
- राकेश श्रीमाल
नव जीवन में इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। हालांकि ऐसी बहुतेरी इच्छाएं होती हैं, जो यह जानते हुए भी पाली-पोसी जाती हैं कि इनका फलीभूत होना असंभव है। व्यक्ति को केवल अपनी इंद्रियों तक असीमित इच्छाओं को साकार करने का एक ऐसा दैहिक अधिकार मिला है, जिसे वह सकारात्मक अथवा नकारात्मक जामा पहना सकता है। पिछले वर्ष से शुरू हुए कोरोना-काल और उससे उपजे लॉकडाउन ने घर बैठे मानव जीवन के लिए समय व्यतीत करने उसकी नकारात्मक और अनैतिक इच्छाओं को ऐसे शिखर पर चढ़ाने का उपक्रम किया है, जिस पर चढ़ते हुए उसकी फिसलन भरी सतह से उसे बार-बार नीचे गिरना होता है। पिछले कुछ हफ्तों से, मीडिया न्यू नार्मल सनसनी की तरह राज कुंद्रा की बनाई पोर्न फिल्मों की चटपटी खबरों से लबालब भरा है, जो कि तथ्यात्मक मापदंड से सही भी है। कोरोना के बीते इन सत्रह महीनों में इस तरह की फिल्में देखने का ट्रेंड आश्चर्यजनक रूप से कई गुना बढ़ा है। यह ‘ट्रेंड’ राज कुंद्रा के ‘ट्रेड’ के लिए अनाप-शनाप धन कमाने का छप्पर-तोड़ ही साबित हुआ है।
आजकल अमूमन सभी ही अपने स्मार्टफोन पर टीवी न्यूज और फिल्में देखते हैं। लॉकडाउन ने इस ‘देखने’ की आधुनिक परम्परा को विस्तारित किया है और यह जीवन में लत की तरह शामिल हो गया है। यह भी सच है कि पोर्न फिल्मों में संवाद सुनने की जरूरत दर्शक नहीं समझता। उसके लिए दृश्य को ही देखना पर्याप्त होता है। वह आवाज को म्यूट कर देता है और केवल ‘देखने’ में विश्वास रखता है। जोसेफ बी विर्थलिन ने कहा है – ‘पोर्नोग्राफी का प्लेग हमारे चारों ओर मंडरा रहा है, ऐसा पहले कभी नहीं था। पोर्नोग्राफी अनैतिकता, टूटे हुए घरों और बिखर गए जीवन का एक दुष्चक्र लाती है। हमारी सहन करने की आध्यात्मिक शक्ति को पोर्नोग्राफी बहा रही है। पोर्नोग्राफी बहुत कुछ क्विकसैंड की तरह है। जैसे ही आप इस पर कदम रखते हैं, बहुत आसानी से इसमें फंस सकते हैं और इतनी दूर चले जाते हैं कि आपको गम्भीर खतरे का अहसास ही नहीं होता है। सबसे अधिक संभावना यह है कि आपको पोर्नोग्राफी के इस दलदल से बाहर निकलने के लिए सहायता की आवश्यकता होती है। इससे बेहतर है कि इसमें कभी कदम रखा ही नहीं जाए।’
मनोवैज्ञानिक और डॉक्टर पोर्न देखने की लत को हाइपरसेक्सयूअल डिसऑर्डर मानते हैं। हालांकि इस लत का निदान हमेशा ही विवादास्पद रहा है। कुछ पेशेवर और सलाहकार मानते हैं कि पोर्न देखना स्वयं में कोई समस्या नहीं है। यह दर्शक के अपने मानसिक दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। व्यसन या लत तीव्र रुचि और सहज रसास्वादन से कहीं अधिक बढ़कर है। यह एक ऐसी स्थिति है, जो मस्तिष्क और शरीर को बदल देती है और ऐसा ही करते रहने को मजबूर करती है। शोध बताते हैं कि लत शरीर की डोपामाइन प्रणाली को परिवर्तित कर देता है। पोर्न से दर्शकों के अपने रिश्ते भी प्रभावित होते हैं। दरअसल यह सहज सेक्स की अपेक्षा अवास्तविक अपेक्षाओं को मानसिकता में जगह दे देती है। इस सूचना प्रौद्योगिकी के समय में पोर्न तक पहुंचना बहुत सरल हो गया है। अब यह आपकी जेब में रखे फोन में है और इतना अधिक है कि एक व्यक्ति अपने पूरे जीवन में सब नहीं देख सकता। राज कुंद्रा जैसे धंधेबाज इसी बलबूते पर अपना अवैध कारोबार चला रहे थे। यद्यपि अमेरिकन एसोसिएशन आॅफ सेक्सुअलिटी एजुकेटर्स का तर्क है कि पोर्न की लत होने के बहुत कम सबूत हैं और इसकी लत का विचार पुराने और सम्भावित हानिकारक सांस्कृतिक मानदंडों में निहित है।
सिनेमा के आविष्कार के साथ ही पोर्न फिल्मों का भी भूमिगत ढंग से अभ्युदय हुआ था। उस समय भी समाज के भिन्न समूहों ने इसे अनैतिक माना था और इसे अश्लील करार दिया था। वैश्विक स्तर पर इस पर रोक लगाने के लिए देशों ने अलग-अलग कानून बनाए, लेकिन यह कवच ओढ़कर चलता रहा। 1970 का दशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पोर्न फिल्मों का स्वर्ण युग समझा जाता है। इसके बाद के दशक ने होम वीडियो आने से इसे घर-घर पहुंचा दिया। आज यह सालाना सौ बिलियन डॉलर का धंधा बन गया है। पोर्न शब्द फ्रांस में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में प्रचलित हुआ और अंग्रेजी में आते-आते इसे पचास वर्ष लग गए। आधुनिक पोर्न के संस्थापक के रूप में इतालवी लेखक पियत्रो अरे दिनो को श्रेय दिया जाता रहा है। फ्रांसीसी क्रांति में एक राजनीतिक उपकरण के बतौर भी एक्स-रेटेड सामग्री का इस्तेमाल किया गया। बहुत सारे पाठकों के लिए यह आश्चर्य हो सकता है कि ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, जापान, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका में पोर्न फिल्मों के लिए बड़े पुरस्कार समारोह सालाना आयोजित होते हैं और वे इतने लोकप्रिय और मुख्यधारा का हिस्सा बन गए हैं, जिनमें जाने-माने सितारे भी समारोह में अपना प्रदर्शन करते हैं। इन पुरस्कारों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जाता है और बाकायदा इसके लिए ज्यूरी होती है। इनमें सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित पुरस्कार एवीएन है।
भारतीय सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक परिवेश में यह सर्वथा वर्जित है। लेकिन यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों में इस तरह के छोटे वीडियो का लाखों की संख्या में उत्पादन हुआ है। राज कुंद्रा के पहले से चोरी-छुपे यह परम्परा प्रचलित है। हालांकि खजुराहो के मूर्ति शिल्प और कामशास्त्र जैसे ग्रन्थ को भारत अपनी उपलब्धि मानता रहा है। भारतीय आधुनिक कला में फ्रांसीस न्यूटन सूजा और जतिन दास ने न्यूडिटी को बड़े पैमाने पर चित्रित किया है और अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई है।
राज कुंद्रा जैसे व्यापारी इन फिल्मों को जिस प्लेटफॉर्म पर रिलीज करते हैं, उसमें कोई सेंसर नहीं है। लॉकडाऊन में बाढ़ की तरह आई वेब सीरीज ने भी इसका भरपूर फायदा कथानक के बीच मनचाहे दृश्यों से लिया है। एंड्रिया इवकीन की कही बात याद आती है कि अगर पोर्न से यौन तनाव दूर होता है, तो हम भूख से मर रहे लोगो को रेसिपी की किताबें क्यों नहीं भेजते। राज कुंद्रा वाला मामला वाकई गंभीर है। धन की लोलुपता ने हर क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का ही नुकसान किया है। डी एच लारेंस ने कहा था – ‘पोर्नोग्राफी दरअसल सहज सेक्स का अपमान करने और उसे गंदा और विकृत करने की कोशिश है।’ राज कुंद्रा ने वही किया है। उन्होंने व्यापक स्तर पर अश्लीलता की थाली परोसी है और इसे पूंजी बनाने की एक ऐसी मशीन में बदल दिया है, जिसमें हवस के सिवाए शेष कुछ भी नहीं।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं