
कनक तिवारी
हिन्दी फिल्मों के अभिनय इतिहास में चंद्रमोहन, मोतीलाल, प्राण, राजकुमार, संजीव कुमार जैसे अनेक चमकदार सितारे हुए हैं। राजकपूर और देवआनन्द व्यक्ति नहीं संस्थाएं रहे। नायकों की अनंत श्रृंखला में गुरुदत्त, राजेश खन्ना, शशि कपूर, अजय देवगन और आमिर खान जैसे उद्यमी कलाकार भुलाए नहीं जाएंगे। वर्षों की मेहनत और लगन के कारण शाहरुख को बादशाह खान होने का लोकप्रिय मर्तबा मिला। अभिनय के शिखर पर पहुंचे अमिताभ बच्चन को शहंशाह नायक होने का विशेषण मिला। बॉलीवुड में होंगे कई रसूखदार, मनसबदार, बादशाह और शहंशाह। यदि कला की सीढ़ियां चढ़ना ही हो, तो जाओ सबसे ऊंची मंजिल पर। वहां एक जहांपनाह हरदम रहेगा। उसका नाम है दिलीप कुमार। वे अमर हैं। वे वर्तमान में रहेंगे। आवाज का अर्थ केवल कंठ से निकलती हुई कुदरती ध्वनि से नहीं है। मौसिकी में कुंदनलाल सहगल की आवाज में अद्भुत खनखनाहट सुनाई पड़ती है। वह बेजोड़ है। कई खलनायकों की आवाज में मर्दाना दम है। मसलन प्राण, अमरीश पुरी और रजा मुराद वगैरह को आवाज का कुदरती तोहफा मिला है। दिलीप कुमार ने लेकिन आवाज को अपने हुक्मनामे के जरिए सर्कस का रिंग मास्टर बनकर वर्जिश कराई है। दर्शक हतप्रभ हो जाने के लिए उनकी फिल्में देखने जाते रहते। आंखें सबसे अधिक तेज अंग हैं। वे प्रकाश की गति से देख सकती हैं। चेहरे के बदलते भावों के लिए बाकी अंग निर्भर होकर आंखों के हुक्मनामे की तामील करते हैं। कई समर्थ कलाकार बाद में बॉलीवुड में अवतार बनकर छाए। उन्होंने भी त्रासदी नायकों के रूप में कथा के करुणा विमर्श को खुर्दबीन से देखकर अपने अभिनय से विस्तारित किया। वहां पीड़ा में टीसती सिम्फनी बहती है। सर्वख्यात हो चुके वे चरित्र त्रिआयामी होकर समाज में लेकिन दिलीप कुमार को आज भी ढूंढ़ रहे होंगे। वे हर त्रासद फिल्म के निभाये किरदार को उत्तरोत्तर चरित्रों के मुकाबिल बहुत महीन अंतर के जरिए समझ जाते हैं। इन चरित्रों की तरल संवेदनाएं वैसे तो एक ही त्रासद कोख से उपजी हैं। इसलिए सहोदर हैं, लेकिन वे किसी एक का ही प्रतिरूप नहीं हैं। दिलीप कुमार फकत धर्म, जाति, संस्कार, भूगोल या मौसम के तकाजों का उत्पाद नहीं हैं। उनकी ‘आत्मकथा’ की अंग्रेजी में प्रस्तुतकर्ता उदय तारा नायर को उन्होंने अपने गीता-ज्ञान से भी विस्मित किया। यही आदमी है जिसके पास निजी पुस्तकालय के अतिरिक्त किताबों का गोदाम घर भी है। अचानक फरमाइश कर वह किसी भी किताब को मंगवा लेता है। अपनी आराम कुर्सी में अधलेटा टेबिल लैम्प की रोशनी में इसे किताबें पढ़ते देखना अमूमन इनकी पत्नी सायरा बानो को ही ज्यादा नसीब है। फिल्मकथा में मौत से आंखमिचैनी करते उसे अपनी श्रेष्ठता का अहसास करा देना त्रासद चरित्रों के क्लाइमैक्स का अहसास होता है। दिलीप कुमार इस कला में भी मुहावरा बन गए हैं। नाटक (अर्थात सिनेमा) की यह लेखकीय रचना के ऊपर वरीयता का कारण बनती है। मसलन अमुक त्रासद कथा का नायक अपने कथा संसार के बाहर नहीं होता। एक के बाद एक कई त्रासद फिल्मों में आकर अलग अलग चरित्रों को जीकर, फिर उनके साथ खुद को दफ्नकर, नाटक का यह नायक जीवन और मौत के अभिसार का अद्भुत प्रवक्ता हो जाता है।
युसूफ खान मनुष्य का नाम है। मनुष्य वह है जो कबीर के जुमले में सदैव मनुष्य ही बना रहे। यूसुफ खान का दिलीप कुमार होना मनुष्य की देह में आत्मा का छिप जाना है। वह हर उस मनुष्य की देह में पैठ जाने को तत्पर है जो जीवन को निजी जागीर नहीं समझते। मेरा यह तर्क महल रेत की बुनियाद पर नहीं है। वर्षों की अंतमुर्खी वैचारिक जद्दोजहद के बाद दिलीप कुमार के लिए मुझे यह वाक्य हासिल हो पाया है। अभिनेता होना दिलीप कुमार होना नहीं है लेकिन दिलीप कुमार होना अभिनेता होना है। मुगलिया सल्तनत के कलात्मक बोध के प्रवक्ता अकबर ने नवरत्न टीम के आलिम फाजिल बीरबल से पूछा था हिंदुओं में सबसे ज्यादा किस नदी का पानी पवित्र है। हाजिर जवाब बीरबल ने छूटते ही जवाब दागा, हुजूर यमुना का, जिसके किनारे आप विराजते हैं। अकबर ने पलटवार किया, बीरबल, कैसे हिन्दू हो? हिन्दुओं में सबसे पवित्र तो गंगाजल होता है। बीरबल ने मासूमियत का नकाब ओढ़कर निरुत्तर करता चुटीला जवाब दिया, हुजूर गंगाजल पानी थोड़े ही है। वह तो अमृत है। सबसे पवित्र पानी तो यमुना का ही है। बीरबल को मालूम था क्या कि बॉलीवुड में कभी कोई दिलीप कुमार अभिनय का बहुव्रीहि समास बनकर आएगा?
इस पोस्ट के लेखक कनक तिवारी जी कहते है कि वे दिलीप कुमार के बिना भारतीय सिनेमा की कल्पना ही नहीं कर सकते’। (फेसबुक से साभार)