- हरीश फतेह चंदानी
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अब पछताए क्या हो…
आदिवासी समाज हमेशा से कांग्रेस का वोटबैंक रहा है। 2018 में इसी समाज ने कांग्रेस की सत्तावापसी कराई थी। लेकिन सत्ता आने और फिर जाने के बाद से कांग्रेस अपने बड़े वोट बैंक को भूल गई थी। कांग्रेस की कमजोरी को देखते हुए भाजपा ने जनजातीय गौरव दिवस के बहाने आदिवासियों को साधने की कोशिश की तो कमलनाथ को भी अपने बड़े वोट बैंक की याद आई। पार्टी ने उनके कहने पर जबलपुर में आदिवासियों का मजमा जमाया। लेकिन कांग्रेस की नींद उस वक्त उड़ गई जब बिरसा मुंडा के जन्मोत्सव कार्यक्रम में कुर्सी खाली रह गईं। पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ को तो इसकी आदत ही नहीं कि सामने कुर्सी खाली रह जाएं। सो, उन्होंने पीसीसी में प्रदेश की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 विधानसभा सीटों के नेताओं की बैठक बुलाई। सूत्र बताते हैं कि बैठक में आदिवासी नेताओं ने कमलनाथ को बताया कि अब पछताए क्या हो, जब चिड़िया चुग गई खेत। सूत्रों का कहना है कि बैठक में आदिवासी नेताओं ने प्रदेश अध्यक्ष को फीडबैक दिया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर इन दिनों भगवागान हो रहा है। आदिवासी और दलित भगवा रंग में रंगे इससे पहले दोनों वर्गों को साधने के लिए पार्टी कोई बड़ा कदम उठाए।
महल ने बढ़ाया हौसला
भगवा दल में इन दिनों नेतापुत्र भारतीय संस्कृति की यह प्रसिद्ध लोकोक्ति दोहरा रहे हैं… मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। दरअसल, हाल ही में हुए उपचुनाव में पार्टी ने जिस तरह नेतापुत्रों को टिकट न देकर यह संदेश दिया था कि भाजपा में वंशवाद नहीं चलेगा, उससे कई नेतापुत्रों ने हार मान ली थी। लेकिन गत दिनों ग्वालियर के महल की चौथी पीढ़ी ने राजनीति में दस्तक दी, उससे नेतापुत्रों का हौंसला एक बार फिर बढ़ गया है। उन्हें उम्मीद है कि महाआर्यमान के सहारे उनकी भी नैय्या पार लग जाएगी। इसलिए पिछले कुछ दिनों में नेता पुत्रों के एकाएक सक्रिए होने से राजनीति में भी हलचल मच गई है। सारे पुत्र दिग्गजों के हैं और उन दिग्गजों के पास कार्यकर्ताओं की फौज है, लिहाजा इन पुत्रों की लांचिंग में अधिक परेशानी नहीं आएगी। कुछ नेतापुत्रों का तो यहां तक कहना है कि हमें किसी भी कसौटी पर कसकर देखा जाए, हम पूरे खरे निकलेंगे। इस पर पार्टी के एक बड़े नेता का कहना है कि इन नेता पुत्रों को भी जनसेवा की अग्नि परीक्षा में पास होने के बाद ही अपने दम पर राजनीति में प्रवेश करने देना चाहिए। उनके आगे-पीछे चलने वाली भीड़ उनके पिता की न होकर खुद के परिश्रम से जोड़े गए युवाओं की हो। ऐसा हुआ तो ही भविष्य के इन नेताओं को राजनीति की असली परिभाषा समझ आएगी। अब देखना यह है कि मन में उत्साह भरकर राजनीति के डगर पर सक्रिय नेतापुत्रों की दाल गलती है कि नहीं।
प्रेमी जोड़े की दुश्मनी चर्चा में
पुलिस के अफसर ऊपर से कितने भी कड़क नजर आएं, लेकिन उनके अंदर भी एक दिल होता है, जो प्यार के लिए उतावला होता है। इसी उतावलेपन में वे अक्सर किसी न किसी को दिल दे बैठते हैं। ऐसे ही दो दिलदार आईपीएस अधिकारियों के प्यार और तकरार के किस्से प्रदेश की प्रशासनिक वीथिका में इन दिनों चर्चा में हैं। कभी इस प्रेमी जोड़े के प्रेम की चर्चा होती थी, अब इनके द्वेष की। 2007 बैच के दोनों आईपीएस अधिकारी वर्तमान में डीआईजी पद पर आसीन हैं। कभी स्थिति यह थी कि दोनों अफसर एक-दूसरे के बिना अधूरे माने जाते थे। लेकिन अब यह कट्टर दुश्मन बन गए हैं। कभी साहब पर जान छिड़कने वाली महिला आईपीएस इन दिनों साहब के खिलाफ शिकायतों की दुकान खोलकर बैठ गई हैं। सूत्रों का कहना है कि मैडम लगातार पुलिस विभाग के मुखिया के पास साहब की शिकायतें पहुंचा रही हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिरकार एक-दूसरे से प्रेम करने वाले एक ही बैच के दोनों आईपीएस अधिकारियों को हो क्या गया है। वैसे साहब तो चुप्पी साधे हुए हैं, लेकिन मैडम लगातार शिकायतें कर रही हैं। बताया जाता है कि दोनों के प्रेम के बीच आई दरार के कारण इनकी अच्छी जगह पोस्टिंग भी नहीं हो पा रही है। हालांकि इनकी तकरार को देखते हुए इनके बैच के कुछ अन्य अफसर सुलह कराने के प्रयास में लगे हैं। लेकिन दोनों सुलह के लिए तैयार नहीं है।
पनौती ढूंढ रहे वनाधिकारी
टाइगर स्टेट मप्र बाघों की मौतगाह बन गया है। 2018 में टाइगर स्टेट का दर्जा पुन: पाने के बाद से ही प्रदेश में लगातार बाघों की मौत हो रही है, लेकिन इस साल तो सारे रिकॉर्ड टूट गए हैं और अब तक करीब 40 बाघों की मौत हो चुकी है। इसको लेकर शासन-प्रशासन में बवाल मचा हुआ है। इसकी वजह यह है कि हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी बाघों की मौत रुक नहीं रही है। सूत्र बताते हैं कि वन विभाग के एक आला अधिकारी को किसी ज्योतिषी ने बताया है कि आपके विभाग में एक पनौती है, जिसके कारण सारे सरकारी प्रयास भी बाघों की मौत को नहीं रोक पा रहे हैं। विभाग के अधिकारी-कर्मचारी अब उस पनौती को ढूंढ रहे हैं। विभागीय सूत्रों का कहना है कि अभी तक की पड़ताल में यह तथ्य सामने आया है कि विभाग में जितने भी अधिकारी-कर्मचारी पदस्थ हैं, वे 2018 के समय से ही हैं। यानी जब मप्र को टाइगर स्टेट का दर्जा मिला था, उससे पहले से ही। ऐसे में सबकी निगाह विभागीय मंत्री कुंवर विजय शाह पर जा टिकी है। वन विभाग के एक अधिकारी तो रिकॉर्ड बताते हुए यह कहने से नहीं चूकते हैं कि जबसे कुंवर साहब मंत्री बने हैं, तब से विभाग की फजीहत हो रही है। हालांकि वे कहते हैं कि मुझे ज्योतिष पर विश्वास नहीं है, लेकिन कुछ तो ऐसा है, जिसके कारण सरकार और वन विभाग की कोशिशों के बावजूद बाघों की मौत रुकने का नाम नहीं ले रही है।
बंद केस बताएंगे विभाग का चरित्र
दूसरों के भ्रष्टाचार का हिसाब-किताब रखने वाले लोकायुक्त संगठन में पदस्थ अधिकारियों-कर्मचारियों की कार्यप्रणाली पर लगातार संदेह किया जाता है। अब यह संदेह इतना बढ़ गया है कि इसकी पड़ताल शुरू हो गई है। इससे लोकायुक्त संगठन में इन दिनों अजब सी हलचल है। बताया जा रहा है कि संगठन में इन दिनों कुछ बंद मामलों की फाइलें फिर से खोली जा रही हैं। सूत्र बताते हैं कि जिन मामलों की फाइलें पूर्व अफसरों द्वारा बंद कर दी गई हैं, उनमें बड़े घालमेल के संकेत मिले हैं। इससे लोकायुक्त में पदस्थ रहे कुछ रिटायर्ड अफसरों के माथे पर बल पड़ने लगा है। प्रशासनिक सूत्रों की मानें तो लोकायुक्त संगठन में पदस्थ रहे 1986 बैच के एक आईपीएस अधिकारी द्वारा खात्मा लगाए गए मामलों में बड़े स्तर पर गड़बड़ी की आशंका जताई गई है। इसलिए संगठन में उस समय जो मामले खत्म हो गए थे, उनकी फाइलें फिर से खोली जा रही हैं। सूत्र बताते हैं कि अपने कार्यकाल के दौरान खत्म हुए मामलों की फाइलें खुलने की खबर मिलते ही साहब पसोपेश में पड़ गए हैं। बताया जाता है कि साहब ने जिन मामलों की फाइल खत्म की थीं, उससे लोकायुक्त सहमत नहीं है। अब देखना यह है कि साहब द्वारा खत्म किए गए मामलों की फाइलें फिर से खुलती हैं तो उसके परिणाम क्या होते हैं। ऐसे बता दें कि प्रदेश की यह जांच एजेंसी हमेशा विवादों में रहती है।