि लोकतंत्र में जनता का कल्याण सर्वोपरि है और इसके लिए कुछ कठोर कदम उठाने के लिए वह इच्छा शक्ति चाहिए, जो शिवराज ने एक बार फिर प्रकट की है।
अब यह प्रणाली कितनी सफल होती है, यह भविष्य बताएगा। फिलहाल यह कामना की जाना चाहिए कि यह नवाचार पूरी तरह से प्रभावकारी साबित हो जाए। इसके लिए दो सर्वथा विपरीत ध्रुवों के बीच संतुलन कायम किया जाना आवश्यक रहेगा। वह हैं, नौकरशाही का अहं और पुलिस कमिश्नर का वहम। आईएएस लॉबी की इस मसले पर तिलमिलाहट लंबे समय तक कायम रहना तय है। ये उस अफसर समूह की बात है जो अवसर मिलते ही अपनी बिरादरी का अगला-पिछ्ला सारा हिसाब चुकता कर देता है। पुलिस कमिश्नर सिस्टम को लेकर ऐसा न होने पाए, इसका पुख्ता बंदोबस्त करना शिवराज की बड़ी चुनौती रहेगी। साथ ही यह भी समस्या उनके मुंह बाएं खड़ी है कि ताकत मिलने के बात कहीं आईपीएस लॉबी बेलगाम न होने लगे।
वह स्वयं के सर्वशक्तिमान होने की गलतफहमी न पाल ले। इन दो तत्वों को व्यवस्था के तराजू पर संतुलित तरीके से बनाये रखना आसान नहीं होगा। लेकिन आसान तो ऐसा बहुत कुछ नहीं था, जो इससे पहले भी मुख्यमंत्री ने कर दिखाया है। इसलिए माना जा सकता है कि इन आसन्न संकटों की कोई काट भी चौहान ने पहले से ही निकाल रखी हो। फिलहाल तो इतना कहा जा सकता है कि शिवराज ने एक बार फिर सुशासन के लिए सख्त अनुशासन और विकास की मिसाल कायम की है।