- हरीश फतेह चंदानी
मंत्रीजी नहीं चाहते विभाग पर उधारी
सूबे के एक बडे विभाग के मंत्री जी विभाग पर कोई उधारी नहीं चाहते हैं, फिर वो नई हो या पुरानी। इसकी वजह है विभाग की छवि न बिगड़ने देना। यही वजह है कि अगर कोई मामला उनकी संज्ञान में आता है तो वे इस प्रयास में रहते हैं कि बकाया किसी का भी हो उसका भुगतान हो जाए। ऐसे ही एक मामले में अब प्रदेश के प्रशासनिक मुखिया ने रोड़ा अटका दिया है। इसकी वजह से एक बकायादार का बड़ा भुगतान अटक गया है। दरअसल बड़े साहब सरकार के बेहद करीबी हैं और इसके अलावा वे इन दिनों कई मंत्रियों और नेताओं के बेहद करीबी भी बने हुए हैं। इसकी वजह से कोई उनकी कार्यशैली पर सवाल भी खड़ा नही करता है। दरअसल यह भुगतान उस समय से लंबित है, जब इस विभाग की कमान एक साहित्यिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले 1987 बैच के आईएएस संभाल रहे थे। हालांकि साहब के रिटायरमेंट के बाद उक्त बड़े बकायादार का कुछ भुगतान विभाग द्वारा मंत्री जी के प्रयासों के चलते कर दिया गया था। यह बात जब बड़े साहब को पता चली तो वे बेहद नाराज हो गए। ऐसे में जब शेष रहे भुगतान की प्रक्रिया शुरू की गई तो बड़े साहब ने हस्तक्षेप करते हुए भुगतान न करने का निर्देश दिया। यही नहीं बताया जाता है कि बड़े साहब ने यहां तक कह दिया है कि मेरे रहते कोई भी यह पेमेंट नहीं करा सकता। जो इसका भुगतान करेगा, मैं उसे भी नहीं छोडूंगा।
हींग लगे न फिटकरी
ये कहावत तो आपने सुनी ही होगी, हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा होय… ये कहावत इन दिनों प्रदेश सरकार के एक मंत्री पर सटीक बैठ रही है। दरअसल, माननीय जिस विभाग के मंत्री हैं, कहा जाता है उस विभाग में जमीन से सोना निकलता है। खनिज संपदा से परिपूर्ण प्रदेश में हर माननीय की ख्वाहिश होती है कि वह इस विभाग का मंत्री बने। वर्तमान में जिन माननीय को इस विभाग की कमान मिली है इन दिनों उनकी दसों उंगलियां घी में डूबी हुई हैं। ऐसे में सोने पर सुहागा यह कि मंत्रीजी को दो खदानों में पार्टनरशिप भी मिल गई है। सूत्रों का कहना है कि लंबे समय तक कमाई के लिए मंत्रीजी चाहते थे कि बिना कुछ दिए उन्हें ऐसा रास्ता मिल जाए, जिससे निरंतर लक्ष्मी आती रहे। मंत्रीजी की यह मंशा इस समय पूरी हो गई है। सूत्रों का कहना है कि पन्ना और रायसेन जिले में मंत्रीजी को एक ऐसा पार्टनर मिल गया है, जिसने उन्हें अपनी खदानों में हिस्सेदार बना लिया है। ये हिस्सेदारी मंत्री और ठेकेदार दोनों के लिए लाभदायक होगी, क्योंकि ठेकेदार की मनमानी को मंत्रीजी के रसूख के कारण कोई रोक नहीं पाएगा।
अतिरिक्त महाधिवक्ता के लिए कतार
अतिरिक्त महाधिवक्ता पुष्यमित्र भार्गव की भाजपा से महापौर पद की उम्मीदवारी तय होते ही हाईकोर्ट में अतिरिक्त महाधिवक्ता पद के दावेदार वकील सक्रिय हो गए हैं। संभवत: जल्द ही नए अतिरिक्त महाधिवक्ता की नियुक्ति हो सकती है। सूत्रों के मुताबिक भार्गव का नाम फाइनल होते ही वकीलों का एक तबका अतिरिक्त महाधिवक्ता पद की दौड़ में जुट गया है। फिलहाल इंदौर में दो पद हैं। एक पर काबिज भार्गव ने इस्तीफा दे दिया, जबकि दूसरे पर उमेश गजांकुश आसीन हैं। इस्तीफे के बाद अतिरिक्त महाधिवक्ता के दूसरे पद पर काबिज होने के लिए कई वकील प्रयासरत हैं। इनमें भाजपा व संगठन से जुड़े कई चेहरे हैं। इस पद पर कुछ पुराने वकीलों के नामों की चर्चा चल रही हैं। इंदौर में फिलहाल अतिरिक्त महाधिवक्ता के दो पद हैं, लेकिन सूत्रों की मानें तो सुगबुगाहट है कि इंदौर में भी तीन अतिरिक्त महाधिवक्ता हो सकते हैं। फिलहाल पूरे प्रदेश में केवल ग्वालियर में ही तीन अतिरिक्त महाधिवक्ता हैं।
दिहाड़ी के लिए कुबेरों पर दांव
यह जानकर आप आश्चर्यचकित होंगे कि महापौर और पार्षद के लिए राजनीतिक पार्टियां जिन कुबेरों पर दांव लगा रही हैं, उनका वेतन एक दिहाड़ी मजदूर से भी कम है। जिस पार्षद और महापौरी की दावेदारी के लिए नेताओं की कतारें लगी हैं… कर्मठता, लगनशीलता, ईमानदारी की पानी पी-पीकर कसमें खाई जा रही हैं और जिन नेताओं से ईमानदारी की उम्मीद की जा रही है उनका वेतन किसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम है। राज्य में नगर सरकार के चुनाव की रस्साकशी के बीच बड़ी मुश्किल से उम्मीदवारों का मसला निपटा है। इस उम्मीदवारी के लिए नेताओं ने जी-जान लगा रखी थी। इन पदों के लिए गली-मोहल्लों में शह-मात का खेल चला, लेकिन बतौर वेतन उनकी हैसियत जानकर आप चौंक जाएंगे। जिस मेयर को शहर का प्रथम नागरिक माना जाता है उसका वेतन मात्र जहां 13500 रुपए महीना है, वहीं पार्षद केवल 6 हजार रुपए महीने की तनख्वाह पाते हैं। ये दोनों जनता के वोट से चुने जाते हैं, पर इन्हें कोई प्रशासनिक अधिकार नहीं होते हैं, क्योंकि निगमों में सारे प्रशासनिक अधिकार आयुक्त के पास होते हैं, लिहाजा उसे आदेश देकर भी उनकी स्वीकृति का इंतजार करना पड़ता है। उधर पार्षद का वेतन तो रोज कमाने-खाने वाले मजदूर से भी कम है, उसे महज 200 रुपए रोज ही मिलते हैं, जबकि विधायक से अधिक रुतबा रखने वाले महापौर को भी मात्र 450 रुपए रोज मिलते हैं।