- गौरव चौहान
तीन दशक तक राजगढ़ क्षेत्र में किले की तूती बोलती थी। किले के साम्राज्य को कोई डिगा तक नहीं सका था। उस किले की दीवारें पिछले एक दशक से कुछ कमजोर होती नजर आ रही हैं। यही कारण है कि पिछले एक दशक से राजगढ़ लोकसभा सीट पर किले के किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि भाजपा का राज चल रहा है। हालांकि इस चुनाव में राजा यानी दिग्विजय सिंह खुद मैदान में हैं, यह सेना के लिए उत्साह बढ़ाने वाली बात होगी। जानकारों का कहना है की दिग्विजय सिंह इस बार चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। ऐसे में राजगढ़ से उनके विधायक पुत्र जयवर्धन को चुनाव लड़ाने की तैयारी थी। इसको देखते हुए बेटे की साख बचाने के लिए दिग्विजय सिंह चुनाव लडऩे मैदान में उतर चुके हैं।
जानकारी के अनुसार दिग्विजय सिंह को कांग्रेस के मौजूदा हालात को देखते हुए अंदेशा था कि पार्टी राजगढ़ सीट से उन्हें या फिर उनके विधायक बेटे जयवर्धन सिंह को चुनाव में उतार सकती है। पार्टी युवा चेहरे के तौर पर जयवर्धन सिंह को राजगढ़ उतारना चाहती थी, लेकिन ऐनवक्त पर विवश होकर दिग्विजय सिंह बेटे की जगह खुद चुनाव में उतरे। अब राजगढ़ सीट पर चुनाव रोचक हो गया है। बेशक पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का यह लगातार दूसरा लोकसभा चुनाव है। इससे पहले वे 2019 में भोपाल से भी चुनाव लड़ चुके हैं। जिसमें उन्हें भारी मतों से हार का सामना करना पड़ा था। वे पिछले चुनाव में राजगढ़ से लडऩा चाह रहे थे, लेकिन तब कांग्रेस की सरकार में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने चुनाव की घोषणा से पहले ही दिग्विजय सिंह के नाम भोपाल लोकसभा से घोषणा कर दी थी। कांग्रेस ने अभी तक 22 प्रत्याशियों की घोषणा की है। इनमें से 5 मौजूदा विधायकों को प्रत्याशी बनाया है। भांडेर विधायक फूलसिंह बरैया को भिंड से, सतना विधायक सिद्धार्थ कुशवाह को सतना से, पुष्पराजगढ़ विधायक फुंदेलाल मार्को को शहडोल से, तराना विधायक महेश परमार को उज्जैन से और डिंडोरी विधायक ओमकार सिंह मरकाम को मंडला लोकसभा से प्रत्याशी बनाया है। ऐसे में राजगढ़ सीट से राघौगढ़ विधायक जयर्वधन सिंह को भी प्रत्याशी बनाया जाना लगभग तय हो चुका था। ऐनवक्त पर दिग्विजय ने पांसा पलट दिया और खुद चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया। प्रत्याशी की दूसरी सूची की घोषणा से पहले दिग्विजय ने यह बयान दे दिया था कि पार्टी के आदेश पर वे भी राजगढ़ से चुनाव लडऩे के लिए तैयार हैं। यह बयान जयर्वधन सिंह को राजगढ़ लोकसभा चुनाव में पीछे हटाने की रणनीति का हिस्सा था।
दूसरों को दिया संदेश
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले मप्र में कांग्रेस के हालात काफी जुदा हैं। पार्टी में नेता और कार्यकर्ताओं के बीच भगदड़ मची है। लोकसभा प्रत्याशियों की घोषणा में देरी पर भाजपा यह कटाक्ष करती है कि कांग्रेस के पास प्रत्याशियों का टोटा है। ऐसे विपरीत हालात में दिग्विजय सिंह को पहले से यह आभास था कि बाप-बेटा की जोड़ी में किसी एक को लोकसभा चुनाव लडऩा पड़ सकता है। इसी के चलते उन्होंने राजगढ़ संसदीय क्षेत्र में सक्रियता बढ़ा दी है। दिग्विजय के मैदान में उतरने से पार्टी के उन जयवर्धन का नाम इसलिए पीछे किया नेताओं को भी चुनाव लडऩा पड़ सकता है जो पीछे हट रहे थे। अब पूर्व प्रदेश प्रमुख अरुण यादव का भी चुनाव लड़ना तय है। हालांकि अभी यह तय नहीं है कि वे खंडवा से लड़ेंगे या गुना से। क्योंकि गुना से सिंधिया के खिलाफ चुनाव लडऩे का ऐलान करके अरुण यादव पहले ही खंडवा से चुनाव लडऩे से पीछे हट चुके थे। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस 29 में से सिर्फ एक सीट छिंदवाड़ा को मामूली अंतर से जीत पाई थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी चुनाव हार गए थे। ऐसे में मौजूदा हालात में कांग्रेस की स्थिति पिछले चुनाव से भी खराब दिख रही है। यही वजह है कि दिग्विजय किसी भी स्थिति में जयवर्धन को लोकसभा चुनाव में नहीं उतरने देना चाहते। अपनी इस रणनीति में वे फिलहाल सफल भी हो गए हैं, लेकिन खुद चुनाव मैदान में कूद गए हैं। दिग्विजय सिंह के चुनाव में उतरने के बाद अब भाजपा प्रत्याशी रोडमल नागर की मुश्किलें बढ़ गई हैं। अब नागर पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि के भरोसे हो गए हैं। खुद के दम पर नागर के लिए चुनाव जीतना अब बेहद मुकिश्ल है। हालांकि दिग्विजय के लिए भी राजगढ़ में इस बार चुनौती कम नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह हैं, जो चाचौड़ा से चुनाव हारने के बाद से लगातार कांग्रेस और दिग्विजय सिंह पर हमलावर बने हुए हैं। उनके समर्थक जिनमें पूर्व लोकसभा प्रत्याशी मोना सुस्तानी एवं अन्य नेता शामिल हैं, जो भाजपा में जा चुके हैं। समर्थकों की कमी भी दिग्विजय को खलेगी। राजगढ़ लोकसभा में गुना जिले की राघौगढ़ और चाचौड़ा विधानसभा आती हैं। पूर्व में इन दोनों सीटों पर कांग्रेस को इतने ज्यादा वोट मिलते थे कि दूसरी सीटों पर कांग्रेस हारकर भी जीत जाती थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में चाचौड़ा से लक्ष्मण सिंह करीब 34 हजार से हार चुके हैं। वहीं राधौगढ़ से जयवर्धन सिंह भाजपा के हरेन्द्र सिंह मेहज 45 वोटों से ही जीते थे। ऐसे में चुनाव में दिग्विजय के सामने कई चुनौतियां होंगी।
33 साल बाद किलाबचाने उतरे
दिग्विजय सिंह 33 साल बाद पुन: चुनाव मैदान में उतरे हैं। उन्होंने इस सीट पर पिछला चुनाव 1991 में लड़ा था। पहले इन्कार कर युवा को आगे बढ़ाने के बयान देने के बाद दिग्विजय सिंह पार्टी के आदेश पर फिर चुनाव मैदान में कूद पड़े हैं। ऐसे में यह लोकसभा चुनाव राजगढ़ में किले को एक बार फिर मजबूती से स्थापित करने का एक मौका भी है। अब फिर किला मजबूत होकर उभरता है या उसकी दीवारें और कमजोर होती हैं, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही स्पष्ट हो सकेगा। राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र की पहचान राघौगढ़ के राजा व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय यिंह के गढ़ के रूप में होती रही है। 1984 से लेकर 2014 के चुनाव तक अधिकांश समय यहां पर राघौगढ़ राजपरिवार या उनके उतारे हुए प्रत्याशी का ही कब्जा रहा है। पहली बार दिग्विजय सिंह स्वयं 1984 में लोकसभा चुनाव लड़े थे। तब से लेकर 2014 तक किले का यहां सीधा दखल रहा। दो बार दिग्विजय सिंह खुद सांसद चुने गए, तो पांच बार उनके अनुज लक्ष्मण सिंह सांसद चुने गए। 2009 के चुनाव में राजा के खास सिपहसालार नारायण सिंह आमलाबे भी लोकसभा पहुंचने में कामयाब हुए थे, हालांकि उस चुनाव में उन्होंने भाजपा प्रत्याशी के तौर पर उतरे लक्ष्मण सिंह को हराया था।