- वर्ष 1991 में मिली थीं 27 सीटों पर जीत
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश में तीन दशक पहले मिली सफलता के बाद हर चुनाव में लगातार खिसक रहे जनाधार के बाद भी कांग्रेस ने सबक नहीं लिया। इसका परिणाम यह है कि कांग्रेस का जनाधार हर चुनाव में कम होता चला गया और हालत यह हो गई कि बीते चुनाव में तो बामुश्किल कांग्रेस को एक सीट पर ही जीत मिल सकी। जनाधार कम होना तब शुरू हुआ था, जब मप्र का विभाजन नहीं हुआ था। 1996 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 40 में से आठ सीटों पर आ गई थी। यह स्थिति तब थी जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और दिग्विजय सिंह सीएम थे। हालांकि पार्टी ने 1999 में 11 और 2009 में 12 सीटें जीती थीं, जबकि 1991 में 27 सीटों पर चुनाव जीता था। तब से लेकर अब तक कभी इतनी बड़ी जीत हासिल नहीं की। विश्लेषकों का कहना है कि तब भी कांग्रेस के सामने कई चुनौतियां और कमजोरियां थीं, जो अभी भी हैं। यही पार्टी के कदम रोक रही हैं। बीते इन वर्षों में मुख्य विरोधी भाजपा लगातार मजबूत होती गई। 1991 के चुनाव में 12 सीटों पर चुनाव जीतने वाली पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन कर कांग्रेस को 2019 के चुनाव में एक सीट पर लाकर खड़ा कर दिया। आसन्न चुनाव में इन दो दलों के बीच मुख्य मुकाबला है। जीतने के लिए ताकत झोंक दी है। रणनीतिक रूप से तैयारियों की बात की जाए तो भाजपा की तुलना में कांग्रेस पीछे दिख रही है। चाहे टिकट घोषित करने की बात हो या कैम्पेनिंग की।
कांग्रेस के कमजोर होने की वजह
मप्र में कांग्रेस पार्टी को कोई संगठन नहीं है। पार्टी में गुटों का संगठन है। इसकी वजह है पार्टी के क्षत्रपों द्वारा अपने -अपने समर्थकों को आगे बढऩा। इसकी वजह से गुटों में बंटे नेता अपने आका के हिसाब से काम करते हैं। इनमें से अब अधिकांश गुट तो समाप्त हो चुके हैं, लेकिन अभी तीन गुट प्रभावशाली बने हुए हैं। गुटीय राजनीति के कारण कांग्रेस कई बार विपक्ष के तौर पर भाजपा से एकजुट होकर मुकाबला नहीं करती है, जिसकी वजह से पीछे रह जाती है। कई कांग्रेसी भाजपा से मुकाबले की जगह आपस में ही मुकाबले में लगे रहते हैं।
भाजपा की ताकत
कई प्रमुख नेता सत्ता में नहीं रहे, फिर भी पार्टी की सक्रियता बनाए रखने के लिए काम किए। भाजपा ने कार्यकर्ताओं को गतिशील रखने और उनकी चिंता कम करने का काम किया। जनता के बीच बने रहने के लिए पार्टी कोई न कोई मुद्दा चुनती रहती है और पार्टी इसका लाभ उठाती है।