संघ समर्थक अखबार मध्य स्वदेश ने भाजपा को दिखाया आईना

वैचारिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए प्रतिबद्ध अखबार मध्य स्वदेश ने रविवार को अपने अखबार में तीन आलेख बड़े स्तर पर दलबदल को लेकर छापे हैं। इन आलेखों में जो कुछ लिखा गया है, वह देव दुर्लभ कार्यकर्ताओं की मनोस्थिति के करीब देखा जा रहा है।  इन दिनों  भाजपा द्वारा  मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं व कार्यकर्ताओं को पार्टी में लाने की बाकायदा मुहिम चलाई जा रही है।  दरअसल, इस मुहिम के दौरान हर उस कांग्रेसी के लिए पलक पांवड़े बिछाए जा रहे हैं, जिस पर कांग्रेसी नेता होने का तमगा भर लगा हो। भले ही वह मतदाताओं पर पकड़ रखता हो या नहीं। ऐसे में उस देव दुर्लभ कार्यकर्ता के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया  है, जो सालों से विपक्षी नेताओं से संघर्ष कर पार्टी को पुष्पित और पल्लवित करने के लिए संघर्ष करता आ रहा है। पार्टी का यह वो कार्यकर्ता है, जिसे नींव के पत्थर की तरह बना दिया गया है। भले ही अपने संस्कार व विचार की वजह से ऐसा कार्यकर्ता विद्रोही चेतना से दूर रहे , लेकिन मन की पीड़ा शांत रखकर भी पहले चरण के मतदान में उसने अपनी मंशा प्रगट कर दी है। मध्य स्वदेश ने जो आलेख छापे हैं उन्हें, ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं।

कम मतदान, कहीं नई भर्ती का साइड इफेक्ट तो नहीं!

  •  जयराम शुक्ल

गीला कचरा, सूखा कचरा और मेडिकल वेस्ट पहले चरणा का वोटिंग प्रतिशत इन्हीं के संक्रमण का शिकार हो गया! भाजपा के वरिष्ठ नेता से जब मैंने पहले चरण के मतदान के ट्रेड के बारे में सवाल किया तो उनका यही जवाब था। ये वरिष्ठ नेता सतना के सम्मानित भाजपा नेता हैं और यहां दूसरे चरण यानी कि 26 अप्रैल को मतदान होना है। सतना में कांग्रेस लगभग साफ हो गई है, यानी कि तीन चौथाई भाजपा में आ गए। इन नेताजी का मानना है कि वोटिंग के मामले में सतना की गत सीधी से भी गई गुजरी होने वाली है। सीधी में पहले चरण में मतदान में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई है। पहले परण के मतदान के पश्चात विंध्य- महाकौशल में कुछ ऐसे सवाल हवाओं में तैर रहे है-मतदान का प्रतिशत क्यों गिरा? क्या यह घटत भाजपा के प्रतिकूल जाएगी? क्या इसके लिए कांग्रेस से भाजपा में आई दलबदलुओं की भीड़ जिम्मेदार है? क्या नई भर्ती से पुराने कार्यकर्ताओं के मनोबल पर प्रभाव पड़ा और वे तटस्थ हो गए? आइए इन्हीं कुछ सवालों की पड़ताल करते हैं। सबसे पहले मतदान के ट्रेंड के बारे में जानें।
19 अप्रैल को पहले …… मध्यप्रदेश की जिन 6 सीटों पर मतदान हुआ, उनमें से 4 महाकौशल की छिन्दवाड़ा, बालाघाट, जबलपुर, मंडला तथा विंध्य की सीधी व शहडोल शामिल हैं। इन छह सीटों का औसत मतदान 2019 के मुकाबले 8 प्रतिशत तक गिरा। सबसे ज्यादा सीधी में 14 प्रतिशत और सबसे कम छिंदवाड़ा में 2.8 प्रतिशत । जबलपुर में लगभग 9 प्रतिशत, शहडोल में 11 प्रतिशत और बालाघाट में 4.5 प्रतिशत के करीब।
घटे मतदान का घाटा किसके हिस्से
अब तक बढ़े हुए वोटिंग प्रतिशत का मतलब यह होता रहा कि भाजपा बढ़त ले रही है। 2019 में छिंदवाड़ा से भाजपा भले हार गई हो, पर मतदान के प्रतिशत की बढ़त ने कांग्रेस के नकुल नाथ की जीत के मार्जिन को सिकोड़ दिया था। जबलपुर और शहडोल बढ़े मतदान प्रतिशत के साथ हर साल भाजपा की जीत का मार्जिन बढ़ा रहे थे। इन दोनों सीटों को घटे मतदान प्रतिशत के बावजूद भले ही सुरक्षित मानाकर चलें, लेकिन छिंदवाड़ा, मंडला संशय में आ गई है और सीधी में यदि भाजपा जीतती भी है तो उसके जीत का मार्जिन काफी हद तक सिकुड़ सकता है।
चार लाख नई भर्ती फिर भी
तो क्या कांग्रेस छोडक़र भाजपा में आई कार्यकर्ताओं और नेताओं की भीड़ से भाजपा को कोई मदद नहीं मिली? न्यू ज्वाइनिंग कमेटी के संयोजक डा. नरोत्तम मिश्र के ताजा दावे को मानें तो अब तक राज्य से बूथ स्तर तक के चार लाख नेता और कार्यकर्ता भाजपा में आ चुके हैं, इनमें तीन चौथाई कांग्रेसी हैं। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री समेत तीन पूर्व सांसद, 15 पूर्व विधायक, 2 महापौर शामिल हैं। प्रदेश व जिला स्तर के पदाधिकारियों की संख्या बेशुमार है। इतनी बड़ी संख्या में आए कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में सिर्फ सुरेश पचौरी ही एक मात्र ऐसे हैं जो भाजपा के प्रचार अभियान में नजर आते हैं, शेष अन्य को क्या दायित्व सौंपे गए यह किसी को भी नहीं पता।
विंध्य में कांग्रेस के ट्रैप में फंसी भाजपा!
विंध्य में तो लगता है कि भाजपा कांग्रेस के चग्घड़ नेताओं के ट्रैप में ही फंस गई। सतना से कोई तीन चौथाई कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता भाजपा में आए। इनमें पिछले चुनाव के लोकसभा प्रत्याशी पूर्व महापौर राजाराम त्रिपाठी भी है। एक और प्रत्याशी सुधीर तोमर पहले दौर के ही दलबदल में आ गए। नागौद के कांग्रेस के विधायक रह चुके यादवेन्द्र सिंह पूरे दल-बल ढोल धमाके के साथ भाजपा में शामिल हुए। ये तीनों ही विंध्य के दिग्गज नेता अजय सिंह राहुल के समर्थक हैं। इनके अलावा भी सैकड़ों की संख्या में कांग्रेसियों ने भगवा गमछा पहन लिया। तत्काल असर यह दिखा कि नागौद विधायक और खजुराहो से सांसद रह चुके भाजपा के प्रदेश के सबसे पुराने नेताओं में एक नागेन्द्र सिंह अपने किले से बाहर ही नहीं निकले। राजनाथ सिंह की सभा में बुलाने पर भी नहीं गए। रीवा में पूर्व सांसद देवराज सिंह समेत ज्यादातर वे शामिल हुए जो बसपा से कांग्रेस में आए थे। उल्लेखनीय बात यह कि अजय सिंह राहुल के रीवा और सीधी के एक भी समर्थक भाजपा में नहीं गए। इसका सीधा अर्थ यहां के लोग जानते हैं। चूंकि सतना से कांग्रेस प्रत्याशी सिद्धार्थ डब्बू से अजय सिंह राहुल की अदावत है, इसलिए ऐसा हुआ। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि ये लोग भाजपा में ही टिके रहेंगे।
गरिष्ठ आए तो वरिष्ठ घर बैठ गए
महाकौशल के वरिष्ठ पत्रकार चैतन्य भट्ट का मानना है कि कांग्रेस से आए कार्यकर्ताओं को लेकर जिला स्तर का संगठन सहज नहीं है। चलते चुनाव के बीच आए हैं, इसलिए इन्हें दायित्व देने का जोखिम नहीं उठाया। दूसरे कांग्रेस छोडक़र आने वालों में ज्यादातर धनबल और रसूख वाले हैं, इसलिए पुराने कार्यकर्ता ठंडे से पड़ गए। बूथ तक वोटरों को पहुंचाने में भाजपा में पिछली बार सी सक्रियता नहीं दिखी। बकौल भट्ट जो बात जबलपुर की है वहीं सीधी और मंडला की भी हो सकती है। जबलपुर में भी बड़े पैमाने पर कांग्रेसी दल-बदल कर भाजपा में आए। महापौर जगत बहादुर अन्नू तो पहले ही आ गए थे, दिग्विजय सिंह के करीबी शशांक शेखर (पूर्व महाधिवक्ता), पाटन के पूर्व विधायक नीलेश अवस्थी, सिहोरा से कांग्रेस की विधानसभा प्रत्याशी रह चुकीं एकता ठाकुर भी कांग्रेस के पतझड़ के मौसम में ही भाजपा के पाले में आई। जबलपुर में दलबदलुओं को लेकर पूर्व मंत्री अजय विश्नोई और पूर्व महापौर प्रभात साहू अपनी तल्ख प्रतिक्रियाएं दे चुके हैं।
ये जो न्यू ज्वाइनिंग कमेटी है न..
दरअसल, तथाकथित न्यू ज्वाइनिंग कमेटी ने अपने भर्ती अभियान में जिला संगठन से कोई राय ही नहीं ली। जो कल तक गाली देते थे, चरित्र हनन करते थे, भाजपा को गोडसे की पार्टी कहते थे, जिन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ा तानाशाह कोई और नहीं दिखता था। ज्यादातर वही भाजपा में आ गए। इनमें वे भी हैं, जो ठेकेदार हैं और उनका भुगतान अटका है, बहुतेरे किसी न किसी मामले में फंसे हैं। भाजपा के भीतर जो नेता सतर्क हैं, वे ऐसे तथ्यों पर अपना वीटो लगाए बैठे हैं। जैसे रीवा में ही, यहां के बड़े कद्दावर नेता ने अभय मिश्रा को भाजपा में नहीं आने दिया तो नहीं आने दिया, जबकि न्यू ज्वाइनिंग कमेटी के कर्ताधर्ताओं ने जी-जान सटा रखा था। बकौल रीवा जिला संगठन के एक पदाधिकारी – इसी तरह चुनाव से अलग थलग बैठे रीवा के कांग्रेसी महापौर फिलहाल वेटिंग लिस्ट में डाल दिए गए हैं, वजह उनकी डिक्शनरी में कोई ऐसे शब्द शेष नहीं बचे, जिसका इस्तेमाल भाजपा और उनके नेताओं के लिए न किया हो।
छिन्दवाड़ा के ट्विस्ट से सबक
छिंदवाडा की कहानी में तो वोट के दिन ही बड़ा ट्विस्ट आया। महापौर विक्रम अहाके का दिल बदल गया और वे भाजपा में रहते ही कांग्रेस के प्रत्याशी नकुल नाथ को वोट देने की अपील करते नजर आए। अब अमरवाड़ा के विधायक कमलेश शाह, कमलनाथ के शैडो रह चुके दीपक सक्सेना व नगर निगम के सभापत्ति प्रमोद शर्मा का दिल न बदला हो इसकी क्या गारंटी? कमलनाथ ने जितना कुछ अहाके के लिए किया उतना ही तो दीपक सक्सेना व शाह के लिए भी किया है। यानी कि यह दल-बदल भाजपा का फुल प्रूफ प्लान नहीं था।
दल बदला पर निष्ठा…?
महाकौशल के ही संघ की पृष्ठभूमि के एक भाजपा नेता कहते हैं- यह दल बदल है निष्ठा बदल नहीं। दरअसल कांग्रेस के एक विधायक से कहा गया कि यदि आप भाजपा में नहीं आते तो आपकी पत्नी के भ्रष्टाचार के वे पुराने मामले खोल दिए जाएंगे जो नगर पंचायत अध्यक्ष रहते हुए किया था। वैसे ही नगर निगम के महापौरों को अविश्वास प्रस्ताव का भय दिखाया गया। ऐसे में संख्या दिखाने की दृष्टि से भले ही इन्हें पार्टी में शामिल कर लें, पर वस्तुत: इनकी निष्ठा वहीं रहेगी और ये नए दल में आकर उसे कुतरेंगे ही।
और अंत में.. न्यू ज्वाइनिग कमेटी स्वयंभू है कि प्रदेश व केंद्र के संगठन की नई रचना?
भोपाल में भाजपा प्रदेश कार्यालय में वर्षों तक संगठन के सूत्र सम्हालने वाले एक बेबाक बुजुर्ग नेता कहते हैं- यह कमेटी तो नगर निगम के हांका गैंग की तरह है, जो सडक़ पर फिर रहे आवारा ढोरों को हांककर अपने बाड़े में ला रही है। उक्त नेता कहते हैं कि असलियत का पता उस दिन लगेगा जिस दिन भाजपा मध्यप्रदेश में अपने पिछले प्रदर्शन तक भी न पहुंच पाएगी। आज ये भले आसमान में हैं, कल जमीन भी ढूंढे नहीं मिलेगी। बहरहाल अभी भी वक्त है, तीन चरण और 23 सीटों में मतदान, संभल सको तो संभलों।
(लेखक- मध्यप्रदेश के ख्यात समीक्षकऔर वरिष्ठ पत्रकार है।)

कहीं घातक न हो जाए यह आत्मविश्वास

  • अतुल तारे

आज सुबह-सुबह मंडी में रसब्जी खरीदते  समय मैं रीवा में वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक जयराम शुक्ला जी से मोबाइल पर बात कर रहा था। विषय छिंदवाड़ा में कम मतदान को लेकर था। साथ ही मात्र 18 दिन में महापौर विक्रम के हृदय परिवर्तन को लेकर थी। सब्जी वाला जिसका नाम महेंद्र है, यह बात सुन रहा था। जयराम जी ने जो कहा, उसकी चर्चा आगे। पर महेंद्र ने जो कहा उसे मैं अक्षरश: रख रहा हूं। महेंद्र ने कहा बाबूजी ! हम कभी-कभी मजबूरी में बासी सब्जी रखते हैं पर उनको ताजी सब्जी में मिलाते नहीं हैं। आलू और प्याज अलग रखते हैं। इनका जल्दी सडऩे का खतरा रहता है। जब यह बात सब्जी पर लागू है तो भाजपा जिसके पास आज उसके कामों की इतनी ताजगी है तो वह कांग्रेस का बासी अपने में मिला ही क्यों रही है? संभव है बासी सब्जी वाले की याने कांग्रेस का फड़ बंद हो जाए पर भाजपा का फड़ भी जल्दी ही बदबू मारने लगे। महेंद्र ज्यादा पढ़ा लिखा आज की परिभाषा में नहीं है। पर भारतीय राजनीति का इतना सरल और सटीक विश्लेषण अच्छे-अच्छे पंडित भी शायद ही कर सकें। छिन्दवाड़ा में महापौर विक्रम अहाके का तीन सप्ताह के भीतर फिर कांग्रेस में जाना एक सामान्य घटना नहीं है।  एक अति सामान्य पृष्ठभूमि से आए विक्रम ने कहा कि उन्हें डर था कि पार्षद चले गए, कहीं कुर्सी न चली जाए तो वह भाजपा में आ गए। पर उन्हें घुटन होने लगी। खबर यह भी है कि विक्रम को घर से भी काफी दबाव था। प्रश्न विक्रम के निर्णय का नहीं है। उसकी अंतरात्मा वो जाने ? वह पहले दबाव में था या अब ? प्रश्न सीधा-सीधा भाजपा के उन नीति निर्धारक समूह से है कि आखिर किस मजबूरी में बकौल प्रदेश के मंत्री प्रह्लाद पटेल गीला और सूखा कचरा बीन रहे हैं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यशस्वी नेतृत्व, भारत की वैश्विक उड़ान, आतंकवाद पर कठोर प्रहार का साहस, उन्नत अर्थव्यवस्था, सुकून देती आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था, सांस्कृतिक अभ्युदय, कश्मीर में बदलता मौसम, पूर्वोत्तर भारत का शेष भारत से जुड़ाव लंबी सूची है। विधानसभा में शानदार प्रदर्शन। यह समय था। माफ करें। फिर वह महेंद्र याद आ गया। उसी की भाषा में यह समय था कि हम अपने फड़ को और सजाते। अपने घर को ही और बेहतर करते। अपने ही कार्यकर्ताओं को और बड़ी जवाबदारी देते। जात-पात से ऊपर उठते। यह समय था कि नेतृत्व साहसिक निर्णय करता। परंपरागत राजनीतिक तरीकों से परहेज करता। जो भाजपा ने 2014 के बाद किया भी था। यह एक नये ‘आदर्श’ की स्थापना का समय था। पर भाजपा ने ‘आदर्श घोटाले’ में शामिल महाराष्ट्र के नेता को शामिल कर उन्हें राज्यसभा में भेजने का निकृष्ट उदाहरण दिया। यह सिर्फ एक प्रतीक है। छिन्दवाड़ा से ही दीपक सक्सेना जिस दिन भाजपा में आते हैं उसी दिन वह यह बयान भी जारी करते हैं कि उनका बैर नकुलनाथ से है।  कमलनाथ से नहीं। कमलनाथ चुनाव लड़ेंगे तो वह उनका काम करेंगे। दीपक सक्सेना की साफगोई की प्रशंसा। पर भाजपा की क्या मजबूरी है ?  कमलनाथ अपराजेय नहीं हैं। और उनको या नकुलनाथ को भाजपा में लाने की पटकथा लिखी किसने ? क्यों लिखी ? अब वह संभव नहीं हुआ तो उनको हराने के लिए भाजपा के पास अपने काम हैं। कमलनाथ यूं भी राजनीतिक विश्वसनीयता खो चुके थे। भाजपा की तोडफ़ोड़ से क्यों उन्हें सहानुभूति का पात्र बनाया गया ? नतीजे 4 जून को आयेंगे। पर कम मतदान हर बूथ पर 370 वोट बढ़ाने का लक्ष्य छिंदवाड़ा में ही क्यों असफल हुआ ? जबलपुर में श्री मोदी के ऐतिहासिक रोड शो के बावजूद मतदान का प्रतिशत 9 फीसदी गिरना क्या संकेत देता है ? 400 पार का नारा देने वाली भाजपा को पहले चरण के मतदान के बाद यह सोचना ही होगा कि 2019 के बाद मतदान का प्रतिशत 7.5 प्रतिशत घटना अच्छे संकेत नहीं है। विचार करना होगा कि क्या कार्यकर्ता अति आत्मविश्वास में है ? या वह भी किसी अव्यक्त घुटन में है ? सामूहिक नेतृत्व की पक्षधर भाजपा आज मोदी की गारंटी और मोदी का परिवार बन रही है। बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारतीय राजनीति के ही नहीं, वैश्विक राजनीति के असाधारण नायक हैं। पर संगठन को यह विचार करना होगा कि एक सीमा से अधिक व्यक्ति केंद्रित रणनीति संभव है । कभी-कभी तात्कालिक लाभ दे दे, पर दीर्घकालीन उसके नुकसान ही हैं। साथ ही एक साथ जो भी आना चाहे। उसकी बिना किसी पृष्ठभूमि की परवाह किए भाजपा में शामिल करने की दिशाहीन लालसा कांग्रेस का कितना नुकसान करेगी, पता नहीं, पर भाजपा के आंतरिक शुचिता का स्वास्थ्य बेशक खराब कर रही है। प्रसंगवश, राजनीतिक शोधार्थी ध्यान दें। ज्योतिरादित्य सिंधिया एक बड़े नेता, उनके साथ 22 विधायक आते हैं। सरकार भाजपा की बन जाती है। पर क्या कांग्रेस का वोट शेयर इतने बड़े राजनीतिक परिवर्तन के बाद कम हुआ ? नहीं हुआ। तात्पर्य बड़े नाम आ जाएंगे। उनके हित भी साध लिए जाएंगे। पर भाजपा जमीन पर इस से मजबूत होगी, शक है।
और अंत में-
अभी छ: चरण शेष हैं।

शंकर जी के अभिषेक के लिए एक लोटे दूध का आग्रह की कहानी सबने सुनी है। चिंता करनी होगी। प्रत्येक कार्यकर्ता के पास लोटा है या नहीं। है तो उसमें पानी है या दूध? और वह दूध लेकर जाए। अभिषेक करे। तभी एक भारत और समर्थ भारत का स्वप्न पूर्ण होगा। विजय समीप है, यह सच है पर शिथिलता आत्मघाती भी हो सकती है।
(लेखक मध्य स्वदेश के समूह संपादक हैं।)


चलती गाड़ी में ‘जबरिया’ सवारी बढ़ाती भाजपा…

  • शक्ति सिंह परमार

बहुत पहले मोबाइल फोन पर मिस्ड कॉल के जरिए ही भाजपा विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन का तमगा हासिल कर चुकी है… ऐसे में सबसे ज्वलंत सवाल यही है कि फिर भाजपा में आए दिन आयातित नेताओं का ऐसा रेला क्यों बना हुआ है.., जिसमें भाजपा के ‘देवदुर्लभ’ कार्यकर्ता इन आयातित नेताओं को ‘आत्मघाती’ मानकर अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं… भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच से ही यह आवाज लगातार मुखर हो रही है कि जब केन्द्र से लेकर राज्यों और यहां तक कि निगमों, निकायों और पंचायतों तक में ‘संगठन-सरकार’ के मान से भाजपा की गाड़ी संतुलित तरीके और तेज गति से चल रही है तो उसमें कांग्रेस से लेकर अन्य दलों की आयातित जबरिया सवारियां (नेताओं) बैठाकर पूरी गाड़ी (भाजपा) को ही अनियंत्रित करने का ‘आत्मघाती’ कदम पार्टी लगातार क्यों उठा रही है..? भाजपा में ऐसी स्थितियां विकट से विकट हो रही हैं। याद करें 9 मार्च 2024 का दिन जब राजधानी भोपाल में भाजपा के पार्टी मुख्यालय ‘पं. दीनदयाल भवन’ में कांग्रेस के आधा दर्जन नेता भाजपा में प्रवेश कर रहे थे, तब मंच पर प्रदेश के काबीना मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय कांग्रेस के पूर्व विधायक और विधानसभा चुनाव 2023 में अपने प्रतिद्वंद्वी रहे संजय शुक्ला को भगवा पटका पहनाते हुए कान में यह कह रहे थे कि ‘तेरी बहुत गाली सुनी और फिर भी तुझे लेना पड़ रहा है…’ इस तरह के आहतपूर्ण शब्द संपूर्ण भाजपा में मध्यप्रदेश से लेकर देशभर में कांग्रेसियों के दलबदल कर भाजपा में आने पर रह-रहकर सुनाई दे रहे हैं, जब पार्टी और संगठन में महत्वपूर्ण दायित्वों पर आरूढ़ नेताओं को इस आयातित खेल पर मलाल है कि- जिससे गालियां खाई, जिसके भद्दे आरोप-प्रत्यारोप सुने, उसे ही पार्टी में लेना पड़े, स्वागत का गमछा ओढ़ाना पड़े, तब विचार कीजिए औसत कार्यकर्ता एवं जमीनी देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं के दिलों पर क्या बीत रही होगी? क्योंकि भाजपा और कमल निशान के लिए तो ‘पंजे’ से इन्हीं देवदुर्लभ ने लगातार पंजा लड़ाया है। कितने संघर्ष के बाद पार्टी को यहां तक पहुंचाया है।
ध्यान रहे… आयातित की मानसिकता और कार्यकर्ता यथावत
मध्यप्रदेश में जिस स्तर पर दलबदल हुआ है और भाजपा के शीर्ष नेता हजारों कांग्रेसियों द्वारा पार्टी छोडक़र भाजपा में आने पर इतरा रहे हैं, वे भूल जाते हैं कि जितने भी बड़े कांग्रेसी नेताओं ने 2018 के उपचुनाव से लेकर 2023 के विधानसभा चुनाव और अब 2024 के लोकसभा चुनाव तक भाजपा का दामन थामा है, उनके साथ पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की टोली भी नत्थी होकर आई है। जो जहां से भाजपा के टिकट पर विधायक, मंत्री या संगठन में महत्वपूर्ण पद पर पहुंचा है, उस क्षेत्र में पुराने कांग्रेसी ही वर्तमान आयातित भाजपा नेता के मुख्य कर्ताधर्ता बन गए हैं। ऐसे में उस क्षेत्र के पुराने देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं की स्थिति और विकट हो गई है। वह अब तक जिनसे भाजपा के कार्यक्रमों, आंदोलनों, अभियानों, बैठकों और जंगी प्रदर्शन के दौरान लड़ाई मोल लेता था, वही समर्पित भाजपा कार्यकर्ता अब कांग्रेस छोडक़र नए-नए भाजपा कार्यकर्ता बने कार्यकर्ताओं के आगे-पीछे घूमने को मजबूर हैं या फिर उसकी आवाज दबती ही चली जा रही है। कांग्रेस से आए बड़े नेताओं की मानसिकता नहीं बदलती और वे अपने पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर ही विश्वास करते हैं। विचार करें कि इससे जमीनी स्तर पर कमजोर कौन हो रहा है?
शुक्ला को 140 करोड़ का नोटिस बड़ा कारण
 इंदौर जिला इंदौर शहर- शनिवार, 9 मार्च 2024 को भोपाल में कांग्रेस के पूर्व विधायक संजय शुक्ला ने अपने सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा में प्रवेश किया। कैलाश विजयवर्गीय ने स्वयं उनको प्रवेश दिलवाया। शुक्ला धनबल-बाहुबल में समर्थ होने के साथ ही कार्यकर्ताओं की फौज रखते हैं। विधानसभा चुनाव के पूर्व उनके भाजपा में आने की अटकलें थीं, लेकिन टिकट को लेकर बात नहीं बनी, लेकिन अब उनके भाजपा प्रवेश को 140 करोड़ के इनकम टैक्स नोटिस से जोडक़र देखा जा रहा है। बाद में इंदौर में विधानसभा 5 से दावेदारी कर रहे शिक्षाविद और अनेक कालेजों के संचालक स्वप्निल कोठारी भाजपा में शामिल हुए। उन्हें भी भविष्य में किसी अच्छे स्थान पर उपकृत करने का आश्वासन मिला है। फिर कांग्रेस के टिकट पर विधायक, महापौर और सांसद का चुनाव लगातार लडक़र हार चुके पंकज संघवी ने कमल थाम लिया। ऐसा बताते हैं कि धनबल में समर्थ संघवी के रियल इस्टेट कारोबार एवं शैक्षणिक उद्यम पर अनेक तरह की जांच का शिकंजा कसा हुआ है। इन सबसे राहत के लिए संघवी ने भाजपा का दामन थामा है।
– सांवेर में तुलसी सिलावट उपचुनाव में ही कांग्रेसी हो गए थे। उपचुनाव रिकार्ड मतों से जीते, 2023 का विधानसभा चुनाव जीते और मंत्री है, लेकिन सांवेर में सबसे बड़ी समस्या यही है कि पुराने कांग्रेसियों के भरोसे ही पूरा सांवेर विधानसभा चल रहा है। पुराने भाजपाई कार्यकर्ता
या तो घर बैठ गए हैं या फिर उनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही है।
-देपालपुर विधानसभा से 2018 में विधायक चुने गए और 2023 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव हार चुके विशाल पटेल ने भी बड़े स्तर पर कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा में प्रवेश किया। पटेल वोटों और जाति बिरादरी के दम-खम पर विशाल ने देपालपुर में पाला बदल तो कर लिया, लेकिन यहां पर भी वर्तमान विधायक मनोज पटेल और उनसे जुड़े पुराने भाजपाई अब कांग्रेस से नए-नए भाजपाई बने कार्यकर्ताओं के साथ संतुलन बैठाने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि विशाल भी भविष्य में टिकट के मान से ही भाजपा में आए है। यहां वर्तमान भाजपा विधायक मनोज पटेल पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान गुट के हैं, जिनकी कैलाश विजयवर्गीय से नहीं बनती। आने वाले समय में देपालपुर में मनोज पटेल-विशाल पटेल भाजपा के दो धड़े के रूप में शिवराज- कैलाश समर्थक के रूप में आपस में लड़ते नजर आए तो अतिशियोक्ति नहीं।
– महू विधानसभा में भी पाला बदल ऐसा हुआ कि तीन बार के कांग्रेस विधायक और दो बार कांग्रेस से हार चुके अंतर सिंह दरबार ने इस बार कांग्रेस से बागी होकर चुनाव लड़ा और हारा, अब वे भाजपाई हो गए। उन्हें भाजपा सरकार में मलाई नजर आ रही है। कभी भाजपाई थे रामकिशोर शुक्ला, उन्होंने भाजपा से बागी होकर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा, हारे और अब भाजपा में आने के बाद यह फफूंद फैला रहे हैं कि मुझे तो भाजपा और संघ ने ही रणनीति के तहत कांग्रेस में भेजा था। दरबार और शुक्ला दोनों ने पूर्व मंत्री और वर्तमान विधायक उषा ठाकुर और उनके कार्यकर्ताओं का न केवल मान हनन किया, बल्कि अनेक तरह की प्रताड़ना भी दी है। अब यही लोग पुन- भाजपा में आ गए हैं। ऐसे में पुराने भाजपाई बगलें झांक रहे हैं, क्या भाजपा के देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं को पार्टी के मान से ऐसी स्थितियों का ही इंतजार था ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)

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