- अवधेश बजाज कहिन
बचपन में एक खेल काफी लोकप्रिय हुआ करता था। ‘तीन पैर की दौड़।’ दो-दो प्रतिभागियों की टीमें। दोनों अपना एक-एक पांव आपस में बांधकर दौड़ लगाते थे। जो टीम जीतती, उसके लिए यह माना जाता था कि उसमें अच्छी धावक क्षमता से लेकर आपसी सामंजस्य स्थापित करने की जोरदार क्षमता मौजूद है। यह इसलिए याद आया कि लोकसभा चुनाव के परिणामों में मध्यप्रदेश में भाजपा को जो सफलता मिली है, वह बचपन वाली उस दौड़ में मिली सफलता और आपसी तालमेल वाला मामला ही कहा जा सकता है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा क्रमश: सरकार तथा संगठन के स्तर पर एक-दूसरे के साथ पूरी शक्ति तथा गति से जुड़े रहे और भाजपा राज्य की सभी 29 सीटों पर जीतने में सफल हो गयी। इस विजय की जयकार का महत्व उस समय और भी बढ़ जाता है, जब भाजपा दिग्विजय सिंह से लेकर कमलनाथ (बजरिये बेटे नकुल नाथ) जैसे दिग्गजों से भी उनकी परंपरागत सीट छीनने में सफल हो चुकी है।
विष्णुदत्त शर्मा प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पहले भी अनेक अवसर पर अपनी कुशल संगठन क्षमता का परिचय दे चुके हैं। लेकिन मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के लिए इस चुनाव से जुड़े हालात इतने निरापद नहीं थे। इधर, डॉ. यादव ने मुख्यमंत्री पद संभाला और उधर लोकसभा चुनाव की गतिविधियों ने जोर पकडऩा शुरू कर दिया। ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी कि किस तरह कम से कम समय में प्रदेश की जनता को अधिक से अधिक विश्वास दिलाया जा सके कि उन (डॉ. यादव) के नेतृत्व में भी यहां डबल इंजिन की सरकार लोगों के लिए विकास और सुशासन वाली अवधारणा को कायम रखेगी। लेकिन डॉ. यादव ने विपरीत बहाव में भी तैरते हुए ऐसा कर दिखाया। वह भी तब, जब मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद से ही उनके लिए यह अग्निपरीक्षा भी शुरू हो गई थी कि कैसे वह करीब साढ़े सोलह साल तक मुख्यमंत्री रह चुके अपनी ही पार्टी के अपने पूर्ववर्ती शिवराज सिंह चौहान की लकीर से आगे निकल सकेंगे। स्थिति उस समय और जटिल जान पड़ती थी, जब यह तथ्य भी सत्य था कि भाजपा ने वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव में जो भारी विजय हासिल की, उसमें शिवराज के नाम और काम का बड़ा योगदान रहा। जाहिर है कि ऐसे में डॉ. यादव के लिए बतौर मुख्यमंत्री स्वयं के चयन को सही सिद्ध करना भी अपरिहार्य हो गया था और उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। डॉ. यादव ने राज्य में सरकार की कई उन नीतियों को बदस्तूर जारी रखा, जिनका उल्लेख आज भी शिवराज के नाम के बगैर अधूरा रहता है। साथ ही उन्होंने अनेक ऐसे नए कार्यक्रम भी लागू किए, जो आम जनता के विश्वास को ख़ास तरीके से कायम रखने का माध्यम बन गए। इस तरह एक सरल तथा सफल मुख्यमंत्री के रूप में बड़ा संतुलन साधकर डॉ. यादव अपने कार्यकाल की आम चुनाव वाली वैतरणी पार करने में सफल रहे हैं।
विष्णुदत्त शर्मा भी सदैव से पद और कद के अहंकार से सफल तरीके से बचते चले आ रहे हैं। भाजपा का अनुशासन उन्होंने बखूबी आत्मसात किया है। यही वजह रही कि शिवराज से लेकर डॉ. यादव तक के कार्यकाल में वह कभी कुशल साथी तो कभी विश्वस्त सारथी साबित हुए हैं। शर्मा के कामकाज की बड़ी विशेषता कठोर निर्णय और सहृदय व्यवहार को बराबरी से अपनाए रखने की है। वे विपक्ष के खिलाफ तथ्यों के साथ आक्रामक तरीके से मुखर रहे हैं और आवश्यकता होने पर राज्य सरकार सहित भाजपा संगठन के पक्ष में तीखे तेवर दिखाने में उन्होंने कभी भी चूक नहीं की है। जब इन गुणों का डॉ. मोहन यादव के साथ भी तादात्म्य स्थापित हो गया है ,तो फिर लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में भाजपा के लिए बंपर सफलता के कारणों को लेकर बहुत अधिक शोध या आश्चर्य करने की गुंजाइश नहीं रह जाती है। पत्रकार के रूप में मैंने डॉ. मोहन यादव और विष्णुदत्त शर्मा को उनकी छात्र राजनीति के समय से देखा है। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ये दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक पाठशाला के सफलतम और संस्कारवान छात्रों में से एक हैं। फिर ऐसे दो लोग एक साथ मिल जाएं तो समन्वय और सफलता के बीती चार जून की तरह वाले और भी प्रसंग सामने आने की उम्मीद को बेमानी नहीं कहा जा सकता है।