- पंकज जैन
लोकसभा के दो चरणों के चुनाव बगैर किसी बड़ी वारदात या घटना के सम्प्पन हुए, बधाई तो बनती है। बधाई निर्विघ्न चुनाव की, न कि मतदान की। मतदान तो शर्मिंदगी महसूस करवा रहा है,गत लोकसभा चुनाव की तुलना में दस से बारह प्रतिशत और कम। डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौम पांच साल इंतजार नही करती, यंहा इंतजार तो दूर, वोटिंग परसेंटेज को देख कर लगता है कि यंहा तो कौम ही जिंदा नहीं है। इधर मीडिया अपना अलग ही राग अलाप रही है,कम मतदान का बड़ा सीधा सा कारण बता रही है कि शादियां और गर्मी अरे भले मानुसो पिछले चुनाव भी अप्रैल माह में ही हुए है, और हर वर्ष अप्रैल माह में शादियां और गर्मी अपने पूरे शबाब पर रहती है। खैर, लोकसभा 2024 के चुनावों के परिणाम स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे है,सत्ताधारी दल की वापसी तय है, सौ प्रतिशत तय है, पर, इस तय परिणाम के बावजूद इस बात को नही नकारा जा सकता कि मजबूत लोकतंत्र के लिए ज्यादा से ज्यादा मतदान कितना आवश्यक है। मेरे जैसे सांख्यिकी के विद्यार्थी सीटों की संख्या से चुनाव परिणाम तय करने से थोड़ा परहेज करते हैं,क्योंकि चुनाव परिणामों में अलग अलग दलों को मिले वोट के परसेंटेज के भी अपने मायने होते है। उदाहरण के लिए लोकसभा के किसी चुनाव में दो महत्वपूर्ण दलों के प्रतिद्वंदी आमने सामने है,उस संसदीय क्षेत्र में मान लो एक लाख वोट है,चुनाव के रोज उन एक लाख मतों में से 54 प्रतिशत (इस चुनाव में यूपी का मतदान प्रतिशत) मत पड़े,उनमें जो जीता उसे 28 हजार मत मिले, हारे हुए को 26 हजार मिले मतलब कि जीता हुआ कैंडिडेट मात्र 28 प्रतिशत वोट पा कर देश के नीति नियंताओं की सूची में शामिल हो जाता है,उसे अपने ही क्षेत्र के 72 प्रतिशत मतदाताओं के मिजाज,उनकी जरूरतों का अंदाज ही नही है, अब आप बताए गलती किसकी है,नि:संदेह वोटर्स की, जो, घर मे बैठा रहा, चाय की चुस्कियों में राजनैतिक जुगाली करता रहा। गलती शासन प्रशासन की भी है, जो मतदान को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित और ईमानदारी से काम नहीं कर पाते हैं,इसलिए ये प्रयास मात्र प्रपंच बन जाते है। वक्त आ गया है कि मेरा मत, मेरा अधिकार में एक चीज और जोड़ी जाए मेरा कर्तव्य । क्योंकि मतदाता को यह समझना जरूरी है कि अधिकार की मांग के पूर्व कर्तव्य पूरा करना जरूरी होता है। अधिकार के साथ साथ कर्तव्यनिष्ठा का समावेश हो जाएगा तब ही आने वाले समय मे सौ तो नही फिर भी 90 प्रतिशत मतदान की आशा तो कर ही सकते है,और यह हो गया तो यकीन मानिए देश मे नए विचारों के प्रवाह को कोई ताकत नहीं रोक पाएगी। ईश्वर करे ऐसा ही हो।
चलते चलते: चुनावों में मतदान का प्रतिशत तो निराश करने वाला है ही,उधर बोर्ड की परीक्षाओं के परिणाम भी निराशाजनक है,क्योंकि अधिकांश शिक्षक पढ़ाने की जगह चुनाव की तैयारियों में झोंक दिए गए थे। सरकार को यह समझना पड़ेगा कि जितना चुनाव जरूरी है, उतना ही जरूरी है देश के बच्चों का भविष्य।